कथा- अग्नि-दीक्षा

November 1969

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“अपनी सेवा आप करना, ब्रह्मचर्य व्रत पाल, भूमिशयन, वल्कल वसन, उपवास तथा उपासना से बचे समय में धर्म ग्रन्थों का स्वाध्याय, चिन्तन और मनन यह साधना की प्रारम्भिक आवश्यकतायें है, शिखिध्वज! आज तुम्हारी मन्त्र-दीक्षा सम्पन्न हुई। पूजन की सामग्री, उपयुक्त पात्र, कुश-आसन यह अपने पास रखने होंगे। पंचोपचार पूजन सहित मंत्र जप करना चाहिये और शुभ्र ज्योति स्वरूप निराकार भगवती गायत्री का ध्यान करना चाहिये। जब तुम इस प्रारम्भिक साधना को सफलतापूर्वक पूरा कर लोगे तो आगे उच्चस्तरीय साधना के लिये, तुम्हें अग्नि-दीक्षा भी देंगे।” यह कहकर महर्षि उद्दालक उठ खड़े हुए। शिखिध्वज ने गुरु-चरणों में प्रणिपात किया, महर्षि उद्दालक ने आशीर्वाद दिया और दोनों अपने-अपने पर्ण कुटीरों की ओर चले गये।

श्रद्धा शिष्य की प्रारम्भिक परख है। आत्म-जिज्ञासा होना अन्यत्र बात है, श्रद्धा अन्यत्र। जिज्ञासाएँ तो नास्तिकों को भी होती है, किन्तु मानवीय स्वभाव के विपरीत ऊर्ध्वगामी जीवन और कष्टपूर्ण साधनाओं में जिस धैर्य की आवश्यकता होती है, वह श्रद्धावान व्यक्तियों में ही होती है। ‘श्रद्धावान लभते ज्ञान’ ‘श्रद्धयासत्य माप्यते-श्रद्धावान् ही ज्ञानार्जन करते है, श्रद्धावान ही सत्य को प्राप्त करते है। शिखिध्वज में श्रद्धा भावना का अभाव न होने से ही महर्षि ने मंत्रदीक्षा दी थी। सामान्यतः हर किसी को वे दीक्षा दिया नहीं करते थे।

एक वर्ष में शिखिध्वज ने अच्छी प्रकार अनुभव कर लिया कि संसार जड़ और चेतन दो प्रकार के परमाणुओं से बना है, जिस प्रकार जड़-परमाणु इधर-उधर घूमते हुए अपना संसार-दृश्य जगत बनाते रहते है, उसी प्रकार चेतना भी आनन्द प्राप्ति के लिये, यहाँ वहाँ विचरण करती रहती है। जब तक मन जड़ परमाणुओं से बने संसार में सुख खोजता है, तब तक वह भूले हुए पथिक की भाँति वन और कंटकों में विचरण का सा कष्ट पाता है पर जब वह यह जान लेता हे कि आत्मा की प्यास विराट-आत्मा बनने से बुझती है तो फिर वह जन्म-मरण के चक्र में आत्मचेतना को भटकता नहीं वरन् अपने भौतिक संस्कारों का प्रचालन करने और आत्मा को परमात्मा में घुला कर असीम आनन्द की प्राप्ति की तैयारी में संलग्न हो जाता है।

साधना का यह द्वितीय द्वार सिद्धांत जितना सरल है, व्यवहार में उतना ही कठिन। जन्म-जन्मान्तरों का अभ्यासी मन लौकिक सुखों को सहज ही त्यागने के लिए तैयार नहीं होता। बड़ा भारी संग्राम करना पड़ता है, तब कहीं मन की मलिनता दूर होती है। इस अवस्था में पहुँचे हुए साधकों को थोड़ी सी भी चूक उन्हें पथ-भ्रष्ट कर सकती है, उन्हें पहाड़ जैसी उपलब्धियों से पल भर में नीचे गिरा सकती है, इसलिये योग्य आचार्यों एवं सिद्ध महापुरुषों ने अग्नि-दीक्षा उन्हीं को दी, जिन्हें पात्र समझा। इस किसी को अग्नि-दीक्षा का अधिकारी घोषित करने की भूल उन्होंने की होती तो साधन-तत्व नष्ट ही हो गया होता।

