समाज निर्माण में पुस्तकालयों की भूमिका

November 1969

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1965 की सर्वे रिपोर्ट के अनुसार भारतवर्ष के नगरों की कुल संख्या 3018 थी गाँवों की 558089। 1951 की जनसंख्या सारिणी बताती है कि उस समय भारतवर्ष की कुल आबादी 356819394 थी, 1956 तक वह 38.65 करोड़ हो चुकी थी, अनुमान है कि अब भारतवर्ष की कुल जनसंख्या लगभग 45 करोड़ होगी। इस जनसंख्या का केवल 17.3 प्रतिशत भाग अर्थात् कुल 76635000 लोग शहरों में रहते है, शेष 373365000 लोग गाँवों में रहते है। 6.44 करोड़ घरों में 5.41 घर गाँवों में है। गाँव इस देश की आत्मा है। यहाँ के भाग्य बनने बिगड़ने का उत्तरदायित्व इस प्रकार इन गाँवों पर ही है, जबकि अभी भी यहाँ अशिक्षितों की संख्या 90 प्रतिशत से अधिक है।

राजनीति की बात नहीं कहते, क्योंकि वह पंगु हो गई है। सरकारें अपने स्थायित्व और प्रभुत्व की समस्या से ही मुक्ति नहीं ले पा रही। समृद्धि और सफलता के सही अर्थ को समझना इनके बूते की बात कहाँ? ऐसे समय एक प्रश्न जो केवल शिक्षितों से ही किया जा सकता है? यह है कि इस विशाल जनसंख्या के बौद्धिक स्तर को उठाये बिना क्या राष्ट्र की प्रगति हो सकती है? सबसे बड़े वर्ग की सामाजिक, नैतिक आर्थिक और मानसिक उन्नति किये बिना क्या राष्ट्र के भविष्य को समृद्धि और सफलता के द्वार तक पहुँचाया जा सकता है। यदि नहीं तो किन क्राँतिकारी उपायों द्वारा इन अभावों को दूर किया जा सकता है।

इस प्रश्न का सही उत्तर प्राप्त करने के लिये इतिहास के पन्ने पलटने पड़ेंगे। हम समृद्ध और सफल देशों के इतिहास की गहराई में प्रवेश करते है तो पाते है कि जिन देश ने भी क्राँतिकारी सफलतायें पाई है, उसने पुस्तकालय स्थापना को आन्दोलन का रूप देकर ही प्रजा में प्रगतिशीलता के विचार और साहस जागृत किया है। 1876 तक अमेरिका ने जो प्रगति की और उसके बाद की शताब्दी में उसने जो उपलब्धियाँ प्राप्त कीं, उनमें बाद की उपलब्धियों के आगे पिछली सारी समृद्धि और सफलता सूर्य के सम्मुख मिट्टी के दिये की तरह ही तुच्छ जान पड़ने लगती है।

1876 में केन्द्रीय सरकार ने पुस्तकालय आन्दोलन की सर्वसम्मत योजना बनाई और राज्य सरकारों के माध्यम से उनका तेजी से प्रसार किया। संचालन और व्यवस्था के लिये बड़े-बड़े कार्यक्रम बनाये गये। इस पर खर्च हुये धन को आज भी अमेरिका अपने विनियोग का सर्वोत्तम उपयोग मानती है। यहाँ के सभी सार्वजनिक संस्थानों के पास और कुछ हो या न हो पुस्तकालय अवश्य मिलेंगे। उनमें योग्य व्यक्तियों की नियुक्ति की गई। पुस्तकालय को एक स्वतन्त्र विज्ञान मानकर उसके विकास के लिये जो भी सम्भव प्रयत्न थे किये गये।

