सुख-दुःख मानसिक स्थिति पर अवलम्बित हैं

November 1969

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सुख-शाँति की उपलब्धि हो सकती है, यह ध्रुव सत्य है। जो लोग यह मान्यता बनाये बैठे है कि यह संसार तो दुःखों का आगार है, यहाँ पर सुख दुर्लभ है, नहीं मिल सकता-वे निश्चय ही भूल पर है। ऐसे लोग संसार के नाम से अपने मनोयोग का ही कथन करते है। चूँकि उनका अपना मानस जीवन शोक-संतापों असन्तोष, अशान्ति से भरा होता है, इसलिए उन्हें यह सारा संसार ही दुःख का आगार आभासित होता है। जबकि वास्तविक बात यह है कि संसार में दुःख की अपेक्षा सुख की मात्रा अधिक है।

यदि ऐसा न होता तो यह संसार अब तक मनुष्यों से रिक्त हो चुका होता। दुःख और कष्टों में कोई जीता ही न रह पाता। इसके विपरीत बराबर देखा जाता है कि लोग उत्साहपूर्वक जी रहे है। संसार से मनुष्यों को प्यार है। वे इसकी अधिकाधिक उन्नति के लिए प्राणपण से प्रयत्नरत है। यदि उन्हें इस संसार में सुख-शाँति और आनन्द न मिलता तो क्यों तो वे इसमें जीना पसन्द करते और क्यों इसको सजाने का प्रयत्न करते। जिया तो सुख और आनंद के लिए जाता है, न कि दुख और शोक सन्ताप के लिये। हर मनुष्य के पास उसका एक सुख है, जो उसे मिलता है। अब यह भिन्न बात है कि वह उसको समझ न पाये और अपने किन्हीं भ्रमों और अज्ञान से आहत उल्टा अनुभव करे अथवा अपनी गलतियों से अपने सुख में आग लगाता रहे। मनुष्य निश्चय ही कतिपय सुधारों के आधार पर अपने सुख के भाग को स्थायी अधिक तथा निरापद बना सकता है। और उसे बनाना भी चाहिये।

किन्तु सुख भाग योंही सुरक्षित न हो जायेगा। उसके लिए कुछ प्रयत्न करना होगा। प्रयत्नों में सबसे पहला प्रयत्न है मन का परिष्कार। सुख दुख वस्तुतः और कुछ नहीं। वे मन की दो दिशाओं के भिन्न-भिन्न नाम मात्र है। इनका जन्म बाह्य संयोगों से न होकर मन से ही होता है। इसलिये सुख और दुःख को मनुष्य का मानस पुत्र कहा गया है। पिता स्वस्थ होता है सन्तान भी स्वस्थ होती है। पिता सज्जन होता है, सन्तान भी सज्जन होती है। पिता रोगी होता है, सन्तान भी वैसी होती है। पिता दुष्ट हो तो है, सन्तान का सज्जन होना कठिन है। इसी प्रकार मन यदि सुन्दर दशा में है, उससे तदनुरूप सुख का जन्म और यदि मन की दशा अच्छी नहीं है तो उससे दुःख का ही जन्म होना है।

सुख-दुख का मन की स्थिति पर निर्भर होने का प्रमाण यह है कि बहुत बार मन को स्थिति के अनुसार मनुष्य एक ही बात में विपरीत अनुभूतियाँ पाया करता है। जिस समय मन स्वस्थ और शाँत होता है, उस समय कोई अप्रियता भी विक्षोभ उत्पन्न नहीं करने पाती और जब मन की स्थिति प्रतिकूल होती है तो प्रिय बातें भी अच्छी नहीं लगती। जैसे जब कोई पिता विनोद पूर्ण मनःस्थिति में होता है तो बच्चों की शरारत में भी उसे आनन्द आता है किन्तु जब वह मलिन मनःस्थिति में होता है तो बच्चों की उचित प्रसन्नता भी उस क्षुभित और दुःखी कर देती है। हानि लाभ की सूचनाओं में भी इसी तरह मनःस्थिति के अनुसार दुःख सुख होता रहता है। दुःख-सुख का जन्म बाहरी पदार्थों अथवा परिस्थितियों पर निर्भर नहीं है। उसका जन्म मन से मन में ही होता है। इसीलिए उन्हें मनुष्य का मानस पुत्र कहा गया है।

हमारे हृदय में सदा सुख का ही जन्म होता रहे, दुख की स्थिति में भी हम सुख का अनुभव करते रहें-इसके लिए आवश्यक है कि हम अपनी मनोभूमि को अनुकूल बनायें। मन की अनुकूलता का उपाय है ‘संतुलन’। संतुलन का आशय है, जल्दी जल्दी आन्दोलित न होना। उन्नति लाभ और सफलता के अवसरों पर खुशी से नाच उठना, हर्षातिरेक बावले हो में जाना और गतिरोध, हानि अथवा असफलता के क्षणों में निराश, ह्रास अथवा शोकातिरेक से रो उठना वास्तव में मानसिक असंतुलन के लक्षण है।

