धार्मिक परिप्रेक्ष्य में विज्ञान की सीमितता

June 1969

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19 वीं शताब्दी के योरोपीय वैज्ञानिकों ने यह खोज की कि मनुष्य शरीर भी परमाणुओं से बना हैं, उस परमाणु को जीवित-कोश (सेल) कहा गया। वैज्ञानिकों ने बताया कि सेल का निर्माण निश्चित रूप से उन्हीं रासायनिक एटम से होता हैं, जिससे निर्जीव पदार्थों का निर्माण होता है। उन सब का निर्देश समान प्राकृतिक नियमों द्वारा होता है। किन्तु जब वैज्ञानिकों ने प्रश्न किया गया कि निर्जीव पदार्थों में क्रियाशील शक्ति गया है और वे प्राकृतिक नियम क्या है तो वैज्ञानिक उसका कोई निश्चित उतर नहीं दे सकें।

सर ए॰ एस॰ एडिप्टन ने कहा- ‘‘कुछ अज्ञात शक्ति काम कर रही हैं, हम नहीं जानते वह क्या है? पर मैं चेतना को मुख्य मानता हूँ, भौतिक पदार्थ को गौण। पुराना नास्तिकवाद अब चला जाना चाहिये, अध्यात्म इसी चेतना का विषय है उसे किसी प्रकार डिगाया नहीं जा सकता।”

डा. गाल ने कहा- ‘‘मेरी राय में केवल एक ही मुख्य तत्व है जो देखता हैं, अनुभव करता है, प्रेम करता है, विचारता है, याद करता है आदि। परन्तु इस तत्व को भिन्न-भिन्न कार्य करने के लिये, भिन्न-भिन्न प्रकार के भौतिक साधनों की आवश्यकता पड़ती है।

‘दि ग्रेट डिजाइन’ नामक पुस्तक में अनेक वैज्ञानिकों ने मिलकर सहमति प्रकट की और लिखा कि-”यह संसार बिना चेतना-सत्ता की मशीन नहीं है। यह यों ही नहीं बन गया। जड़ को यदि एक पौध मानें तो यह भी निश्चित है कि उसके पीछे एक मस्तिष्क, चेतन-शक्ति काम कर रही है, उसका नाम चाहे कुछ भी हो पर वह विज्ञान की शक्ति के परे है।”