डा मेलविल ड्यूबी ने ‘वैज्ञानिक लाइब्रेरी क्लासी फिकेशन का आविष्कार किया जिसमें यह अध्ययन किया जाता कि किस क्षेत्र के लोगों के लिये किस प्रकार का साहित्य उपयुक्त रहेगा। 5000 जनसंख्या के लिये कम से कम एक पुस्तकालय की व्यवस्था अनिवार्य कर दी गई। पुस्तकालय आन्दोलन ने इतनी तीव्र प्रगति की कि अब वहाँ धर-धर ज्ञान-मन्दिरों के प्रतीक पुस्तकालयों की स्थापना लोगों की व्यक्तिगत हाॅबी बन गई है। इस समय वहाँ के 80 प्रतिशत नागरिक निःशुल्क सार्वजनिक पुस्तकालयों का उपयोग करते है। 13676 पुस्तकालयों में 7500 सार्वजनिक पुस्तकालय है, जिनकी 1500 शाखायें सारे अमेरिका में फैली हुई है।

इन पुस्तकों से 36000000 व्यक्ति लाभ उठाते है। प्रतिवर्ष 161127000 पुस्तकें वितरित की जाती है। पुस्तकों की खरीद में लगी पूँजी के अतिरिक्त केवल संचालन और व्यवस्था में अमेरिका प्रति वर्ष 109924000 डालर खर्च करता है। नई पुस्तकों की खरीद में 12000000 डालर का व्यय इससे अतिरिक्त होता है। राष्ट्रीय स्मारक के रूप में वाशिंगटन में डी सी स्थित काँग्रे पुस्तकालय सारे विश्व में एक उदाहरण है। यह पुस्तकालय 36 एकड़ भूमि में बना है। इसमें 1 करोड़ 30 लाख पुस्तकें, 3 करोड़ अन्य सामग्री जिसमें शोध ग्रन्थ पाण्डुलिपि मानचित्र और रिकार्ड पुस्तकें है। इसमें जितनी अलमारियाँ काम में ली गई है, यदि एक सीध में खड़ा कर दिया जाय तो उनकी लम्बाई 270 मील होगी।

इतने धन की व्यवस्था, प्रबन्ध की जिम्मेदारी केवल इसलिये उठाई गई है कि अमेरिकन पुस्तकालय के महत्व को समझते है। विज्ञान के प्रति नित्य नई शोधों के लिये आवश्यक मस्तिष्क विद्यालयों ने ही तैयार किया है। यहाँ लोगों ने पुस्तकालयों की उपयोगिता समझी इसका सबसे बड़ा प्रमाण यही है कि पाठकों को पुस्तकों के लिये स्वयं आग्रह करना पड़ता है, उन्हें आकर्षित नहीं किया जाता। कई बार तो ऐसा भी होता है कि अपने नम्बर के लिये लोगों को प्रतीक्षा भी करनी पड़ती है। लोग अनुभव करते है कि पुस्तकालय उनकी सम्पत्ति है और उनके जीवन के उत्थान में सबसे बड़ा सहयोग भी उन्हीं से मिल सकता है।

जन अभिरुचि और वहाँ के शिक्षितों के हार्दिक समर्थन का ही फल है कि सार्वजनिक पुस्तकालयों के अतिरिक्त अमेरिका में 1400 से अधिक कालेजों में 600 जूनियर कालेजों में तथा 42000 सार्वजनिक स्कूलों में पुस्तकालय है। 3000 विशेष पुस्तकालय 1000 चिकित्सा सम्बन्धी 600 कानूनी, 600 सेनाओं सम्बन्धी, 400 सार्वजनिक प्रशासन सम्बन्धी पुस्तकालय है। अमेरिका के जन-जीवन में पुस्तकालयों के प्रभाव का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है।

