एटम बमों की मार से हमें यज्ञ बचाते हैं

June 1969

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

मोटर या रेलगाड़ियां आगे की भागती है, उनका धुंआ पीछे छूटता जाता है, इसलिए उनमें बैठी हुई सवारियाँ धुएं के विषैले प्रभाव से बच जाती है, किन्तु सामूहिक रूप से धरती में विषैली गैसों का प्रभाव यहाँ के प्राणियों में घुटन ही पैदा करता है। भूगोल जानने वालों को पता है कि धरती सूर्य की परिक्रमा करती है, साथ ही वह अपनी धुरी प भी चक्कर काटती रहती हैं गोला कार चक्कर के कारण एक स्थान की विषैली गैसों से सारी धरती भी प्रभावित होती है और आकाश भी, इस बात को इनकार करने का कोई कारण नहीं हैं।

अब हम अपने पाठकों का ध्यान अमेरिका के प्रसिद्ध परमाणु- शास्त्री श्री एडवर्ड टेलर और अलबर्ट एल. लेटर द्वारा लिखित पुस्तक हमारा परमाणु केन्द्रिक भविष्य ‘अवर क्यूक्लिय फ्यूचर’ नामक पुस्तक के उन अंशों की ओर ले जाना चाहेंगे, जिन में इन दोनों वैज्ञानिकों ने यह बताने का प्रयास किया है कि परमाणु-बमों (ऐटमबम) के विस्फोट से जो विषैली गैसों की तत्व वर्षा (फाल-आउट) होती है, उससे जीव जगत और आकाश किस प्रकार प्रभावित होते है। यद्यपि दोनों वैज्ञानिकों ने यह प्रयत्न किया है कि परमाणु विभीषिका का कम से कम आतंक लोगों पर पड़े इसलिए उन्होंने बहुत हाथ साधकर लिखा है, पर जितना कुछ लिखा है, उतने से ही यह निश्चित हो गया है कि भले ही परीक्षण के तौर पर यिद परमाणु विस्फोटों का सिलसिला जारी रहा तो मानव का अस्तित्व रहेगा भी या नहीं, इस सम्बन्ध में कोई निश्चित राय दे सकना असम्भव होगा। उस स्थिति की पूर्व सुरक्षा के यदि कोई समर्थ साधन है तो वह यज्ञ ही होंगे, इसलिए यज्ञ परंपरा का जितना अधिक विस्तार होगा, विश्व संस्कृति की सुरक्षा को सम्भावनायें उतनी ही तीव्र होंगी।

पुस्तक के 11 वें अध्याय- ‘मिट्टी से मनुष्य तक’ फाम अर्थ टु मेन में उन्होंने बताया है कि बम विस्फोट के बाद रेडियो सक्रिय उत्पादनों में प्रकार के परिवर्तन बड़े आश्चर्यजनक होते हैं। इसमें मेसन के इलेक्ट्रान तो ब्रह्राहीय विकिरण में भाग लेते है, इसलिए उनका विवरण न कर केवल धरती और मनुष्य समाज को प्रभावित करने वाली विषैली तत्व वर्षा का ही वर्णन करेंगे। सर्वप्रथम गामा किरणों (गामा-रेंज) की सक्रियता है, जिसका प्रभाव विस्फोट के बाद 1 वर्ष तक बना रहता है। विषैली सक्रियता स्थूल आँखों से नहीं देखी जा सकती, पर इससे विशेष सुरक्षा के द्वारा ही बचाव सम्भव है, कपड़े और मकान भी उससे शरीर की रक्षा नहीं कर सकते। किरणों एवं गैसों से बचाने वाले परिधान जन साधारण को उपलब्ध नहीं हो सकते, इसलिए उसके प्रभाव से तो कोई नहीं बच सकता।

