नव-निर्माण की मशाल अपने प्रिय परिजनों के हाथ सौंपते हुए हम एक सन्तोष की साँस लेते हैं। जिस उत्तर दायित्व को देर से हम निबाहते चले आ रहे हैं, उसे उत्तराधिकार में उन्हें दे रहे हैं, जो अपने को हमारा अनुयायी प्रशंसक श्रद्धालु एवं आत्मीय मानते है। बूढ़ा बाप अपने समर्थ उत्तराधिकारियों के कन्धों पर अपने बोझ सौंपकर अपने को हलका अनुभव करते हैं और उसकी क्रिया-प्रक्रिया यथावत चल रही है यह देखकर सन्तोष मानते हैं। हम अब अधिक देर अपने कन्धों पर रखी हुई गाड़ी खींच नहीं सकते। महीने की अवधि बहुत थोड़ी होती है। अधिक से इतने समय और हमारे कन्धों पर वजन रह सकता था, पीछे भी कहीं न कहीं को उसे सम्भालना ही था। अच्छा ही हुआ कि हमें अपने को हलका करने और अपनी आँखों यह देखने का अवसर मिल रहा है कि हमारे विश्वास और अपने कर्तव्य की रक्षा कर सकने में समर्थ रहे या असमर्थ?
व्यक्ति के नाम हमारा उद्बोधन सदा से यही रहा है कि-वह मात्र शरीर ही नहीं आत्मा भी हैं। केवल परिवार तक की उसकी जिम्मेदारी सीमित नहीं-वरन समाज तक व्यापक है। केवल इन्द्रियाँ ही नहीं-अन्तःकरण को भी तृप्त किया जाय। केवल भौतिक जीवन की महता एवं आवश्यकता को भी समझा जाय।” कह नहीं सकते हमारे उद्बोधन का किस प्रकार कितना प्रभाव पड़ा। पर यदि पड़ा होगा तो उसे सौ बार यह सोचने को विवश होना पड़ा होगा कि उसकी वर्तमान गतिविधियाँ न तो संतोषजनक हैं, न पर्याप्त। उसे कुछ कदम आगे बढ़कर कुछ ऐसा करना चाहिये, जो अधिक महत्वपूर्ण हो अधिक आत्म-शाँति और आन्तरिक सन्तोष दे सके।
ऐसे कदम उठा सकना हर किसी के लिए सम्भव है। केवल आत्म बल का अभाव ही ऐसे पारमार्थिक कदम उठाने से रोकता है, जो सुरदुर्लभ मानव जीवन के अमूल्य अवसर को सार्थक बना सके। तांत्रिक दृष्टि से देखने पर प्रतीत होता है कि हम व्यर्थ और अनर्थ कहे जा सकने वाले क्रिया कलापों में लगे रहे और कीमती जीवन के हीरे-मोतियों से तोले जा सकने योग्य बहुमूल्य क्षण यों ही गँवा दिये। जिन उपार्जन को तुच्छ-सा शरीर लेकर तुच्छ जीवधारी पूरा कर लेते हैं उन्हीं के इर्द-गिर्द मनुष्य का जीवन भी चक्कर काटे और अन्ततः अपने को बिना किसी उपलब्धि के योंही समाप्त करले तो इसे एक दुर्भाग्यपूर्ण दुर्घटना ही कहा जायेगा। हमने सदा सचेत किया है कि परिजनों का जीवन क्रम इतना घटिया न बीतना चाहिये। पेट और प्रजनन कोई बड़े आदर्श नहीं। प्रकृति ने ऐसी व्यवस्था कर रखी है कि कीट-पतंग और पशु पक्षी भी इन दो आवश्यकताओं के पूरा कर लेते है। फिर मनुष्य जैसे बुद्धि-जीवी के लिए उनकी पूर्ति क्या कठिन हो सकती है? इतना ही उद्देश्य अपना है तो उसे पशु जीवन कहा जायेगा। मानव-जीवन की विशेषता तो आदर्शवादिता और उत्कृष्टता पर निर्भर है। यदि उस दिशा में कुछ न किया जा सकता तो निस्संकोच