अषाढ़ आया। बादल छा गये। एक दिन वर्षा प्रारंभ हुई। कई दिन तक झड़ी लगी रही। धरती जल मग्न हो गई तब बादल साफ हुये।
भरपूर जल पीकर धरती की गोद से अनेक तरह के पौधे गृहस्थ की कामनाओं की तरह फूट पड़े। एक स्थान पर हजारों पौधे खड़े अपनी हरीतिमा से सबको मुग्ध करने लगे अनेक जाति के अनेक पौधे-कोई आम, कोई नीम, इमली पाकर और जामुन तो केले, महुए और सहतूत के भी पेड़ उनमें थे। विवशता में ही हरियाली का एकपन बड़ा सुन्दर लग रहा था।
पर दूसरों को सुन्दर लगने वाले वह पौधे अपने आप में ही लड़ पड़े कोई कहता है मैं अधिक हूं कोई कहता मेरी छाया ज्यादा घनी है। शाम तक विवाद तेज ही होता गया। हाथापाई की नौबत आ गई रात उन्होंने अशान्ति में गुजारी ?
छः महीने ऐसे ही ईर्ष्या-द्वेष में बीते और उधर फिर ज्येष्ठ तपने लगा। सूर्य भगवान की प्रचंडता में सारे पौधे सूखकर पीले पड़ गये। अन्तकाल निकट आ गया। साथियों से बिछुड़ने की घड़ी आई तब पौधों को पता चला कि इतनी उम्र व्यर्थ ही लड़ने झगड़ने में गुजारी। पौधे मर तो गये पर एक संकल्प लेकर अगला जन्म होगा तो वे इस तरह परस्पर लड़ेंगे झगड़ेंगे नहीं।
तब से पौधे उगते है पर परस्पर प्रेमपूर्वक बढ़ते और जीवन भर हँसते खेलते, सौरभ फूल और फल बिखेरते रहते है, अब उनका अभिनन्दन शाप मनुष्य पर उतर आया है। यह जीवन भर लड़ता झगड़ता है और मरते समय पछताता हुआ जाता है।