मंत्र-दीक्षा की वर्षगाँठ श्रावणी के पुण्य पर्व पर पड़ती थी। एक दिन पूर्व ही शिखिध्वज ने गुरुदेव के समीप जाकर प्रार्थना की भगवन्! आपकी कृपा से प्रारम्भिक साधना का अन्तिम चरण आज से पूरा हो रहा है। मेरी हार्दिक अभिलाषा है कि अब मैं उच्च-स्तरीय साधनाओं में प्रवेश कर सिद्धियाँ प्राप्त करूँ, पाँचों कोशों का अनावरण करते हुए आनन्दमय भूमिका में पहुँचूं।

महर्षि शिष्य की निष्ठा से प्रसन्न तो हुए पर उनकी प्रसन्नता टीन पात्र की तरह न थी जो हलकी आँच से गर्म और थोड़ी सी शीत से ही शीतल हो जाता है। वे बड़े पारखी थे। बोले कुछ नहीं। भीतर दृढ़ता को टटोले बिना आगे का पाठ्य-क्रम चलाने की अनुमति भी नहीं दी। अभी अग्नि-दीक्षा के उपयुक्त पात्रता की परीक्षा शेष थी, उसे परखे बिना स्वीकृति दी भी तो नहीं जा सकती थी।

उद्दालक महान तपस्वी थे। उन्होंने अनेक सिद्धियाँ प्राप्त की थी। भगवती गायत्री का दिया हुआ पारसमणि उनके पास था। उन्होंने चुपचाप मणि निकाली, एक अन्य विद्यार्थी को भेजकर थोड़ा लोहा मंगाया। शिखिध्वज को चिन्ता हो रही थी, गुरुदेव कुछ कर रहे है पर मेरी बात का उत्तर नहीं दे रहे। इस बीच वह शिष्य कई लौह-सलाखें लेकर आ उपस्थित हुआ। महर्षि ने पारसमणि का उन सलाखों से स्पर्श कराया विस्मय! महान विस्मय!! वह सलाखें स्वर्ण में परिवर्तित हो गई। शिखिध्वज गुरु का चमत्कार देखकर दंग रह गये।

धन्यः हो धन से ही तो धर्म होता है। धर्म से ही पुण्य और पुण्य से मुक्ति।” मिल गया मुक्ति का मार्ग मुझे। शिखिध्वज के मन में पारसमणि का लोभ आ गया। चढ़ने में तो परिश्रम भी पड़ता है। समय भी लगता है, फिसलते कितनी देर लगती है, साधना के द्वारा निर्मल किया मन एक ही क्षण में लोभ की कीचड़ में डूब गया। मुद्राध्यायी महर्षि! मुस्कराये-इतनी कमजोर निष्ठा वाले शिष्य कहीं अग्नि-दीक्षा के अधिकारी हो सकते है। यह तो धन की बात रही अभी तो सौंदर्य, स्वर, यश के कितने आकर्षण है, शिखिध्वज वित्तैषणा से ही मुक्त न हो सका तो यह ब्रह्म-दीक्षा तक पहुँचने की कठिनाई कैसे झेल सकेगा? स्वल्प शक्ति, योग्यता और प्रतिभा का मनुष्य जो अपने कल के भविष्य के लिए भी निश्चित नहीं होता, उसे राज-सम्मान के पद और प्रतिष्ठा प्राप्त करने में ही कितनी कठिन परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है, सर्वशक्तिमान ब्रह्म और उसका अन्यतम ऐश्वर्य प्राप्त करने की कठिनाइयों का तो अनुमान ही कौन कर सकता है। परम पुरुषार्थ कहा है इसीलिये आत्म प्राप्ति को, क्योंकि उसमें सिवाय दमन-दमन के और कुछ नहीं। मनुष्य को अपनी प्रकृति का स्वभाव का, इच्छा और अहंकार का दमन करने में कितना कष्ट होता होगा, इसकी कल्पना कर सकना भी सहज नहीं है।