इसके बाद गैसों का नम्बर आता हे। सबसे विषैली गैस स्ट्रानटियम 90 है, वह बोटा किरणें छोड़ती है और उसकी नैष्ठिक सक्रियता का समय 56 वर्ष का होता है, इसी तरह का दूसरा तत्व है सेसियम 137 जो 60 वर्ष तक मनुष्य जीवन को विषैले प्रभाव में रखती है। स्ट्रानटियम कैल्शियम की तरह होता है और उससे खाद्य पदार्थ विषैले हो जाते है। यह तस्व शरीर में आसानी से प्रविष्ट हो जाता है और काफी समय हड्डियों में जमा रहता है यह क्षय रोग पैदा करता है। विघटन-प्रक्रिया में आयोडीन 131 सबसे अधिक मात्रा में भाग लेता है पर उसका आइसोटोप केवल 16 दिन तक रहता है, इसलिए वह शीघ्रता से चरागाहों को और वनस्पति को दूषित बनाकर समाप्त हो जाता है। वह मनुष्य शरीर में टेंटुये (एडम्स एपिल) के पास की बायरायड ग्रन्थि (थायरायड ग्लैण्ड) को विषैला बना देती है। इसी ग्रन्थि से भोजन पचाने और चित्तवृत्तियों को नियन्त्रित करने वाले रासायनिक द्रव पैदा होते है, इसलिए आयोडीन 131 थोड़े समय में ही जहाँ स्तनधारी पशुओं के शरीर विषैला बनता है, वहाँ वह मनुष्य की पाचन क्षमता को भी कमजोर कर देता है और चित्तवृत्तियों में चिड़ चिड़ापन क्रोध, और अप्रसन्नता जैसी दुर्भावनायें पैदा कर देता है। वर्तमान युग ऐसी परेशानियों से ग्रस्त होता जा रहा है, हम समझ नहीं पाते कि कारण क्या है, पर यह सब अब तक जो बम विस्फोट हो चुके य हो रहे है, उनके कारण ही हो रहा है।

कुछ रेडियो सक्रिय आइसोटोप वे होते है, जो बमों में प्रयुक्त ईधन से बनते हैं, जैसे यूरेनियम 235, प्लूटोनियम 239। यूरेनियम 235 का प्रभाव 142 करोड़ वर्ष और प्लूटोनियम का 42 हजार वर्ष पर उससे अल्फा किरणों पैदा होती है, इसलिए उससे जीवन को अधिक खतरा रहता है। अल्फा किरणें यद्यपि त्वचा का भेदन नहीं कर सकती जैसा कि बीटा और गामा किरणें, पर यदि इनकी थोड़ी सी मात्रा शरीरी में पहुँच जाये तो उससे मनुष्य के शरीर में विषैला प्रभाव तेजी से बढ़ जाता है। अल्फा किरणों की और सूक्ष्म भेदन जानकारी वैज्ञानिक नहीं पा सकें, इसलिए उसके दीर्घकालीन दुष्प्रभाव से चिन्तित होना स्वाभाविक ही है।

शरीर में कुल वजन का दस प्रतिशत भाग हड्डियों का होता है, इसलिए इन विषैले तत्वों को दश प्रतिशत मात्रा तो स्थायी रूप से शरीरों में बनी रहती है और उसके कारण शरीर के आनुवाँशिक विकास में बाँधा पड़ती है, अर्थात् आने वाली सन्तानें उत्तरोत्तर कमजोर और बीमार होती चली जायेंगी। हड्डियाँ शरीर की रासायनिक क्रिया में कम भाग लेती हैं, इसलिए उनका विषैला प्रभाव शीघ्र नहीं धुल पाता। यह विष प्रजनन कोशों और समीपवर्ती मज्जा को भी क्षतिग्रस्त करते हैं। अब तक जो परीक्षण हो चुके हैं, उनसे ही 100 पौण्ड से भी अधिक स्ट्रानटियम 90 का उत्पादन हो चुका है जो अब भी धरती पर व्याप्त है और 100 पौण्ड भाग लगभग मेघ के रूप में विघटित होकर धरती की सतह पर वापस आ गया है। यह अंश अमेरिका में सबसे अधिक है और यदि सचमुच कहे तो आज मानसिक और शारीरिक दृष्टि से सर्वाधिक रोगी कोई देश है तो वह अमेरिका ही है। यह दूषित पदार्थ जब मिट्टी में मिल जाते हैं, तो अनन और वनस्पति की जड़ों से घुसकर शरीर में पहुँच जाते हैं, इस तरह अब जो हम अन्न खा रहे हैं, वह भी रेडियो धर्मी विष के प्रभाव से मुक्त नहीं है।

