एक धार्मिक मुमुक्षा ने अपनी सारी धन-दौलत लोकोपयोगी कार्यों में लगाकर संयम का जीवन व्यतीत करना शुरू कर दिया। अब तो उनके सत्कार्यों की सर्वत्र चर्चा होने लगी। जनता के कुछ प्रतिनिधियों ने उस मुमुक्षा के पास उपस्थित होकर निवेदन किया-आपका त्याग प्रशंसनीय है। आपकी सेवाओं से समाज ऋणी है, हम सब सार्वजनिक रूप से आपका अभिनन्दन कर दानवीर तथा मानव-रत्न के अलंकारों से विभूषित करना चाहते है। कृपया हम सबकी इस प्रार्थना को स्वीकार कीजिए”
मुमुक्षा ने मुसकराते हुए कहा-बन्धुओं मैंने कोई त्याग नहीं किया है, वरन् लाभ लिया है। बैंक में रुपये जमा करना त्याग नहीं वरन् ब्याज का लाभ है। ग्राहक को वस्तु देकर दुकानदार किसी प्रकार के त्याग का परिचय नहीं देता, वह तो बदले में उसकी कीमत लेकर लाभ कमाता ह। समुद्र के किनारे खड़े हुए व्यक्ति को जब मोती दिखाई दे तो उन्हें समेट कर कौन झोली न भरना चाहेगा। उस समय यदि उसकी झोली में शंख और सीपियाँ होंगी तो उन्हें खाली कर मूल्यवान् वस्तुऐं भरना क्या त्याग की वृत्ति का परिचायक है? उसी प्रकार क्रोध, लोभ, मोह आदि को छोड़कर अपने स्वभाव में अहिंसा, परोपकार और क्षमा जैसे सगुणता को स्थान देना त्याग नहीं वरन एक प्रकार का लाभ है। मैंने भी तो कोई त्याग नहीं किया है, वासनाओं से छुटकारा पाकर त्याग का लाभ ही प्राप्त किया है।”
इतना सुनकर जनता के प्रतिनिधियों को और कुछ कहने का साहस नहीं हुआ और नतमस्तक होकर चले गये।