यही कहा जाएगा कि जीवन व्यर्थ चला गया। जीवन बहुमूल्य है, उसे निरर्थक प्रयोजनों के लिए खर्च कर डालना एक ऐसी बड़ी भूल है जिसके लिए 84 लाख योनियों में भ्रमण करते हुए लगभग 84 लाख वर्ष प्रायश्चित करना होगा ओर हर दिन इसलिए अश्रुपात करना होगा कि नर शरीर का एक बहुमूल्य अवसर मिला था उसे हमने आत्मकल्याण के लिए खर्च न कर उन्हीं निरर्थकता में लगा दिया, जिन्हें निम्न यानि वाले जीव भी बड़ी आसानी से पूर कर लेते हैं। अगले ही दिनों इस पश्चाताप की आग में से अपने को गुजरना पड़ेगा, इस वस्तुस्थिति की आगाही हमने निरन्तर दी है। ता नहीं किस पर कितना उस चेतावनी का असर पड़ा और कितनों ने इसे निरर्थक बकवास कह मुख फेर लिया।
हमारा जीवन रूढ़ियों और विडम्बनाओं की धुरी पर नहीं घुमा है। उससे अति महत्वपूर्ण, प्रयोगों, परीक्षणों और अनुभवों का एक अच्छा खासा भण्डार जमा हो गया है। हम चाहते थे कि यह उपलब्धियाँ-अपने अनुयायियों को देते जाएँ, ताकि वे भी हमारी ही तरह जीवन की सार्थकता का सन्तोष अनुभव कर सके। लेख लिखने और पुस्तकें छाप कर बुकसेलर का धन्धा चलाने वाले दुकानदार हम नहीं हैं। सिर-दर्द के अतिरिक्त कुछ हाथ न लगने वाले धन्धे की अपेक्षा हम अपनी प्रतिभा के बल पर वे धन्धे कर सकते हैं, जिनमें मालामाल होने की पूरी गुँजाइश है। हमारे परामर्श से हजारों-लाखों मनुष्यों ने अपनी गतिविधियाँ मोड़कर सम्पन्नता प्राप्त की है। फिर हम उन प्रयोगों को अपने लिए भी कर सकते थे। बुकसेलर का धन्धा जिसमें झंझट हजार मन और लाभ रत्ती भर है, हमारे लिए क्या रुचिकर हो सकता है। इसी प्रकार प्रवचनों में सिर खपा कर दस-बीस रुपये दक्षिणा के लेने में हमें क्या रुचि हो सकती थी? हमारी प्रतिभा, विद्या ओर क्षमता बहुमूल्य है। उसको बाज़ार में भुनाया जाय तो बहुत कुछ वसूल किया जा सकता हैं। लेखन और प्रवचन हमारा व्यवसाय नहीं वरन अन्तःकरण की ऐंठन है जो निरन्तर इसलिए होती रहती है कि अनुभूतियों ओर उपलब्धियों का लाभ हमारे सहचरों को भी मिलना चाहिये। उपरोक्त दोनों ही क्रिया-कलाप हम अपनी आन्तरिक सम्पदा दूसरों को हस्तान्तरित करने के उच्च उद्देश्य से चलाते रहे हैं। कह नहीं सकते किसने उन्हें कितना महत्व दिया और कितनों ने उन्हें पढ़, सुनकर पल्ला झाड़ लिया।
जो हो, हम एकरस, एकनिष्ठ भाव से अपने मार्ग पर चलते हुए लम्बी मंजिल पूरी कर चुके। विराम का अवसर आया तो यह उत्कण्ठा तीव्र हो चली कि हमारा परिवार घटिया स्तर का जीवन-यापन करने को कलंक न ओढ़े रहे। प्रकारान्तर से यह लाँछन अपने ऊपर भी आता है। हम किस बूते पर अपना सिर गर्व से ऊँचा कर सकेंगे ओर किस मुख से यह कह सकेंगे कि अपने पीछे कुछ ऐसा छोड़ कर आये जिसे देखकर लोग उसके संचालक का अनुमान लगा सकें। ईश्वर की महान कृतियों को देखकर ही