जापान की औद्योगिक क्राँति में पुस्तकालयों के योगदान पर पहले चर्चा कर चुके है। रूस ने 1921 में प्रारम्भिक शिक्षा अनिवार्य की पर उन्होंने देखा कि इससे सामान्य जन-जीवन में विचार क्राँति के आसार कम है, फलस्वरूप अनेक विद्वान् व्यक्तियों की एक कमेटी नियुक्त की गई, कमेटी ने अपनी योजना प्रस्तुत करते हुए, बताया “व्यक्ति और समाज दोनों के हित की दृष्टि से हमारी यह मान्यता है कि सारे देश में पुस्तकालयों का जाल बिछा दिया जाना चाहिये। लोग अपने भीतर छिपे हुये वर्चस्व को जागृत करने के लिये, तब तक अवसर नहीं मिलता, जब तक मस्तिष्क में विचारों का कीड़ा निरन्तर घूमता न रहे। पुस्तकालय लोगों के मन जगा सकते है और उन्हें उन्नति की तीव्र आकांक्षा के साथ सामाजिक कर्तव्यों की भी प्रेरणा दे सकते है। इस राज को सरकार ने स्वीकार कर लिया, उसी वर्ष पुस्तकालय सम्बन्धी कानून बनाकर उन्हें लागू भी कर दिया गया। आज संसार में सारे विश्व से अधिक पुस्तकालय रूस में है।

रूस में 381000 पुस्तकालय है। अधिकाँश पुस्तकालय ग्रामीणों की आवश्यकता को ध्यान में रखकर स्थापित किये गये है। यहाँ प्रत्येक 1000 व्यक्तियों पर 1 पुस्तकालय है, देहातों के लिये 1 लाख ग्रामीण पुस्तकालयों की स्थापना की गई हे। इन पुस्तकालयों में 1891 लाख पुस्तकें लोगों को टेक्नोलॉजी, साँस्कृतिक, बौद्धिक विकास की प्रेरणा देती रहती है।

अधिक से अधिक लोग पुस्तकालयों के सम्पर्क में आये और उनसे लाभ प्राप्त करें, इसके लिये सोवियत संघ में नगरों, सार्वजनिक स्थानों, मेलों और पर्व पर साहित्यिक प्रदर्शनियाँ आयोजित की जाती है। उनमें भाषणों की व्यवस्था रहती है, पुस्तकालय और स्वाध्याय के महत्व पर प्रकाश डाला जाता है, जिसके कारण आज वहाँ के पुस्तकालय लोगों के सामाजिक अंग बन चुके है।

अच्छा साहित्य सुनसान में भी जीवन ला देता है, इसका सबसे अच्छा उदाहरण है रूस। यहाँ की प्रगति देख कर कोई भी अनुमान कर सकता है कि लोगों के बौद्धिक स्तर को ऊँचा उठाने में पुस्तकालयों ने कितना योगदान दिया है।

ग्रेट ब्रिटेन की 30000 से अधिक लाइब्रेरियों का प्रबन्ध वहाँ का शिक्षा विभाग करता है। पुस्तकें वितरित करने के लिये ‘सर्विस पाइन्ट’ तैयार किये गये है, जो लोगों की मानसिक स्थिति का अध्ययन और क्षेत्रीय आवश्यकता के अनुसार पुस्तकें मँगाते और लोगों को पढ़ाते है।

आज तो स्थिति कुछ और है पर कोई दिन था, जब भारतवर्ष में पुस्तकालयों की आवश्यकता को उसी प्रकार अनुभव किया गया था, जिस प्रकार आज के सभी प्रगतिशील देशों ने अनुभव की है। यहाँ ग्रामीण पुस्तकालयों के अतिरिक्त चलते फिरते पुस्तकालय भी होते थे। मनीषियों सन्तों समाज सुधारकों के पास हस्तलिखित पुस्तकों के भण्डार हुआ करते थे। वे जहाँ भी जाते थे लोगों को इन ज्ञान-दीपों का प्रकाश दिया करते थे। पुस्तकालयों से निरन्तर प्रेरणा मिलती रहने के कारण सामाजिक क्रियाशीलता जीवित थी। अनुशासन था, सामाजिकता थी, कर्तव्य पालन के भाव थे, पांडित्य था, दर्शन था और वह सब कुछ था, जो आज किन्हीं वान एवं टेक्नोलॉजी में उन्नत देशों में उपलब्ध है।