अभ्यास पूर्वक यदि मनुष्य अपने इस मानसिक असंतुलन पर काबू रखने लगे तो वह एक सन्तोषप्रद सीमा तक सुख-दुख के घात-प्रतिघात से बचा रह सकता है। जो सुखात्मक अशाँत स्थिति में हर्षातिरेक से आन्दोलित हो उठेगा। दुःख के समय उसका शोक विह्वल हो उठना स्वाभाविक ही है। सुख का आघात तो एक हद तक सहा भी जा सकता है। उससे अधिक हानि नहीं होती। केवल पुरुषोचित गाम्भीर्य और सुखोपभोग में समय की हानि अवश्य होती है बाकी हर्षातिरेक कोई गहरी हानि ऐसी हानि नहीं करता, जिसकी पूर्ति न हो सके अथवा दूर तक जिसका प्रभाव पड़े। किन्तु दुःख का आघात प्रायः असहाय होता है। उससे शक्तियों चेतना और यहाँ तक कि बुद्धि को भी दूरगामी हानि होती है। इसलिये सुख की अपेक्षा दुख के आघात से बचाव करना अधिक आवश्यक है। तथापि इसके उपाय मानसिक संतुलन की सिद्धि तभी सम्भव है, जब सुख के समय भी न आन्दोलित होने का अभ्यास रक्खा जाये। दुख के समय तो संभले रहने का प्रयत्न किया जाये और सुख के समय अतिरेक में बहते रहा जाये तो इस अधूरे प्रयत्न द्वारा प्रयोजन सिद्ध न होगा। यह तो एक और अभ्यास करना और दूसरी ओर उसे बिगाड़ लेना होगा।

जो मनीषी संतुलित मन वाले होते है। राग-द्वेष ईर्ष्या, स्पर्धा, उद्वेगों आवेशों से चलायमान नहीं होते, उनको असन्तोष के कारण प्रभावित नहीं करने पाते। वे सुख दुख को धूप-छाँव की माया मात्र मानकर उनकी उपस्थिति में भीषण स्थिति भी सामान्य ही बने रहते है। न उनका मन विचलित होता है और न स्वयं वे। जिनका मन विविध विकारों और विकृतियों से भरा रहता है, जो क्षिप्त-विक्षिप्त और विक्षोभ के रोगी होते है, उनका मन संतुलित नहीं रहता, वे क्षण क्षण पर आन्दोलित और चलायमान होते हुए, सुख-दुख के झूले में झटके खाते रहते है। जिन्होंने प्रयत्नपूर्वक मन को स्थिरता, एकाग्रता और निरोध का अभ्यास करा लिया है, वे हर स्थिति और हर परिस्थिति में संतुलित रहकर सुख-शाँति के अधिकारी बनते है। मानसिक संतुलन सुख-सन्तोष का बहुत बड़ा आधार है, उसे प्राप्त करने का प्रयत्न करते ही रहना चाहिये।

अनुरूपता भी सुख शाँति का एक महत्वपूर्ण आधार है। अनुरूपता के अर्थ है अन्तर और बाह्य की अनुरूपता जिसका अन्तर पवित्र और आदर्शपूर्ण है, किन्तु उसके कार्य उसके अनुरूप नहीं है, तब भी सुख शाँति का सुलभ होना सम्भव नहीं। मन कुछ और चाहे, तन कुछ करता रहे- इससे भी मनुष्य में एक विरोध बना रहता है। अपनी अवहेलना होते रहने से मन सदा अक्लांत और संतप्त बना रहता है। जो अन्तर बाहर की द्विविधि स्थिति में पड़े रहते है, वे कभी संतुष्ट नहीं होते। उन्हें मन, की प्रेरणा पर चलने से तन की तृष्णायें सताती है और तन की प्रेरणा पर चलने से मन धिक्कारता है। बहुत बार बहुत से लोगों की नैतिक बुद्धि प्रबल होती है। अन्तरमन में आदर्श प्रेरणाएँ मचलती रहती है, किन्तु उन्होंने आदर्श व्यवहार का अभ्यास नहीं किया होता है। ऐसी स्थिति में उनसे यंत्रवत ही आदर्श से घिरे कार्य हो जाते है। जिससे पश्चाताप तो होता ही है साथ ही कर्मों के फलस्वरूप भी कष्ट और क्लेश उठाने पड़ते है।

इसी प्रकार बहुत से बाहर से बड़े सत्यनिष्ठ और आदर्शवादी होते है। वे सत्कर्म करने का प्रयत्न करते है। किन्तु उनका कुसंस्कारी मन उनका विरोध करता है। उनके किये पर स्वार्थ हानि, लाभ आदि का अभियोग लगाता है। बाहर से आदर्शवादियों को मन को ताड़ना में पड़ कर बड़ी भयंकर यातना उठानी पड़ती है।