उसकी गरिमा का अनुमान लगाया जाता है। हमारा कर्तृत्व पीला था या ठोस यह अनुमान उन लोगों की परख करके लगाया जायेगा, जो हमारे श्रद्धालु एवं अनुयायी कहे जाते हैं। यदि वे वाचालता भर के प्रशासक और दण्डवत प्रणाम भर के श्रद्धालु रहे तो माना जायेगा कि सब कुछ पीला रहा। असड़िड़ कर्म में सन्निहित है। वास्तविकता की परख किया से होती हैं। यदि अपने परिवार की क्रिया से होती है। यदि अपने परिवार की क्रिया पद्धति का स्तर दूसरे अन्य नर-पशुओं जैसा ही बना रहा तो हमें स्वयं अपने श्रम और विश्वास की निरर्थकता पर कष्ट होगा और लोगों की दृष्टि में उपहासास्पद बनना पड़ेगा। यह अवसर न आये, इसलिए हम इन दिनों बहुत जार देकर अपने उद्बोधन का स्वर तीखा करते चले जा रहे हैं और गतिविधियों में गर्मी ला रहे हैं ताकि यदि कुछ सजीव लोग अपने साथियों में रहें हों तो आगे आयें और मृत मूर्छित अपनी माँद में जाकर चुपचाप पड़ जायें। बात बहुत काम कुछ नहीं वाली विडम्बना का तो अब अन्त होना ही चाहिये।
नव निर्माण के दो महत्वपूर्ण कार्यक्रम इन दिनों हाथ में लिए है। और इन्हें प्रगति पथ पर चलने वाले दो चरणों की उपमा दी है। दो पहियों की गाड़ी लुढ़कती है दो डंडों की नाव आगे बढ़ती है। सिपाही लेफ्ट-राइट करते हुए दोनों कदम मिलाकर चलते हैं। हमने दो कार्यक्रम इन दिनों प्रस्तुत करके अपने परिवार की वस्तुस्थिति पर हमें हर परिजन की मनोभूमि का पता लग जाएगा और सही रूप में यह जाना जा सकेगा कि कौन कितने पानी में हैं।
ज्ञान-यज्ञ के दो पहलू हैं-विचार पक्ष और क्रिया पक्ष-दोनों का महत्व एक दूसरे से बढ़कर है। विचार हीन क्रिया और क्रिया-हीन विचार दोनों को विडम्बना मात्र कहा जाएगा-नव-निर्माण की पुण्य प्रक्रिया विवेक के जागरण और सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन पर निर्भर है। नये युग का महल इन्हीं दोनों को ईंट, चूना मानकर चुना जाएगा। इसलिए दोनों पक्षों को प्रखरता से भर देने वाले अपने दो कार्यक्रम इन दिनों सामने प्रस्तुत हैं। और चुनौती देते हैं कि जिन पर आचार्य जी के लेखों और प्रवचनों का सान्निध्य और संपर्क का प्रभाव पड़ा हो, वे आगे आयें और जो कहा जा रहा है उसे अपनाये।
ज्ञान यज्ञ के विचार-पक्ष के अन्तर्गत नव-निर्माण की विचार-धारा को व्यापक बनाने के लिए अपना कुछ समय और कुछ पैसा नियमित रूप से व्यय करने का अनुरोध किया गया है। अपना घरेलू पुस्तकालय पूरा कर लेने के लिए हर एक को कहा गया है। हमारी प्रतिमा या स्मृति इससे सस्ते मोल में स्थापित नहीं की जा सकती। आजकल हाथ की बनी आइल पेंट की बड़ी तस्वीरें 100 से कम में नहीं बनती। पत्थर की मूर्तियाँ खरीदने जाएँ तो सौ रुपये में डेढ़ फुट ऊँचे गणेश जी भर मिलते हैं। पर हमारी प्रेरणा, भावना, प्रकाश और प्रोत्साहन भरा ट्रैक्ट साहित्य इससे कम में स्थापित किया जा सकता है। चित्र और प्रतिमायें बोलती नहीं पर हमारी लिखी पुस्तिकाएँ बोलती ही नहीं चिल्लाती भी हैं। चिल्लाती ही नहीं झकझोर कर खड़ा भी कर देती है। इसी मूर्तिमान् प्रेरणा घरेलू पुस्तकालय को कोई निर्धन भी प्रतिष्ठापित कर सकता है।
