महान् मानव जीवन का सदुपयोग

June 1969

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मानव-जीवन परमपिता का दिया हुआ एक बहुमूल्य उपहार है। इसकी तुलना में संसार का जन्म कोई भी साथी खड़ा नहीं हो सकता। मनुष्य वृष्टि का सर्वोपरि प्राणी और सबका शिर–मौर है। यह मानव जीवन चौरासी लाख-दोषियों में भ्रमण एवं भोग करने के बाद मिला है। इसके बाद यह भी निश्चित नहीं कि अब यह दुबारा मिलेगा भी या नहीं। सृष्टि में जल, थल और नभचारी असंख्यों जीभ पाये जाते है। सबको परमात्मा ने बनाया है। लेकिन उनसे जो विशेषतायें मनुष्य को दी है, वे संसार के किसी दूसरे प्राणी को नहीं दीं। उसने मनुष्य को व्यवस्थित रूप से बोलने के लिये जिह्वा और भाषा प्रदान की। सूक्ष्म से सूक्ष्म कलात्मक काम कर सकने के लिये सक्षम हाथ-पैर दिये है। अनन्त शक्तियों से घिरा हुआ खरीद यन्त्र दिया। उसने उसे बुद्धि और विवेक की अनुपम चेतना दी है, जिसके बल पर वह एक से एक विलक्षण काम कर सकता है। यह परमात्मा की कृपा की हुई विशेषतायें ही तो है, जिनके बल पर मनुष्य इतने बड़े-बड़े निर्माण कर सका, वैज्ञानिक और आध्यात्मिक आविष्कार करने में सफल हो सका।

संसार का सुविकसित साहित्य, परिष्कृत कलायें और उच्चकोटि के झिस्य मनुष्य की उस विशेषता के ही प्रतीक है, जो उसे परमात्मा की ओर से मिली है। अन्न का खत्मावन और बच्चों का निर्माण एक मनुष्य को छोड़कर संसार का अन्य कौन प्राणी करता है। खनिजों की सम्पत्ति और पंच-तत्वों का जैसा उपयोग अन्य कौन-सा प्राणी कर सकता है, जैसा कि यह मानव प्राणी कर रहा है। यह लाभकर व्यवसाय और वे कावेरी उधोग सिपाय मनुष्य के ओर किस प्राणी की क्षमता है जो चला सके। जहाँ जन-जीव जल में, स्थल प्राणी स्थल में और नभचारी हवा में ही उड़ सकते है, वहाँ मनुष्य ने अपने विघा-बल से ऐसे सावन उपलब्ध कर लिये है कि उसके लिये जल, थल और नभ तीनों स्थानों गतिगम्य बन गये हैं।

इन बाह्य विशेषताओं के अतिरिक्त ईश्वर ने अपने प्यारे पुत्र मनुष्य को आन्तरिक विशेषतायें भी कुछ कम नहीं थी है। मनुष्य के विकास, प्रेम, हवा, सहानुभूति, अनुभूति, संवेदना, स्नेह और आत्मीयता के शुद्ध किस प्राणी में पाये जाते है ? साहस, वीरता, उत्साह, धैर्य और सहनशीलता की विशेषतायें एक मानव को छोड़कर किसी अन्य प्राणी को नहीं मिली। आत्मा का बोध और परमात्मा के ज्ञान के साथ पारिवारिकता, सामाजिकता और राष्ट्रीयता का भाव केवल एक मनुष्य की ही विशेषता है। अन्य प्राणियों में इस भाव का सर्वथा अभाव है पाया जाता है। मनुष्य सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी और परमात्मा का सबसे अधिक प्यारा पुत्र है। मानव-जीवन बड़ा ही दुर्लभ और मूल्यवान् है। इस सत्य को कभी भी न भूलना चाहिये।

किन्तु परमात्मा का यह परम अनुग्रह निरुद्देश्य नहीं है। इस विशेषतापूर्ण मानव-जीवन का महान उद्देश्य भी है। यह वह कि संसार में पुरुषार्थ करे, अपनी वर्तमान स्थिति से ऊँचा उठता और आगे बढ़ता चले। इतना बड़े और चढ़े कि एक दिन उस परमपिता की गोद में पहुंच जाये जिसकी गोद से उतर कर वह संसार की रंक-स्थली में आया है। किन्तु उस उन्नति की परमावधि सहसा प्राप्त नहीं हो सकती। उम्र पर पहुँचने के लिये उसके पूर्व के तीन और सोपानों पर पदार्पण करना होगा। वे है धर्म, अर्थ और काम। इन तीन सोपानों को पार करने के बाद ही मनुष्य मोक्ष नामक परम-पथ पर पहुँच सकता है। जीवन में इन अपवर्गों की सिद्धि ही उनका आरोहण माना गया है।