कुछ वैज्ञानिकों ने उक्त विचारों को सत्य नहीं माना और जीवन को रासायनिक क्रिया मानकर ही आगे की खोजों को जारी रखा। जीवित कोशिका के और अधिक (विश्लेषण) से पता चला कि कोशिका प्रोटोप्लाज्मा नामक तत्व से बनी है। एक प्रोटोप्लाज्म में 12 करोड़ से अधिक मालेक्यूल्स पाये जाते है। वह इतने सूक्ष्म होते हैं कि उन्हें आँखों से देखा जाना संभव नहीं है। प्रोटोप्लाज्म 12 तत्वों से मिलकर बना है। कार्बन, आक्सीजन, नाइट्रोजन, हाइड्रोजन, सल्फर, कैल्शियम, पोटैशियम, मैग्नीशियम, लोहा, फास्फोरस, क्लोरीन और सोडियम। प्रोटोप्लाज्म पर रासायनिक क्रियाओं का प्रभाव पड़ता है। भोजन का उपयोग करने और उससे बढ़ने की क्षमता होती है। वह क्षमता रहस्यमय सृजनात्मक प्रक्रिया द्वारा व्यक्त होती है। एक सेल दो भावों में बँट जाता है। उन दो के भी दो दो = चार हो जाते हैं, फिर चार के दूने 8 हो जाते हैं, इस तरह संख्या अपने आप बढ़ती रहती है प्रत्येक सेल केन्द्रक (न्यूक्लियस) से द्वेषा होता है बाँधने वाले तत्व को क्रोमोटोन कहते हैं, वही सम्पूर्ण जीवन का नियन्त्रण करता है। किन्तु यदि ऊपर के सभी तत्वों को अलग-अलग लेकर मिलाये तो उस रासायनिक प्रोटोप्लाज्म में चेतना नहीं आती, वही वह रहस्यमय प्रक्रिया है जिसे जानने में वैज्ञानिक अब तक असमर्थ रहे है। उस जीवित कोश (सेल) में जो विकास की शक्ति (2) भोज्य पदार्थों को ऊर्जा (हीट) और शक्ति (एनर्जी) में परिवर्तित करने की शक्ति, (3) गति, (4) जन्म देने की शक्ति थी, वह कौन थी, जब तक विज्ञान इस बात का संतोषजनक उत्तर नहीं दे पाता, तब तक उसका सम्पूर्ण याँत्रिक ज्ञान अपूर्ण हैं। यह विज्ञान की पहली सीमितता है कि वह चेतना के गुणों का अध्ययन कर लेने के बाद भी चेतना के मूल अस्तित्व पर कुछ प्रकाश नहीं डाल पाता। निर्जीव पदार्थों में माजेक्युलर गति होती हैं पर जीवित पदार्थों में सम्पूर्ण पिण्ड की गति की क्षमता होती हैं, उस सर्वशक्तिमान् सत्ता का बोध धर्म और विश्वास के द्वारा ही संभव है। यद्यपि विकिरण (रेडियेशन), गुरुत्वाकर्षण (ग्रेविटेशन) आदि को लेकर एटम, मालेक्यूल्स और पदार्थ के इलेक्ट्रान्स की खोज अभी जारी है पर भावनाओं की सूक्ष्मता तक यान्त्रिक शक्ति पहुँच सकती है इस पर सहसा विश्वास नहीं होता?

दूर की क्यों कहें, वैज्ञानिकों से जब यह पूछा जाती है कि इस प्रोटोप्लाज्म की रासायनिक उत्पत्ति कैसे हुई तो उसका भी विज्ञान के पास कोई उत्तर नहीं हैं।

बिल्ली सीधे भाग चली जा रही है, शरीर की किसी रासायनिक इच्छा से प्रेरित होकर माना वह किसी चूहे पर झपट पड़ती है और उसे पकड़ लेती है पर इतना साहस करने के बाद भी उसे वह भय रहता है कि कोई उसे उस कार्य के लिये दण्ड न दे अथवा और कोई दूसरा उसे जुड़ा न ले, वह चूहे को लेकर किसी एकान्त और सुरक्षित स्थान में जाती है। साहस और भय, प्रेम और घृणा, आकाश में उछलना और पानी में डुबकी लगाना, मारना और दुःखी होना यह परस्पर विरोधी क्रियायें क्यों उत्पन्न होती है। कोई प्राणी आगे चलकर दायें घूमेगा या जायें, चलता रहेगा या रुक जायेगा, इस तरह के संवेग और प्रक्रियायें जीवों में कहाँ से उठती है। यदि उन्हें भी रासायनिक प्रभाव कहा जाये तो एक ही माता-पिता से उत्पन्न दो बच्चों में जिन्हें माता-पिता के जीन्स भी समान मिले, परिस्थितियाँ समान मिलीं, आहार समान मिला। फिर यह गुण-क्रम क्यों परिवर्तित हो जाते हैं, इसका कोई निश्चित उत्तर विज्ञान के पास नहीं है और न ही उस सूक्ष्म चेतन सत्ता के इन व्यापक गुणों के अध्ययन का कोई यन्त्र विज्ञान विकसित कर पाया है।