जरा-सी बीमारी में सौ रु ठण्डे होते हैं। शारीरिक और मानसिक बीमारियों का परिपूर्ण पुस्तकालय किसी को भारी नहीं पड़ना चाहिये। हाँ जिनके सामने विचारणा और भावना का कोई मूल्य नहीं, उन्हें यह सब रद्दी इकट्ठी करने जैसा उपेक्षणीय कार्य अवश्य प्रतीत होगा। घर के प्रत्येक छोटे-बड़े सदस्य को हमारे विचारों से प्रभावित करके उन्हें, सज्जन, शालीन और सुख-शान्तिमय जीवन बिता सकने वाला बनाया जा सकता है। जो अपने स्त्री-बच्चों का शरीर भर देखते हैं, वे उन्हें बढ़िया भोजन वस्त्र देकर बहलाते रहेंगे, पर जो उनका अन्तरंग भी देखते हैं, उन्हें प्रतीत होगा कि उन्हें उच्च विचारणा की भी आवश्यकता है। इस आवश्यकता की पूर्ति घरेलू युग-निर्माण पुस्तकालय कर सकते है। दोनों पत्रिकाएँ जिन घरों में पहुँचती हैं और ट्रैक्ट साहित्य का पूरा सैट मौजूद है। वे पड़े हों तो स्वयं पढ़कर और बिना पढ़ें हों तो दूसरों से सुनकर एक अति महत्वपूर्ण प्रकाश प्राप्त कर सकते हैं। कोई समझदार व्यक्ति अपने परिवार की इसे एक अनिवार्य आवश्यकता ही मानेगा।
परिजनों के घर-घर में ट्रैक्ट साहित्य के युग-निर्माण पुस्तकालय की स्थापना पर जोर इसलिए दिया गया है कि उनके घर परिवार के हर सदस्य तक हमारी प्रेरणा पहुँच सके ओर समीपवर्ती लोगों में-मित्र सम्बन्धी, परिचित एवं अपरिचितों में यह प्रकाश फैलते रहने को मार्ग खुल जाय। नया युग?, नई विचार-धारा साथ ही अवतरित होगा। विचारों का बड़ा महत्व है। विचार करने की पद्धति बदल जाय तो आज की नारकीय परिस्थितियों को स्वर्गीय बनने में देर न लगें। इसलिए विचार पक्ष का क्षेत्र व्यापक बनाने के लिए यह किया और कराया जा रहा है कि जो उचित हे, उसको ग्रहण करने एवं जो अनुचित है, उसे त्यागने के लिए जन-मानस में प्रबल उत्साह पैदा किया जाय। क्षेत्र सीमित न रहने दिया जाय वरन जन-जन के मन तक विचार-क्राँति की गर्मी को पहुँचाया जाय। यह प्रक्रिया विज्ञप्ति वितरण के सरल किन्तु अति आकर्षक प्रयोग से बड़ी सुविधापूर्वक गतिशील हो सकती है। पिछले दो महीने के अनुभव ने यह बताया है कि विज्ञप्ति वितरण वाला कार्य यदि ठीक ढंग से अखण्ड-ज्योति परिवार के मात्र सदस्यों ने चला लिया तो हम इस विचार-धारा को देशव्यापी ही नहीं, विश्व-व्यापी भी बना सकेंगे।