हतभाग्य शिखिध्वज पहले ही चरण में ढेर हो गया। अभी तक महर्षि उद्दालक कुछ बोले भी नहीं थे। अपना मन्तव्य शिखिध्सन ने अपने आप बदलते हुए कहा-गुरुदेव आप सचमुच भगवन् है, सर्व समर्थ है, कितना अच्छा हो यदि आप यह पारसमणि मुझे दे दें। इससे प्राप्त सुवर्ण-राशि का उपयोग मैं समाज की भलाई में, यज्ञकर्म में करूँगा और इस तरह संसार से मुक्त हो जाऊँगा।”

महर्षि शिखिध्वज के बालकपन पर मुस्कराये। चाहते तो पारसमणि दे भी देते पर शिष्य के कल्याणार्थ उन्होंने मणि दी नहीं। उन्होंने कुछ गम्भीर होकर कहा-वत्स पारसमणि तो तुम्हें दे दूँगा पर तुम इसे लेकर जाओ और साँसारिक आकर्षणों में फँसकर इसका दुरुपयोग करो, इससे पहले तुम्हें इस सत्यता की घोषणा करनी होगी कि धर्म और साँसारिकता में कौन बड़ा है। आसक्ति और वैराग्य में कौन श्रेष्ठ हैं। कहीं ऐसा न हो तु इसे लेकर जाओ और पाप-पंक में डूबकर धार्मिक मर्यादाओं को भी कलंकित कर डालो।

इसलिये पहले तुम्हें मेरे साथ यात्रा में चलना होगा। यात्रा के बाद ही तुम्हें पारसमणि सौंपने का निश्चय किया जा सकता है।

तब महर्षि उद्दालक और शिखिध्वज वहाँ से चल पड़े। दिन भर चले। रात्रि वहाँ से 5 योजन दूर एक गाँव में डेरा डाला। इस गाँव में उच्च वर्ण के ब्राह्मण और क्षत्रियों का बाहुल्य था। महर्षि एक कुलीन गृहस्थ के घर टिक गये।

सन्ध्या समाप्त कर उद्दालक ने गृहस्थ को बुलाकर पूछा-यदि आप रात्रि भर के लिए अपनी युवा-पुत्री को हमारे पास रहने दें, हम अपनी मंत्र शक्ति से तुम्हारे घर में उपलब्ध सम्पूर्ण लोहे की स्वर्ण-राशि में बदलकर दे सकते है। गृहस्थ को एक बार संन्यासी की धूर्तता पर क्रोध आया पर हाय रे कृश-मनुष्य उसने भी वही पाप किया जो शिखिध्वज ने करने की ठानी थी। स्वर्ण-राशि का लोभ, भविष्य में वैभव विलास के रंगीन सपनों ने उसकी प्रतिरोध की शक्ति वैसे ही नष्ट कर दी, जैसे आसक्त भारतीय राजाओं ने भविष्य के भय से विदेशी आक्रमणकारियों का सामना न कर उनसे समझौता कर देश को कलंकित किया। गृहस्थ ने सोने के लोभ में पुत्री देना स्वीकार कर लिया।

महर्षि ने गृहस्थ के घर की लौह-राशि को सोने में बदल दिया। गृहस्थ ने अपनी पुत्री महर्षि को समर्पित कर दी। महर्षि ने बालिका की पीठ पर स्नेह को हाथ फेरते हुए कहा-पुत्री तुम्हारी पितृ-भक्ति सराहनीय है, किन्तु धन के लोभी पिता की आज्ञा के आगे अपनी धार्मिक मर्यादायें बड़ी हे, आवश्यकता पड़े तो अपने माता-पिता का भी सामना करना चाहिये पर अविवेकपूर्ण निर्णय को स्वीकार नहीं करना चाहिये। शिखिध्वज ने यह सब अपनी आँखों देखा। इसके बाद महर्षि उद्दालक वहाँ रुके भी नहीं, रात में ही आगे चल पड़े।

प्रातः होने तक गुरु-शिष्य पारावती नगर जा पहुँचे। नर्मदा के पुण्य तट पर स्नान, सन्ध्या करने के उपरान्त वे एक धनी सेठ के द्वारा मेहमान बने। धनिक ने उनका स्वागत सत्कार किया। इस स्वागत के बदले महर्षि ने कहा-तात् एक घंटे में तु जितना लोहा ला सको ले आओ हम उसे स्वर्ण में बदल देंगे। वणिक का मन हर्ष से नाच उठा। सारे घर को लगा दिया। आध घंटे में घर में उपलब्ध सारा लोहा खोज लिया पर उससे वणिक की इच्छा तृप्त न हुई। पड़ोस में लुहार का घर था उसने अपने पुत्रों को भेजकर उसका भी बहुत-सा लोहा चोरी करा लिया। यह भी ध्यान न रहा कि दीन लुहार की आजीविका छिन रही है।

