प्यासे कार्तिकेय समुद्र के पास पहुँचे और अंजुलि बाँधकर पानी उठाया। मुख में लगा तो लिया पर उगलते ही बना। महामुनि भगवन् के इस पक्षपात पर बड़े क्षुब्ध हुये। नदियाँ कितनी छोटी होती है पर उनका जल कितना शीतल और कितना मीठा होती है पर अनन्त राशि-समुद्र का जल न शीतल ही और न पीने योग्य।
चिन्ता करते बहुत देर हो गई तब आकाश से आवाज आई-”महात्मन्! तुम इतना भी रहस्य न समझ सके। यह नदियाँ लेती नहीं अपने पास जो कुछ है उसे देती भी रहती है। यह तो अपनी जल-राशि को छिपाये रखने का ही फल है कि समुद्र का जल खारी हो गया है जो अपनी शक्तियों” औरों को नहीं बाँटते मुनि! उनकी यही दशा होती है।”