ज्ञान-यज्ञ के लिए महीने में एक दिन की आमदनी देने के लिए कहा गया है-न्यूनतम दस नया पैसा निकालने के लिए कहा गया है। यह एक-एक बूँद ऋषि-रक्त एकत्रित करके घड़ा भरे जाने और उससे असुर संहारिणी सीता का जन्म होने की पौराणिक पुनरावृत्ति कहा जा सकता है। देवताओं की थोड़ी-थोड़ी शक्ति इकट्ठी करके प्रजापति ने भगवती दुर्गा का सृजन किया था। एक युग परिवर्तनकारी संगठित शक्ति का उदय कर सकने वाली अपनी प्रक्रिया भी उसी दुर्गा अवतरण की पुनरावृत्ति है। थोड़ा-थोड़ा सहयोग सब लोग दें। कृपण बनकर मुख न लटका लें तो इतने भर से ज्ञान-यज्ञ की कोटि-कोटि किरणें अति व्यापक क्षेत्र में फैलाई जा सकती है।
धनिकों की आडम्बरों में रुचि है। वे अपनी कीर्ति के लिए खड़े होने वाले ईंट-पत्थरों में लाखों लुटा सकते है। पर जिससे उन्हें मोटी बुद्धि से अपना प्रत्सक्ष्ज्ञ परोक्ष लाभ न दीखता हो उसके लिए कुछ खर्च करा सकना कठिन है। होता भी यही रहा है। सुसम्पन्नों से कभी दो-चार बार ही छुट-पुट सहायता मिली है। यह धनिकों का नहीं भावनाओं का क्षेत्र है और भावनाशील सदा निर्धन होते निर्धनों से अर्थ सहयोग की इतनी ही आशा की जा सकती है कि वे पेट काट कर महीने में एक दिन की आय या न्यूनतम दस पैसा-अपने हाथों अपने क्षेत्र में ज्ञान यज्ञ का प्रकाश व्यापक बनाने के लिए नियमित रूप से खर्च कना स्वीकार करें। प्रसन्नता का बात है कि इस अनुरोध का आशाजनक प्रत्युत्तर मिला है। दो महीने के अनुभव के आधार पर यह कहा जा सकता है कि शायद ही कोई कृपण ऐसा निकले जो ज्ञान-यज्ञ के लिए एक घण्टा समय और थोड़ा पैसा खर्च करने की उपयोगिता ओर आवश्यकता से इनकार की निष्ठुरता धारण कर ले। ज्ञान-यज्ञ की प्रचंड प्रकाश किरणें शीघ्र ही देश-विदेशों में उदीयमान देखेंगे और उसके सत्परिणाम भी प्रस्तुत होकर रहेंगे।
ज्ञान-यज्ञ का दूसरा चरण है अनीति और अविवेक का उन्मूलन। इसके लिए सबसे पहला मोर्चों ‘विवाहोन्माद’ के विरुद्ध संघर्ष के रूप में उद्घोषित किया गया है। हिन्दू समाज के रोग ग्रस्त शरीर में सह सबसे भयंकर गलित कष्ट है। अन्य बीमारियों पीछे भी सम्भाला जा सकता है पर इसकी उपेक्षा अब एक क्षण के लिए भी असहाय हो गई है। धन और चरित्र की बर्बादी का यह सब ड़ड़ और इसे भयावह छिद्र है। उसे न रोका गया तो शिक्षा, व्यवसाय, आहार,विज्ञान आदि के आधार पर जो कुछ भी प्राप्त किया जा रहा है, वह सब इसी छिद्र से को कर धूलि में टपक जायेगा। रह कोई जानता है कि अपने समाज में विवाह से धूमधाम और भीतर से शोक-सन्ताप भरे हुए होते हैं।ढोंगी समाज अमरीका भौंड़ा प्रहसन प्रदर्शन करने में बुरी तरह खोखला हुआ जाता है।कमाई का एक तिहाई भाग शादियों में व्यय होता है। अधिकाँश लोग गुजारे भर की स्वल्प आजीविका उपार्जन करते हैं, वे हजारों रुपया इस बर्बादी के लिए कहाँ से लायें? विवश होकर उन्हें अनैतिक स्त्रोत ढूँढ़ने पड़ते है। जो यह भी नहीं कर पाते, वे भिखारी अभाव और अति सन्ताप का जीवन यापन करते हैं।