लोहे का अम्बार लग गया, महर्षि ने हँसकर कहा-धन्य है रे मनुष्य की तृष्णा तू कभी पूरी न हुई और मनुष्य कितना पागल की प्रतिक्षण तेरे पीछे ही दौड़ता फिरा।” उन्होंने वह लोहा भी सोने में बदल दिया और आगे चल पड़े।

अगली सन्ध्या उन्होंने राजगृह में बिताई। राजा अपने पुत्र के विवाह की तैयारी में था। महर्षि ने उसे भी बुलाकर कहा-यदि वह किसी नवजात शिशु को बलिदान के लिए दे सके तो उसके राजभवन की प्रत्येक वस्तु को सोने में बदला जा सकता है। लोभी नृपति ने पड़ोसी विधवा के बच्चे को गोद से छिन मँगाया और महर्षि को भेंट कर दिया। पुत्र तो महर्षि ने पीछे से उसकी माँ को पहुँचा दिया पर लोभी मनुष्य समाज के लिये भी कितना घातक हो सकता है, उसकी शिक्षा शिखिध्वज को मिल गई। इस तरह वे वहाँ से भी आगे बढ़ चले।

अगले दिन एक विद्वान ब्राह्मण के घर पहुँचकर महर्षि ने कहा-यदि आप अपने सम्पूर्ण ग्रन्थों को मुझे बेच दें, उनका स्वामी, रचयिता सब मुझे बना दे तो मैं आपके घर में प्राप्त सभी लोहे को सोना बना दूँगा।” विद्वान का स्वाभिमान सोने के लोभ में ढेर हो गया। उसने भी प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। साँसारिक सुख के लिये मनुष्य अपने आदर्श और सिद्धान्त ही नहीं शान और स्वाभिमान तक बेच सकता है। इस तरह की शिक्षा देकर गुरु-शिष्य वहाँ से भी चल पड़े और संध्या होने से पूर्व अपने आश्रम लौट आये।

गुरुदेव! के वापिस आने पर सारे आश्रमवासी हर्ष विभोर हो गये। सब लोग उन्हें प्रणाम करने आने लगे। शिक्षार्थी, वानप्रस्थी जो अपना सर्वस्व त्याग कर तप साधना के लिये आश्रम में आये थे, एक-एक कर महर्षि के चरणों में शीश झुकाते चले जा रहे थे और शिखिध्वज देख रहा था, इस अनुशासन में कितनी शाँति, सन्तोष, आनन्द और भाव छलक रहा है। आज उसे अपनी दीनता पर बड़ा पश्चाताप हो रहा था।

सबसे निवृत्त होकर महर्षि ने शिखिध्वज को बुलाकर कहा-तात् लो यह रही पारसमणि, इसे ले जाओ और साँसारिक सुखों का जी भर उपभोग करो।

किन्तु आज उसकी आसक्ति धुल चुकी थी। जो तृष्णायें मनुष्य से छल करा सकती, चोरी, हत्या और कुत्सित कर्म करा सकती है। उनसे तो निराहार रहकर जीना अच्छा। मनुष्य का आना, मनुष्यता से गिरकर पशु प्रवृत्ति में गिरने के लिये नहीं, अपने जीवन ध्येय को समझने ओर उसे प्राप्त करने के लिए बना है, इसलिये धर्म बड़ा है, लोकाचार बड़ा नहीं। उसने पारसमणि लौटाते हुए कहा-देव! मुझे यथार्थ पास तो अब मिला है, मेरी एक वर्ष की साधना व्यर्थ गई, इसका मुझे हार्दिक दुःख है। अब आशीर्वाद दे इसी साधना का पुनः अभ्यास करूँ और फिर से अग्नि दीक्षा की पात्रता उपलब्ध करूँ।


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