विज्ञान कहता है कि एटम (अणु) पदार्थ की सूक्ष्मातिसूक्ष्म अवस्था है। शक्ति एनर्जी, एटम से ही पैदा होती है। विज्ञान यह भी कहता है कि संसार में किसी वस्तु का नाश नहीं होता। अर्थात् यदि लकड़ी को जलाने से पूर्व तोल लें और मानें कि वह तोल 5 किलो थी। इसके बाद उसे जला दें। जलाते समय (1) धुंआ, (2) भाप, (3) गर्मी, (4) प्रकाश। इन सब की तोल की जाती रहे और अन्त में (5) जो राख बचे उसे, इन सबको तौल ले तो यह वजन 5 किलो ही होगा। तात्पर्य यह कि गर्मी प्रकाश आदि में परिवर्तित हुये कण स्थूल लकड़ी में व्याप्त सूक्ष्म परमाणु ही थे, जो अपने-अपने गुण (नेचर) में बदल गये, यह एक प्राकृतिक सिद्धान्त है और समझ में आ जाता है। किन्तु एटम जिसका कोई न भार हैं, न घनत्व बह इतनी अधिक शक्ति देता है, जिससे हिरोशिमा और नागाशाकी जैसे भू-खण्डों को पल भर में नष्ट कर सकता है। एटम के अन्दर वह शक्ति कहाँ से आई इसका कोई उत्तर विज्ञान के पास नहीं हैं और इसीलिये यह मानना पड़ता है कि कोई अन्य शक्ति है जो रासायनिक सत्ता से कहीं अधिक व्यापक और बलवान् है।

एक और बड़ा भारी प्रश्न है जिसका समाधान प्रस्तुत करने में विज्ञान परिमित रह गया है और वह यह है कि प्रकृति की यंत्रवत् सत्ता (मैकेनिज्म) कहां से और क्यों बना और वह किस ओर जा रहा हैं, उसके पीछे क्या है और उसका भविष्य क्या है?

“विज्ञान की परिमितता (लिमिटेशन आफ साइन्स) के लेखक जे0 डब्लू0 एन॰ सुलीवान ने इस प्रश्न को बड़ा गहराई से देखा और लिखा कि ब्रह्मांड का वैज्ञानिक रूप स्पष्ट तथा पूर्ण विश्वसनीय है। यह हमारी रुचि को विषयों की कार्य-विधियों (फेनामेनन) में लगाये रहता है। उदाहरणार्थ उम्र, स्थिति, साइज, वेग और तारों की रासायनिक रचना के बारे में काफी ज्ञान मिला है। पदार्थ छोटे-छोटे विद्युत कणों से निर्मित होता हैं, जो एक दूसरे से निश्चित तरीके से मिले रहते है। इस जानकारी से पदार्थ के संबंध में हमें बड़ा संतोष हुआ है। किन्तु जब हम उस विज्ञान की ओर जाते हैं, जो जीवन से संबंधित होता है, तब इसका काम कम संतोषजनक होता है। बहुत से मौलिक प्रश्न उभरते हैं और हम उनका हल नहीं जानते। उदाहरण के लिये जीवाणु (लिविंग आगेनिज्म) को हम पूर्ण मानते हैं, फिर भी जीवाणु अपने ही अंश या भाग का योग नहीं लगता और उसका विस्तार चेतन प्राणियों में किस समय से हुआ है, इसका अनुमान लगाना कठिन हो जाता है। यदि जीवाणु को ही निरन्तर बढ़ने वाली प्रक्रिया मानें तो भी यह प्रश्न उठेगा कि उसका स्फुरण किसी एक बिन्दु से हुआ है और वह क्या है, विज्ञान यह बताने में असमर्थ है। उस व्यक्तिगतता (इनडिविजुयलिटी) का कोई निश्चित समाधान विज्ञान के पास नहीं है। कारण परिणाम के सिद्धान्त (प्रिन्सिपुल आफ काजेशन) निर्जीव संसार को नियन्त्रित करता है, ऐसा कुछ लोगों का विचार है। सम्पूर्ण प्राकृतिक नियम भी अंतिम रूप से एक ही यंत्र शास्त्र में सम्मिलित लगते है। अर्थात् पदार्थ का आविर्भाव, उसमें निरन्तर गति ओर रूपांतर होता रहता है, उसी के फलस्वरूप संसार का स्वरूप बद रहता है। यदि यह सब यंत्रवत चलता रहता होता विज्ञान के इस कथन को मानने में कोई आपत्ति न होती कि संसार में रासायनिक परिवर्तनों से ही विश्व बनता-बिगड़ता रहता है पर जब विस्तृत ब्रह्मांड के सूक्ष्म नियमों और गणित के सिद्धान्तों पर दृष्टि डालते हे तो उनमें एक सुनिश्चित नियमितता के साथ-साथ कुछ ऐसी लक्षणतायें भी दिखाई देती हैं, जिससे यह पता चलता कि यह संसार किसी मूल-बिन्दु की इच्छा पर चल रहा है और वह उन नियमों में स्वेच्छा से परिवर्तन कर सकता है। उसका वर्णन हम ब्रह्मांड की खगोलीय स्थिति पर प्रकाश डालते समय करेंगे। उस वृहत् क्रम व्यवस्था को स्थिर रखने वाली सचेतन शक्ति के बारे में विज्ञान का कोई अनुमान नहीं हैं।