सुयोग्य कन्यायें अयोग्यों के यहाँ जाने को विवश होती है। धन के लोभी ससुराल वाले पग-पग पर उनका अपमान और उत्पीड़न करते हैं, कितनी ही अविवाहित रहने को विवश होती हैं। पर्दे के पीछे कितनी हत्याएँ और आत्म-हत्याएँ इस कुरीति की बलिवेदी पर होती हैं, उन सारे पापों का यहाँ भंडा फोड़ किया जाय तो दुर्गन्ध से नाक सड़ जाया और सारा विश्व धिक्कारे कि सभ्य बनने वाला हिंदू समाज वस्तुतः कितना घृणित, पतित और पाखण्डी है। स्थिति बहुत ही विषम है। कोसते रहने और रोते रहने से कुछ बनने वाला नहीं है। हमें आगे बढ़कर इस अविवेक भरी असुरता से जूझना पड़ेगा। यह कदम अनिवार्य है। विलाप करने से तो स्थिति विस्फोटक हो सकती थी। इसलिए समय पर शंखनाद करना हमारे लिए आवश्यक हो गया है। विवाहोन्माद विरोधी आन्दोलन का सूत्र संचालन यो बहुत देर से कर रहे थे, छुट-पुट गतिविधियाँ देर से चल रही थीं पर इसे एक अपरिहार्य संघर्ष के रूप में आरम्भ कर दिया गया है।
नेतृत्व अखंड-ज्योति परिवार को करना चाहिये। यों समय का तूफान अपना रास्ता आप बनाता चला आ रहा है। यह कुप्रथा जीवित नहीं रह सकती है। इस पूतना की अन्तिम घड़ी आ पहुँची, यह ताड़का मरने ही वाली है। यह सूर्पणखा कुछ ही समय नाक कटा कर रोती कलपती भागेंगी। विवाहोन्माद के महिषासुर का विचार-क्राँति की देवी के तीखे त्रिशूल से वध होकर ही रहेगा अच्छा हो इस बहती गंगा में हम हाथ धोले ओर नेतृत्व का श्रेय लेकर अपनी अपनी सजगता एवं साहस के आधार पर युग-निर्माताओं की अन्तिम पंक्ति में खड़े हो सकने वाले कहलाये।
अच्छा हो हम सब साहसपूर्वक यह निर्णय कर डालें ड़ड़ड़ड़़ विवाह आदर्श रीति से करेंगे। आदर्श ड़ड़ड़ड़़ जेवर, धूमधाम और बढ़ी हुई बरात, ड़ड़ड़ड़़ लड़के वाला दहेज के रूप में धन, सोना ड़ड़ड़ड़़ लंगड़-खंगड स्वीकार करने से इनकार कर ड़ड़ड़ड़़ वाला जेवर, कीमती कपड़े और दरवाजे की ड़ड़ड़ड़़ पर बाजे, आशिबाजी आदि को बिलकुल ड़ड़ड़ड़़ करें। पूर्ण सादगी और सज्जनता के वातावरण ड़ड़ड़ड़़ व्यक्ति बरात में जाकर लड़की-विदा कर ड़ड़ड़ड़़ और जिस तरह घर में दिवाली, होली जैसे उत्सव ड़ड़ड़ड़़ में मना लिये जाते हैं, वैसे ही विवाह भी बड़ी ड़ड़ड़ड़़ से हो जाया करें। प्रदर्शन की उसमें तनिक भी ड़ड़ड़ड़़ न समझी जाय। इस प्रकार जो समय और ड़ड़ड़ड़़ बर्बादी बचेगी, उससे परिवारों की अपनी शिक्षा, ड़ड़ड़ड़़ उद्योग आदि के लिये सुविधा मिलेगी और ड़ड़ड़ड़़ की सार्थकता बढ़ेगी। तब कन्याओं और पुत्रों का ड़ड़ड़ड़़ समाप्त हो जायेगा और विवाह से बचा पैसा बच्चों ड़ड़ड़ड़़, तन्दुरुस्ती एवं विकासोन्मुख प्रवृत्तियों में लगाया ड़ड़ड़ड़़ और देश, सहज ही समर्थ समुन्नत बन सकेगा। ड़ड़ड़ड़़ व्यय का बोझ उतर जाने पर बेईमानी करने ड़ड़ड़ड़़ भी तरकीबें लोग न सोचेंगे, न कर्जदार होंगे, न उद्विग्न ड़ड़ड़ड़़ न विक्षिप्त। सहज, सरल जीवन बन जाने पर आत्मिक नैतिक और सामाजिक जीवन में सुसम्पन्नता एवं प्रगति के लक्षण प्रत्यक्ष दीख पड़ने लगेंगे।