इससे पूर्व किसी लेख में हम जा चुके हैं कि बम-विस्फोटों के विषैले दबाव में ‘रोएन्टजन’ इकाई से माप की जाती है। ऐसे 40 रोएन्टजन की मात्रा मनुष्य शरीर को लगभग अर्द्धमृत कर देती है, तात्पर्य यह है कि यह मात्रा जितनी बढ़ती जायेगी, स्पष्टवादी वैज्ञानिकों का कहना है कि अब तक जो परीक्षण हो चुके हैं, उनसे ही विश्व भर में 50 हजार व्यक्ति अकाल मृत्यु के शिकार होंगे। यदि एक हजार रोएन्टजनों के संपर्क में मनुष्य शरीर की रक्षा जायें तो उससे उस मनुष्य की तीव्र बुखार की सी स्थिति बनी रहेगी और 30 वें दिन उसकी निश्चित मृत्यु हों जायेंगी अब जितनी मात्रा से वर्तमान जीवन प्रभावित है, उससे कुछ न कुछ बुखार की सी स्थिति तों सब की बना रहेगी और उस स्थिति में बीमार की जो मानसिक स्थिति होती है, वैसी ही लोगों में विकसित होती चली जायेगी, तात्पर्य यह कि लोगों के सब और शरीर दोनों में ही चिंता परेशानी, रंग और बीमारियाँ अकारण पैदा होती रहेंगी।

इन वैज्ञानिकों ने हिरेशिमा और नागाशाकी में गिराये बमों के बाद जीवित लोगों पर जाँच के आंकड़े देते समय यह बताने में संकोच नहीं किया कि उसका अध्ययन करने वाले रेडियोलाजिस्ट भी विषैली तत्व वर्षा के प्रभाव से बच नहीं सके। उनमें से भी अनेक को गले की गिल्टियाँ हुई। ऐन्किलोजिग स्पाडिलिटिस जो रीढ़ के जोड़ों को बड़ी कष्ट साध्य बीमारी है। कुछ उससे भी पीड़ित हुये। इस तत्व वर्षा से धरती के किसी भी कोने में रहने वाले व्यक्ति स्ट्रानटियम 90 के प्रति वर्ष 0.002 रेएन्टजम से प्रभावित होते रहते है। इससे निःसन्देह लोगों में हड्डी के कैंसर ल्यूकोमिया एवं क्षय रोगों को वृद्धि होगी। डा. हाडिन जोन्स ने आयु ह्रास सम्बन्धी आंकड़ों में यद्यपि सिगरेट आदि के धुयें से 9 वर्ष की आयु कम होना बताया है, वहाँ इस विषैले तत्व से कुल 5 या 12 दिन बताया है, पर वायु मण्डल को दूषित करने और शरीरों की रोग क्षमता बढ़ाने में तो यह दोनों ही एक-सा काम करते हैं। सिगरेट बीड़ियों, से जो धुंआ फूँका जा रहा है, वह भी इसी कोटि का है और उससे वह लोग भी निश्चित रूप से प्रभावित हो रहे है, जिनका न तो बम विस्फोट से कोई मतलब है और न ही वो धूम्रपान करते है।

रेडियोधर्मी धूल का सबसे बुरा प्रभाव आने वाली संतानो पर पड़ेगा, यह स्वयं टेलर और लेटर दोनों ने स्वीकार किया है और यह कहा है कि उसका यथार्थ प्रभाव हमारे बच्चो के भी बच्चों में देखने में आयेगा वे लिखते है कि ऐसा इसलिए होगा कि नवजात प्राणी माता पिता के क्रोमोसोम (गुण सूत्रों) से अपने शरीर का विकास करता है। बच्चे पिता माता से 24-24 या 23-23 क्रोमोसोम प्राप्त करते हैं इनमें जो जीन्स होते है वह तत्व वाहक होते हैं और उनमें मनुष्य के आचरण सम्बन्धी रासायनिक संकेत होते है। यह वह बिन्दु हैं, जहाँ स्थूल और भाव दोनों मिलते है, रेडियोधर्मी धूल में बीटा और गामा किरणों की सक्रियता उन्हें ढेढा कूबरा भेंडा और विषैला बनाती है, जिससे सम्भव है, आगे आने वाली पीढ़ी ऐसे में अष्टावक्र और मानसिक दृष्टि से प्रचण्ड दुर्द्वय, उद्वण्ड और अमानुधिक स्वभाव वाले हों, जिन्हें पूर्ण असुर ही कहा जा सके। यद्यपि वैज्ञानिक दबी जवान से ही स्वीकार करते हैं कि कोई भी ‘जीन’ परिवर्तन हो सकता है, पर यह निश्चित है कि वर्तमान अणु विस्फोटों की प्रतिक्रिया से भावी पीढ़ी को बचाया नहीं जा सकता। तात्पर्य यह है कि हमने जानबूझ कर अपनी संतान के शरीर और मन दुर्भाग्यपूर्ण बनाने का कुचक्र रच डाला है, उससे छुटकारा नहीं मिल सकता, हम धरती में पूर्ण असुरत्व के विकास के मददगार है, भले ही वह धीरे-धीर देखने में आ रहा हो।