जीवन में धर्म की सिद्धि का आश्रय है अपने भीतर-बाहर पवित्रता और पुण्य की स्थापना करना। धर्म का वास्तविक रूप केवल पूजा-पाठ रखने करते रहना नहीं है। वह तो धर्म की ओर बढ़ने का एक उपाय है। धर्म का वास्तविक रूप है, परमार्थपूर्ण आध्यात्मिक जीवन। परसेवा, परोपकार, दया, करुणा, उदारता, सत्य आदि गुणों का विकास ही अध्यात्म है और दान-दाक्षिण्य, सहायता, सहयोग, प्रेम और आत्मीयता आदि की सक्रिय अभिव्यक्ति को परमार्थ कहा गया है। धर्म के नाम पर कुछ परमार्थ कर उसके बदले में बड़ा सा लाभ उठाना धर्म नहीं, धर्म के रूप में अधर्म ही है जो कुछ परमार्थ अथवा परोपकार किया जाय, वह निःस्वार्थ एवं निर्लोभ भाव से किया जाय तब ही उसके धर्म की प्राप्ति हो सकती है।

इस प्रकार अपने को धर्मस्थ बनाकर मनुष्य को अर्थ के क्षेत्र में आकर उसका प्रमाण देना चाहिये। अर्थ की सिद्धि का तात्पर्य केवल ढेर सा पैसा कमा लेना नहीं है। पैसा चाहे थोड़ा कमाया जाए अधिक लेकिन वह कमाया सत्य, शुभ और शालिन प्रकार से। इस प्रकार सरलतापूर्वक विधि कमाया हुआ धन ही अपवर्गीय अर्थ परिधि में आता है। तथापि यह उसका एक पक्ष ही है। अर्थ का दूसरा पक्ष है व्यय। धन कमाया तो शुभ विधियों से जाय किन्तु उसका व्यय अशुभ विधि से किया जाय तब भी वह अपवर्गीय पंक्ति से अपदस्थ माना जायगा।

धन का जिस पवित्र प्रकार से कमाया जाय, उसका व्यय भी पवित्रतापूर्वक किया जाय। जो व्यक्ति अपने धर्म को निरर्थक प्रदर्शन, व्यसनों अथवा अनुपयोगी बातों से व्यय करते है, वे उसकी पवित्रता लांछित कर डालते है। विद्या-वृद्धि, परोपकार, परमार्थ और धर्म के साथ-साथ अपने स्वास्थ्य, परिवार के कल्याण और समाज के हित के लिए व्यय किया जाना वाले धन पूरी तरह से पवित्र होकर अपवर्गीय अर्थ बनता है।

कामनायें, इच्छायें और आकांक्षायें मनुष्यता का विशेष लक्षण है। वे मानव प्रगति के लिये आवश्यक भी है। क्योंकि उनकी प्रेरणा से ही मनुष्य उद्योग और पुरुषार्थ में प्रवृत्त होता है। यदि मनुष्य आकांक्षाओं से रहित हो जाय तो उसकी प्रगति ही रुक जाये। किन्तु सभी कामनायें अपवर्गीय काम की सीमा में केवल वही कामनायें आती है, जो आदि, मध्य और अन्त तीनों रूपों में पवित्र हों। धनवान् बनने की कामना बुरी नहीं यदि उनका उदय देखा-देखी, स्पर्धा, लोभ अथवा ईर्ष्या से न होकर स्वयं आत्म-प्रेरणा से हुआ हो। उसकी पूर्ति के मध्यकाल में अनुचित अथवा अनैतिक साधन न अपनाए गए हो और उसकी पूर्ति के बाद अर्थात् धनवान् बन जाने के बाद उसका मद अथवा अहंकार न पैदा हो और उसका यापन अपना, परिवार का, समाज और संसार का हित करने के लिये ही किया जाये।

दाम्पत्य जीवन की कामना पूरी नहीं यदि उसका उद्देश्य काम भोग ही न हो। यदि उसका उद्देश्य काम भोग है। और उसकी प्रेरणा विषय-वासनाओं की इच्छा से मिली है तो वह कामना दूषित है और अपवर्गीय काम के खाते में न लिखी जायगी। इसके विपरीत यदि उसकी प्रेरणा सृष्टि संपादन के कर्त्तव्य से मिली है और उसका उद्देश्य प्रेम का अमृत दाना और संसार को, संतान के रूप में अच्छे नागरिक देना है तो यह काम-कामना निश्चित रूप से अपवर्गीय काम की परिधि में गिनी जायेगी।

इस प्रकार धर्म पाकर, अर्थ कमाकर और कामनाओं की पूर्ति कर जो मनुष्य संसार से उऋण हो जायेगा, वह स्वभावतः परमात्मोन्मुख हो जायेगा, आध्यात्मिक जीवन के साथ पूर्ण काम हो जाने पर, लिप्सा, माथा और मोह से तृप्त हो जाने वाले पुरुषार्थी की अन्तिम गति मोक्ष के सिवाय और कुछ ही ही नहीं सकती। निश्चय ही वह संसार से तृप्त होकर उस परम-पद, परमात्मा की गोद में वापस चला जायेगा जहाँ परमानन्द और चिदानंद के सिवाय और कुछ नहीं है।