विवाहोन्माद का मोर्चा जीत लेने पर अन्य कुरीतियाँ अपने आप ही उर कर मर जायेंगी। विवेकशीलता और औचित्य अपनाने की प्रवृत्ति जग पड़ी तो छुट-पुट कुप्रथाओं को अपनाने के लिये कोई भी तैयार न होगा। बड़ा मोर्चा फतह होने पर छोटे मोर्चा सहज ही धराशायी हो जायेंगे। लड़ना तो इसी एक कठिन मोर्चे पर है। यदि जीत गये तो सामाजिक पुनर्निर्माण का कार्य सम्पन्न हुआ ही समझना चाहिये।
पिछले अंक में विवाह योग्य वर कन्याओं की जान ड़ड़ड़ड़़ का एक फार्म लगाया गया था। उसे भर कर ड़ड़ड़ड़़ सज्जन भेज दें। और अपने उपयुक्त रिश्तों की लिस्ट माँगते रहें। ऐसे पत्र व्यवहार में उत्तर के लिये 20 पैसे का टिकट भेजना अनिवार्य है। इतना बड़ा दफ्तर उत्तर दायित्व और पत्र-व्यवहार संभालने के बाद डाक व्यय भी अपने पास से लगायें इतना दबाव नहीं डाला जाना चाहिये। आशा है अपने विशाल परिवार में आदर्श विवाहों के लिये उपर्युक्त रिश्ते ढूँढ़ने में सुविधा होगी। अच्छा तो यह है कि ऐसे विवाह भी गायत्री तपोभूमि मथुरा में ही सम्पन्न किये जाय, ताकि समीपवर्ती लोगों को अनावश्यक चर्चा करने और प्रदर्शन की बेकार वस्तुऐं जमा करने का अवसर हो न आये।
विवाह कहीं भी हो, होना आदर्श पद्धति से चाहिये। अखण्ड-ज्योति परिवारों बीच प्रचलित हुई यह प्रथम आँधी-तूफान की तरह सारे देश में फैलेगी और देखते-देखते सामाजिक क्राँति का एक प्रखर सामने प्रस्तुत होगा। यह क्राँति आगे बढ़ेगी और हर क्षेत्र में फैली हुई अनैतिकता और अवांछनीयता को भस्म करके रहेगी।
प्रगति की दिशा में दो चरण बढ़ाने के लिये उद्बोधन करते हुए हम परिजनों के हाथ में अपनी मशाल थमाते हैं। मानवीय आदर्शों को अग्रसर बनाने के लिये प्रोत्साहन देते रहने को हमारी लंबी साधना का प्रतिफल परखने का अब समय आ गया है। परिजनों की मूर्छा विरत हुई या नहीं? हमारी साधना रंग लाई या नहीं? इन दोनों ही तथ्यों की परख उपरोक्त दो कसौटियों पर करने की ठानी है। 19 महीने का यही परीक्षा काल है। हम बहुत बारीकी से अपने स्वजनों की आस्था और सक्रियता का लेखा-जोखा रखेंगे कि जो कुछ कहा-सुना जाता रहा-जो कुछ लिखा-पढ़ा जाता रहा, उसका कुछ परिणाम भी निकला या योंही वह सब कुछ हवा में उड़ गया। हमें विश्वास है अपने परिवार में अधिकाँश व्यक्ति सत्य ओर तथ्य के प्रति निष्ठावान् है और वे अवसर पड़ने पर अपने आत्मिक एवं सामाजिक कर्तव्यों की उपेक्षा न करेंगे। प्रस्तुत दोनों कर्तव्य ऐसे ही हैं, जिन्हें पूरा किया जाना चाहिये और युग की आवश्यकता पूर्ण करने में योगदान दिया ही जाना चाहिये।
*समाप्त*