‘जीन’ एक अत्यधिक सुचारु और सार रूप में गठित पदार्थ है और इतना आश्चर्यजनक है कि अपने आप में सभी जातिगत गुणों को वहन कर ले जाता है। इसमें बाहरी रेडियो हस्तक्षेप हर बार इस व्यवस्था को नष्ट करेगा, जो हानिकारक भी होगा और प्राकृघातक भी। क्योंकि रेडियो परीक्षणों से मालूम हुआ है कि प्रजनन कोशों में 0.001 या 0.002 रोएन्टजन वर्ष भर में प्रवेश होता है अर्थात् एक पीढ़ी 0.05 रोएन्टजन विष सोख (आब्जार्व) लेगी। यह अधिकाँश सैसियम 137 होगा, जो गामा किरणों से पैदा होता है और जो धरती में तथा शरीरों में मिल चुकी है। यह विवरण देते समय दोनों वैज्ञानिकों ने स्वीकार किया है कि हम यह अध्ययन करते समय यह निश्चित नहीं कर सकते कि अपनी भावी प्रजा को शरीर रचना और मनीगत सम्बन्ध के बीच इस दुष्प्रभाव से किस प्रकार बचा सकते है। यह गम्भीर कठिनाइयाँ है, जिनका हमारे पास कोई उत्तर नहीं है।

इसका उत्तर पाना है तो भारतीय संस्कृति की भी वैसी ही खोज करनी पड़ेंगी जैसी वैज्ञानिकों ने रेडियो सक्रियता की (रेडियो एक्टिविटीज) की है। यंत्रों से पैदा होने वाले अग्नि प्रवाह और ध्वनि संतरण से होने वाले भावनात्मक परिवर्तन, दैवी शक्तियों से सम्बन्ध और प्राकृतिक परिवर्तनों की बात हम यज्ञों की चर्चा करते हुए पहले कर चुके है, आज यहाँ उस वैज्ञानिक तथ्य का प्रतिपादन करना चाहेंगे, जो यज्ञों के माध्यम से मानवीय शरीर को और मन को स्वस्थ एवं बलवान बनाता है, अब हम इस स्थिति में है कि यज्ञों द्वारा होने वाली सूक्ष्म प्राण वर्षा का वैज्ञानिक विश्लेषण कर सकें और लोगों से यह कह सकें कि यज्ञों में जलाई जाने वाली वनस्पतियाँ, अन्न और धृत निरर्थक नहीं जाते वरन उनकी भी उतनी ही रक्षा करते है, जो उनकी आलोचना करते है। जिस तरह रेडियो धर्मिता हर अनिच्छुक का भी अपकार करती है, उसी प्रकार यज्ञों की ही शक्ति होगी, जो मानव संस्कृति की रक्षा करेगी। यज्ञों के वैज्ञानिक आधार को भी छोड़ा नहीं जा सकता क्योंकि उससे आने वाली प्रजा की सुरक्षा है। उन्हें वैज्ञानिक अभिशाप से बचाने के लिए इसके अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है कि सारी धरती को रेडियो धर्मिता से उन्मुक्त करने के लिए यज्ञो की धूम मचा दी जाये।