विज्ञान की वह जानकारियाँ जो ऊपर प्रदर्शित की है, धार्मिक विज्ञान का एक अत्यन्त लघु अंश है योग पृष्ठ में इस सम्बन्ध में सारी जानकारी इस प्रकार-

प्रत्येकमेव यच्चितं तवेवंरुप्शक्तिमत्।

प्रत्येक भुविताँ राम नूनं संसृति खण्डकः॥

-3/40/29, 4/11/27,

परमाणौ परमाणौ सर्गवर्गा निरगैलम्।

महावितेः स्फुरन्त्यर्कसचीव त्रसरेणवः॥

-3/27 29,

त्गद्गुज्जासहत्राणि यत्रासंख्यान्यणापणौ।

परस्पर लग्नानि काननं ब्रह्म नाम तत्॥

-4/18/6,

अर्थात्-हे राम! प्रत्येक चित्त में इस प्रकार सृजन होता है, जैसे सोते हुये अनेक सैनिकों के मन में अनेक पृथक् पृथक् उदित हो जाते हैं, उसी प्रकार प्रत्येक जीव का संसार उसके भीतर अलग-अलग उदित होता है। जगत्भ्रम सब जीव को अलग-अलग होता वह उस के अतिरिक्त और कुछ नहीं जानता। जिस प्रकार सूर्य की किरणों में अनेक त्रसरेणु दिखाई पड़ते हैं, विश्व के परमाणु-परमाणु के भीतर उसी प्रकार अनन्त सृष्टियाँ दिखाई देता है। जैसे धुँधुची के गुँजाफल एक दूसरे से अलग-अलग लटके रहते हैं, उसी प्रकार ब्रह्म में अणु-अणु के भीतर अनेक सृष्टियाँ हैं।

परमाणु और पदार्थ सम्बन्धी इस जानकारी से ब्रह्म शक्ति या विश्व की सृजनात्मक प्रक्रिया का महत्व बहुत अधिक हैं, किन्तु उसकी जानकारी देना और मनुष्य की वह समस्याओं का समाधान देना विज्ञान के बलबूते की बात नहीं हैं। वह श्रद्धा और भक्ति, आस्था और विश्वास के द्वारा जाना और अनुभव किया जा सकता है, यह धर्म के अंग हैं, इसीलिये विज्ञान जहाँ रुक जाता है, उसके आगे धर्म और भावनायें नियन्त्रण करती हैं। मनुष्य जीवन में इसीलिये विज्ञान की अपेक्षा धर्म अधिक व्यापक और महत्वपूर्ण है, उसके बिना हम न तो अमरत्व की कल्पना कर सकते हैं और न जनम-मरण, रोग-बीमारी, क्रोध, काम, हिंसा आदि कष्टों से मुक्ति की। धर्म ही हमें शाश्वत मुक्ति और चिर-आनन्द प्रदान करने की क्षमता रखता है क्योंकि वह चेतना-मूल का विज्ञान है।


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