बहुत से लोग कपटपूर्ण स्थिति वाले भी होते है। वे ऊपर से तो बड़े सज्जन और अनुरूप दिखलाई देने का प्रयत्न करते रहते है। उसी के अनुरूप बोलते और उसी के अनुरूप आचरण भी प्रदर्शित करते है। पर यह सब उनका होता दिखावा ही है उनका इस प्रकार का बाह्य अन्तर के छल पर एक आवरण होता है। अवसर पाते ही ऐसे कपटी व्यक्ति दूसरों की हानि करते देर नहीं करते। वास्तविकता तो यह होती है कि बाहर का आदर्श उनका एक जाल के समान होता है, वह मात्र एक छल और छलावा होता है। अवसर पाकर दूसरों को छल लेने का, धोखा देने का एक उपाय मात्र होता है। ऐसे छली और कपटी लोग स्वप्न में भी कभी सुख शाँति नहीं पा सकते। वे ऊपर से कितनी ही शाँति-सन्तोष और स्थिरता का अभिनय करने में क्यों न सफल हो जायें पर अन्दर ही अन्दर अशाँत, भीत व्यग्र बने रहते है। उनकी अन्तरात्मा उनकी कुरूपता पर उन्हें धिक्कारती रहती है। उन्हें स्पष्ट अनुभव होता है कि वे जो कुछ दिखला और कर रहे है, वह सब मिथ्या है। एक दिन इसका परिणाम उन्हें भोगना ही होगा। उनकी अन्तरात्मा उन्हें क्षमा नहीं करेगी और तब समय आयेगा तो यही आत्मा जो मनुष्य का मित्र कही गई है, शत्रु बनकर उनके सामने खड़ी हो जायेगी। तन, मन और बुद्धि की सारी शक्तियाँ कुण्ठित कर देगी और उनको परिणाम भोगने के लिए निर्बल से निर्बल करके डाल देगी। उभय रूपी व्यक्ति इस सारे सत्य को भली प्रकार जानते है और भविष्य के भय से हर समय जलते गलते रहते है।

इसी अन्तर बाहर को अनुरूपता के कारण, विरोधी चिन्तन के फलस्वरूप इतना मानसिक ताप हो जाता है कि बहुत बार मानसिक और शारीरिक बीमारियाँ तक पैदा हो जाती है। इसी विरोधाभास के कारण हृदय कमजोर होकर बैठ जाते है और कभी कभी लोग इस आपत्ति से पागल तक हो जाते है। अन्दर बाहर का यह विरोधाभास भयंकर यातना भरी स्थिति है। इसमें कैसे अबुद्धिमान लोग एक क्षण को भी शाँति के लिए तरसते रहते है। इस द्विविधि जीवन से उसी तरह बचते रहना चाहिये, जिस प्रकार सावधान लोग दुमुँही साँप से बचते है।

इन दोनों उपायों के साथ सुख-शाँति की सुरक्षा करने के लिये, एक छोटी-सी आवश्यकता और है। वह है ‘सामंजस्य’। बिना सामंजस्य बुद्धि के भी काम नहीं चल सकता। यदि कोई व्यक्ति अन्तर से आदर्शवादी है और उसका बाह्य व्यवहार भी उसी के अनुरूप है, तथापि सामंजस्य गुण का अभाव है, तब भी वह दूसरों के गलत काम देख सुनकर अथवा अनुभव करके अशाँत होता रहेगा। असामंजस्य बुद्धि वाले व्यक्तियों का यह एक मिजाज हो जाता है कि जैसा मैं आदर्शवादी हूँ, वैसा ही हर आदमी बने और जब वे इसके विरुद्ध देखते है तो अशाँत और व्यग्र होते है। इस अच्छाई बुराई से भरे संसार में सबका एक सा होना सम्भव नहीं। जो जैसा है उसे उसके भाग्य और अन्त पर छोड़कर अपनी सुख-शाँति की रक्षा करना ही चाहिये। आवश्यकता बस इतनी है की किसी को समझा बुझाकर, सही रास्ते पर लाने का प्रयत्न तो किया जाये किन्तु इस विषय में इस सीमा तक भावुक न हो जाये कि उसके दुर्भाग्य में अपना भाग बना ले। मानवीय सद्भावना रखते हुए उसे उसके कर्मों पर छोड़िये, न उस पर क्रोध करिये और न क्षोभ। यदि उसकी बुराई के छींटे अपने आप पर भी कभी आ जाते है तो उन्हें सहन करिये, साधारण सामंजस्य बनाए रहिये और इस प्रकार अपनी सुख शाँति को प्रभावित मन होने दीजिये, यही बुद्धिमानी है और यही उचित है।

इस प्रकार जीवन में यदि स्थायी सुख शाँति की आकांक्षा है तो संतुलन, समरूपता और सामंजस्य का अभ्यास करिये। इनका अवलम्बन लिए बिना, अभिमत फल की आशा नहीं की जा सकती।


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