विश्वात्मा ही परमात्मा

June 1969

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वैज्ञानिक और योगी-दो भाइयों ने सत्य की खोज का निर्णय किया। वैज्ञानिक ने विज्ञान और योगी ने मनोबल के विकास का मार्ग अपनाया। एक का क्षेत्र विराट का अनुसंधान था और दूसरे का अंतर्जगत्। दोनों ही पुरुषार्थ थे, अपने-अपने प्रयत्नों में परिश्रमपूर्वक जुट गये।

वैज्ञानिक ने पदार्थ को कौतूहल की दृष्टि से देखा और यह जानने में तन्मय हो गया कि संसार में फँसे हुये यह पदार्थ कहाँ से निकले है। योगी ने देह को आश्चर्य से देखा और यह विचार, संकल्प और भावनायें कहाँ से आती है? उसकी शोध में दत्तचित्त संलग्न हो गया।

वैज्ञानिक और योगी बढ़ते गये, बढ़ते गये। रुकने का एक ने भी नाम नहीं लिया। पर हुआ यह कि वैज्ञानिक विराट् के वन में भटक गया और योगी शरीर के अंतरजाल में। दोनों को विविधता, बहुलता और विलक्षणता के अतिरिक्त कुछ दिखाई न दिया।

हाँ अब वे एक ऐसे स्थान पर अवश्य जा पहुँचे जहाँ विश्वात्मा अपने प्रकाश रूप में निवास करती थीं। गोद से भटके हुये दोनों बालको को जगत्जननी जगदम्बा ने अपने आँचल में भर लिया। वैज्ञानिक ने कहा-माँ! तुम ज्योतिर्मयी हो और योगी ने उसे दोहराया माँ। तुम दिव्य प्रकाश हो!

माँ ने कहा-’तात्! मैं अन्तिम सत्य नहीं हूँ। मैं भी उन्हीं तत्वों से बनी हूँ, जिनसे तुम दोनों बने हो। मैं प्रकाश धारण करती हूँ, प्रकाश नहीं हूँ। मैं स्वर चक्षु और घ्राण वाहिका हूँ पर स्वर, दृश्य और घ्राण नहीं हूँ। तुम्हारी तरह मैं भी उस चिर प्रकाश की प्रतीक्षा में खड़ी हूँ, जो परम प्रकाश है, परम सत्य हैं पर मैंने उसे प्राप्त करने का प्रयत्न नहीं किया। मैं तो इस प्रयत्न में हूँ कि उस सत्य के जो भी बीज सृष्टि में बिखरे पड़े हैं, वह मुरझाने न पायें। अपने पुत्रों की इसी सेवा सुश्रूषा में अपने सत्य को भूल गई हूँ। मुझे तो एक ही विश्वास है कि वह इन्हीं बीजों में बीज रूप से छुपा हुआ है, इनकी सेवा करते-करते किसी दिन उसे पा लूँगी तो मैं भी अपने को धन्य समझूँगी।” विश्वात्मा को प्राप्त कर वैज्ञानिक और योगी दोनों ही आनन्द मग्न हो गये। और स्वयं भी उसी की सेवा में जुट गये।

-जाबालि,


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