यह है मानव जीवन की विशेषता, महत्व और उद्देश्य किन्तु हममें से कितने ऐसे हैं, जो इस महिमा, इस गरिमा ओर इस महत्व को अपने जीवन में चरितार्थ करने का पुण्य प्रयत्न करते है। खेद है कि ऐसा सुरदुर्लभ मानव जीवन पाकर भी मनुष्य पशुओं से भी गया-बीता जीवन चला रहा है। जिसका स्वरूप और उद्देश्य दोनों ही चिदानन्दमय है वह काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या-द्वेष, लड़ाई-झगड़े, अपराध और पापों की आग में जल-जलकर आत्म-हत्या कर रहा है। कभी उसे निराशा घेरती है कभी चिन्ता जलाती है, न कभी निरुत्साह गिरा देता है तो कभी कायरता मार डालती है। उसने अपने विचारों ओर आवरणों से धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के सारे उद्देश्य नष्ट कर डालते है और इस प्रकार कीट-पतंगों की निकृष्ट योनि में डालने की तैयारी कर ली है। मानव-जीवन में कहाँ कीट-पतंगों की योनि।

जिन चौरासी लाख अधम योनियों की यातना भोग कुछ मनुष्य इस महान् सम्भावनाओं से भरे मानव-जीवन में आया है और जिसके माध्यम से वह मोक्ष पा सकता है उससे ‘लख चौरासी’ में फिर वापस चला जाना कितनी भयानक, कितनी विकट, वीभत्स और निकृष्ट असफलता है। मनुष्य को यह हानि सोचकर सहसा रोमाँच हो जाता है और इच्छा होती है, उसके इस अज्ञान और अभाग्य पर आंसू बहाये जायें।

मनुष्य के इस पतन का एक मात्र कारण यही है कि वह अपने सत्य स्वस्थ पर प्रतीति नहीं कर पा रहा है। वह भी अपने को संसार के अन्य प्राणी और जीवों की भाँति एक साधारण जीवन ही मानता है और उसी के अनुसार कमाना-लाना और निरुद्देश्य बच्चे पैदा करना अपना लक्ष्य मानता है। कितना कल्याण कर होता, यदि मनुष्य एक बार अपने इस सच्चे स्वरूप की प्रतीति कर उसके अनुसार ही अपना जीवन चलाता और अपना लक्ष्य बनाता कि-वह अखण्ड, आनन्द रूप, सर्वज्ञ, सर्वसमर्थ और निर्विकार परमात्मा का अंश और उसका प्रिय पुत्र है। वह शरीर रूप नहीं, बल्कि नित्य, शुद्ध, मुक्त और प्रकाश रूप आत्मा है। सारा दृश्य, अदृश्य, सत्य, शिव और सुन्दर उसका अपना अधिकार है। वह संसार में इस प्रकार विकारों, विकृतियों और दोषों के वशीभूत होकर निकृष्ट जीवन जीने और निम्नकोटि की मौत मरने नहीं आया है। यह आया है धर्म, अर्थ, काम के तीन सोपान चढ़कर अपने परम-पद मोक्ष की प्राप्ति करने के लिये।

भाव वीथियों के मोहमय अन्धकार में भटकने वाले मनुष्य को अभी, आज ही यहीं पर रुक जाना चाहिये और विचार करना चाहिये कि वह गया है, कौन है और किस उद्देश्य से इस संसार में आया है। मानव-जीवन का महत्व क्या है, उसकी विशेषतायें क्या है, उसकी शक्तियाँ कितनी ओर किस सीमा की है। निश्चय ही ऐसा करने पर उसके सत्य-स्वरूप और यथार्थ लक्ष्य का ज्ञान होगा। अपनी वर्तमान स्थिति पर उसे खेद ही नहीं लज्जा भी होगी और वह अपने को सुधारने और सत्पथ पर लाने का प्रयत्न आरम्भ कर देगा।

कोई चिन्ता नहीं यदि अब तक का मार्ग ठीक नहीं रहा है। आज ही उसे बदल दीजिये और अकरणीय के स्थान पर करणीय कर्त्तव्य में प्रवृत्त हो जाइये। अर्थ, धर्म, काम का अपवर्गीय स्वरूप समझें और उसी के अनुसार उनका उपार्जन करते चलें-सारा बिगड़ा काम बन जायेगा। अब भी देर नहीं हुई है, समय है, किन्तु आज अभी से ही यह परिवर्तन आरम्भ कर देना चाहिये, नहीं तो इसके बाद देर हो जायेगी और तब अन्त समय में पछताने की सिवाय और कुछ भी हाथ न आयेगा।


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