इस कथन की पुष्टि के लिए हम अपने पाठको को होम्योपैथिक चिकित्सा के आविष्कारक डा. हैनोमन के पास से चलना चाहेंगे। ‘अर्गेनन आफ मेडीसिन’ नामक अपनी पुस्तक की 190 वी धारा में उन्होंने लिखा है कि - “मेदे जिह्वा और मुख में ऐसे भाग है, जो औषधि के प्रभाव को शीघ्र ग्रहण कर लेते है, किन्तु उससे भी तीव्र प्रभाव नाक से सूँघने से होता है। औषधि को जलाने से धुयें का एक भाग अत्यन्त सूक्ष्म जिसे हम सुगन्ध के रूप में जानते है आस पास के वातावरण में व्याप्त हो जाता है, श्वाँस के द्वारा भीतर फेफड़ों में पहुँचाते है, उससे स्थूल रासायनिक तत्वों में भी चेतनता आती है और उसके सूक्ष्म आवेशों पर भी इसका स्पष्ट प्रमाण यही है कि फूलकी या कोई अच्छे सुगन्धित तेल की खुशबू पाते ही हम प्रसन्न हो उठे है। डा. किंग आर0एम0एस॰ ने मद्रास में एक बार यह तथ्य स्वीकार किया था कि घी, चावल, केसर मिलाकर जलाने से कितनेक रोगों के कीटाणु नष्ट होते है और उससे श्वांस नली से सम्बन्धित कुछ ग्रन्थियों से उन रसों का स्राव होता है, जो हमारे मन और चित्त वृत्तियों को प्रभावित करते है और उन्हें प्रसन्नता से भर देते हैं।

‘कैमिकल प्रापरटीज’ संस्था ने उस पर विस्तृत अध्ययन किया। जायफल, जावित्री, बड़ी इलायची, सूखा चन्दन, जलाकर पाया कि उनका तेल गैस बनकर हवा में फैलता है, आग उन्हें जलाकर गैस कर देती है, उसके परमाणु बहुत सूक्ष्म होते है। सूक्ष्म दर्शक यन्त्र से नाप की गई तो यह परमाणु 1/10000 से 1/100000000 सेंटीमीटर व्यास कर सकते है, जो इतने सूक्ष्म हों या बात हम अणु विस्फोट की ऊपर की चर्चा में कर चुके है, इसलिए यहां यह बात स्वीकार कर लेनी चाहिए कि यज्ञ मनुष्य की तत्काल प्रसन्नता ही नहीं बढ़ाते वरन जीन्स के होने वाले विषैले दबाव को वही रोक सकते हे। ऐलोपैथ भी क्रियोजूट और इकोलिप्टस आदि को मिलाकर (इनहौलेशन) उनमें कुछ औषधियाँ डालते है। और उसे आग में चढ़ाकर उसकी भाप से कमरे को भर देते है, फिर उसमें रोगी को बैठा देते हैं, इससे सूक्ष्म परमाणु सीधे रोगी के फेफड़ों में जाकर अपना प्रभाव करते है। अथर्ववेद में इसी तथ्य को प्रकट करते हुए ऋषियों ने कहा था-

मुच्चामि स्वा हथषा जीवनाय बमज्ञात यरुमा दुत

राजयरुमात।

ग्राहिर्जग्राह यद्यतेदेन तस्या इन्द्रानिग्नप्रभु मुक्तमेनम।

-अथर्व 3। 11। 1,

हे प्राणी तुझ को सुख के साथ चिरकाल तक जीने के लिए मैं युक्ति बताता हूँ, तू आहुतियों के द्वारा राज्यक्ष्मा के सभी प्रकट लक्षणों और गुप्त राजरोगों से छुटकारा प्राप्त कर। तुझे पीड़ा है और पुराने रोग है, उन्हें वायु तथा अग्नि देवता अवश्य छुड़ायें। इस वर्णन में अग्नि (किरणें) वायु (गैसें) मिलकर वही रेडियोधर्मी गति (रेडियो एक्टीविटी) पैदा करती है, जो वर्षों से होती है पर उसमें प्रयुक्त पदार्थों के सभी आइसोटोप विषैले और दूषित होते है, जब कि यज्ञो में प्रयुक्त होने वाले हविष्यान्न का प्रत्येक भाग पुष्टिकारक रोग निरोधक और प्राणबंधक होता है। यह वायु और गन्ध भी इतनी सूक्ष्म और प्रतिक्रियावादी होती है कि कुछ ही समय में सारे वायु मण्डल में फैलकर जीव मनुष्य और वनस्पति सबको प्रभावित करते हैं। इस विज्ञान को अब समण् बिना भावी संस्कृति को बचाया नहीं जा सकता।