राज्यकोष पुस्तकालयों में नालन्दा व तक्षशिला के पुस्तकालयों की अभी भी ख्याति है। प्रसिद्ध चीनी यात्री हवेनसाँग और इत्सिंग ने नालन्दा के विश्व-विद्यालय का वर्णन करते हुए लिखा है-वहाँ का पुस्तकालय तीन विशाल, रत्नरञ्जक थे।” रत्नसागर 9 मंजिला ऊँचा पुस्तकालय था, इनमें अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, नीतिशास्त्र, औषधि, आचारशास्त्र, वेद उपनिषद्, दर्शन, योगविद्या के साथ यन्त्र-तन्त्र सम्बन्धी पुस्तकें भी थी। इस देश के लोगों में ज्ञान प्राप्ति की अदम्य पिपासा भरी हुई है, ऐसा लगता है कि इस देश ने जो उन्नति की है, उसका कारण उनका बहुमुखी विकसित ज्ञान ही है।”

ज्ञान और विचार भी व्यक्तित्व के विकास का द्वारा खोलते है, अज्ञानी व्यक्ति तो अधिक से अधिक पेट भर सकता है बच्चे पैदा कर सकता है। आज हमारे देश में यही सब हो भी रहा है। हमारे ज्ञान-स्रोत सूखे पड़े है, यहाँ भी लोगों को निरन्तर ज्ञान का प्रकाश मिलता रहे, ऐसी कुछ भी व्यवस्था नहीं है। अमेरिका पुस्तकालय सेवा के लिये प्रति व्यक्ति 5 रु., ब्रिटेन तीन रुपया, चेकोस्लोवाकिया दो रुपया खर्च करता है। रूस में प्रति व्यक्ति 23 पुस्तकें आती है पर भारतवर्ष में कई हजार पर भी औसत 1 रुपया पुस्तकालयों के लिए नहीं आता यहाँ की सरकार भी इस दिशा में सुप्त है। पुस्तकालय जैसी सर्वाधिक महत्वपूर्ण योजना के लिये तृतीय पंचवर्षीय योजना के 630 पन्नों के इतिहास के कुल 15 लाइन मिली है।

यही कारण है कि 22 वर्षों की स्वाधीनता के बाद भी भारतवर्ष की प्रगति के आँकड़े कछुए की गति से बढ़ रहे है। शहरों में तो कुछ शिक्षा के भी अच्छे प्रबन्ध है, पुस्तकालय भी है पर साढ़े पाँच लाख गाँव तो ज्ञान के प्रकाश से शून्य पड़े है। इनमें रहने वाले ग्रामीणों में आज साहस है न मनोबल, ज्ञान है न बुद्धि, विवेक है न समुचित महत्वाकाँक्षायें। अंधविश्वास, रूढ़िवाद, सामाजिक कुरीतियों से घिरे जन-अन्तःकरण को आन्दोलित करने की आवश्यकता अधूरी पड़ी है।

हर शिक्षित व्यक्ति का यह उत्तरदायित्व होता है कि वह संसार को अच्छा बनाने का प्रयत्न करे। पर हमारे सामने तो आज अपने आप अच्छा बनने का ही उत्तरदायित्व बहुत काफी है। यदि इसे ही पूरा कर लें बहुत है। इतिहास के पृष्ठ पलटने और जन-क्राँति की गहराई में पैठ करने से पता चलता है कि राष्ट्र के अभ्युत्थान की आकांक्षा पुस्तकालयों से ही पूरी होगी। उसके लिये सरकार का मुख नहीं देखा जा सकता। यह उत्तरदायित्व शिक्षितों का है, उन्हें ही इसे पूरा भी करना पड़ेगा।


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