निःस्वार्थ प्रेम

November 1969

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यथार्थ ईश्वर भक्त या भगवत् प्रेमी अकेला ही लाखों योद्धाओं की शक्ति रखता है। वह किसी पार्थिव सहायता का मुखापेक्षी नहीं रहता। वह तो केवल उस सर्व-शक्तिमान विश्व-नियामक परमेश्वर की कृपा का ही भिखारी होता है, उस महाशक्ति के प्रभाव सो ही वह प्रेम एवं विरह रहित होकर अपने समस्त कर्तव्यों को पूर्ण करता है। कोई भी दुःख उसे अभिभूत एवं प्रलोभन उसे विपन्न नहीं कर सकता।

उस भगवद्-भक्त का हृदय किसी निष्फल भाव अथवा किसी विपक्ष चेष्टा से कातर नहीं होता है। इसी प्रकार आरम्भ किये हुए किसी कार्य में वह असफल भी नहीं होता। अतः हे हमारे विरही दीन-हृदय जिससे प्रेम किया है, उस प्रेमी का एक बार परिचय तो दो! अपने उस ईश्वर के लिए तुमने कौन सा कर्तव्य पूर्ण किया है, और किस प्रलोभन के संग्राम में विजय प्राप्त की है, सो तो बताओ। एक बार उसकी महिमा की दीप्ति उज्ज्वल बनाने के लिए किस शत्रु को पराजित किया है, एवं कौन सा दुख सहन कर किस रूप में कीर्ति स्थापित की है, उसका भी तो हिसाब दो। अरे, तुम्हारे मुख का प्रेम केवल शब्द मात्र ही है। तभी तो तुम साधारण से दुःख या तुच्छ से द्वन्द्व अथवा स्वल्प मात्र परिश्रम से शान्त जो जाते हो।

तुम आक्षेप करते हो कि तुम्हारी शक्ति किसी प्रतिकूलता के सम्मुख ठहर नहीं सकती। किसी परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं हो सकती। भला, जो प्रेम जीवन की प्रबल शक्ति नहीं होता, उसे मिथ्या के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है? जो प्रेम स्वार्थ विमुख (निस्वार्थ) नहीं है, वह नितान्त बलहीन ही होता है।

-योगी अरविन्द


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