डा. हेफकिन, जिन्होंने चेचक के टीके का आविष्कार किया परीक्षण के बाद बताया कि घी जलाने से उसको गैस अति सूक्ष्म अवस्था में दूर तक फैलती और रोग के कीटाणुओं को नष्ट करती हैं। प्रो. टिलबर्ट, फ्राँस के उच्चकोटि के विज्ञानवेत्ता, का कथन है कि जलती हुई शक्कर या खाँड के धुएं में वायु शुद्ध करने की बड़ी शक्ति है, उसने हैजा, तपेदिक, चेचक के कीटाणु और विषैले तत्व नष्ट होते हैं।

यज्ञ का सूक्ष्म विज्ञान इन सब से महत्वपूर्ण है। वेद मन्त्रों में प्रयुक्त ‘अग्ने नये सुपथा राये’ अर्थात् जिस पथ से अग्नि गमन करते है इससे यह पता चलता है कि अग्नि तत्व अपने सूक्ष्म रूप से पृथ्वी से उठकर सुदूर अन्तरिक्ष की देव शक्तियों को प्रभावित करता है, जिस तरह सूर्य के विक्षोभ (फिलामेंट) पृथ्वी को प्रभावित करते है, उसी प्रकार अग्नि तत्व की यह धारायें शब्द तरंगों के द्वारा आकाश की शक्तियों को प्रभावित कर उनकी उल्टी प्रतिक्रिया जो पृथ्वीवासियों के लिए बड़ी लाभदायक होती है, खींच लाती है, अग्नि को देवमन्त्रों का दूत कहा गया है, उसका अर्थ ही है कि उस माध्यम से हमारी वाणी, हमारे भावों के कम्पन वैज्ञानिक तरीके से ऊपर पहुँचते है। यज्ञो से केवल पृथ्वी तल ही प्रभावित होते है ऐसा नहीं सुदूर ब्रह्मांड में भी यह शक्तियाँ विद्यमान है। 12 मार्च को साइन्स पत्रिका ने एक रिपोर्ट दी है कि अमेरिकी वैज्ञानिकों के एक दल ने जिनमें नोबुल पुरस्कार विजो चार्ल्स टाउन्स भी सम्मिलित है, तारों के बीच में विक्षुब्ध जलवाष्प बादलों के विशाल हड्डो का पता लगाया है। इस प्रकार पहल बार सौर मण्डल के अत्यन्त दूरवर्ती ग्रहों में जल का अस्तित्व देखा गया है, इसका पता भी तीव्र रेडियो

ध्वनियों से चला है। जिन आठ बादलों का पता चला है, वे प्रत्येक हमारे सौर मण्डल से बड़े है और उनकी पृथ्वी से दूरी 10 हजार से 50 हजार वर्ष आँकी गई है। स्मरण रहे कि 1 वर्ष में प्रकाश जितनी दूरी तरय कर लेता है, उसे प्रकाश वर्ष कहते है जबकि प्रकाश की गति 1 सेकेंड में लगभग 1 लाख 87 हजार मील है। कैलीफोर्निया विश्व विद्यालय के डा. डैविड रंक ने लिखा है कि इन जलवाष्पों में धूल और गैस भी है।

इन वैज्ञानिक खोजों से यज्ञों की महत्ता पर और भी प्रकाश पड़ा है यदि यज्ञो से अन्तरिक्ष को जोड़कर इस दिशा में भी शोवें सम्भव हुई तो लोगों को पता चलेगा कि यज्ञ को भारतीय संस्कृति में जो सर्वोच्च स्थान दिया गया है, वह भ्रान्त कल्पना या भावुकता नहीं वरन एक महत्वपूर्ण विज्ञान है, जिससे अतीत के ज्ञान की भी रक्षा होती है, वर्तमान को सुख शाँति और भावी संस्कृति की भी रक्षा होती है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118