वेदान्त की अपूर्व महनीयता- ‘एकोब्रह्म द्वितीयोनास्ति’

June 1969

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काष्ट, हेवल, प्लेटो एरिस्टाटल आदि प्रकृति विद्वान् यह स्वीकार करते हैं कि एक ऐसी सत्ता हैं, जो ब्रह्मांड की रचयिता है या स्वयं ब्रह्मांड है किन्तु इनमें से किसी ने भी पूर्ण विचार देने में अपने आपको समर्थ नहीं पाया। संसार में जितने भी धर्म हैं, वह सब ईश्वरीय अस्तित्व को मानते है। प्रत्येक धर्म अपने ब्रह्म के प्रतिपादन में अनेक प्रकार के सिद्धान्त और कथायें प्रस्तुत करते हैं, किन्तु उस सत्ता का सविवेक प्रदर्शन इनमें से कोई नहीं कर सकता, तथापि वे उच्च सत्ता की सर्वशक्तिमत्ता पर अविश्वास नहीं करते।

ईश्वर सम्बन्धी अनुसन्धान की वैज्ञानिक प्रक्रिया डार्विन से प्रारम्भ होती है। डार्विन एक महान् जीव-शास्त्री थे, उन्होंने देश-विदेश के प्राणियों, पशुओं और वनस्पतियों का गहन अध्ययन किया और 1859 एवं 1871 में प्रकाशित अपने दो ग्रन्थों में यह सिद्धान्त स्थापित किया कि संसार के सभी जीव एक ही आदि जीव के विकसित और परिवर्तित रूप हैं। उन्होंने बताया-संसार में जीवों की जितनी भी जातियाँ और उपजातियाँ हैं, उनसे बड़ी विलक्षण समानतायें और असमानतायें हैं। समानता यह कि उन सभी की रचना एक ही प्रकार के तत्व से हुई है और असमानता वह है, उनकी रासायनिक बनावट सबमें अलग-अलग है। आनुवांशिकता का आधार रासायनिक स्थिति है, उसकी प्रतिक्रिया में भाग लेने वाली क्षमता चाहे कितनी सूक्ष्म क्यों न हो।

इसके बाद मेंडल, हालैण्ड के हयू गो द व्री ने भी अनेक प्रकार के प्रयोग किये और यह पाया कि जीव में अनुवाँशिक-विकास माता-पिता के सूक्ष्म गुण सूत्रों (क्रोमोसोम) पर आधारित है। हार्वर्ड यूनिवर्सिटी (अमेरिका) के डा. फ्रांसिस क्रिक ने भी अनेक प्रयोगों द्वारा शरीर के कोशों (सेल्स) की भीतरी बनावट का विस्तृत अध्ययन किया और गुण सूत्रों (क्रोमोसोम) की खोज की। जीन्स (गुण सूत्रों में, एक प्रकार की गांठें) उसी की विस्तृत खोज का परिणाम है। इन वैज्ञानिकों ने बताया कि मनुष्य शरीर में डोरे की शकल में पाये जाने वाले गुणसूत्रों को यदि खींचकर बढ़ा दिया जाये तो उनसे सम्पूर्ण ब्रह्मांड को नापा जा सकता है। अब हमारे अधिक और मूलस्रोत की जानकारी वैज्ञानिक नहीं लगा पाये जब से उनकी खोजों की दिशा और ही है। उस एक अक्षर, अविनाशी और सर्वव्यापी तत्व के गुणों का पता लगाना उनके लिये सम्भव न हुआ, जो प्रत्येक अणु में सृजन या विनाश की क्रिया में भाग लेता है। हाँ, इतना अवश्य हुआ कि वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध कर दिया कि-

सारा जीव जगत एक ही तत्व से विकसित हुआ है, गुणों के आधार पर जीवित शरीरों का विकास होता है।

यद्यपि यह जानकारियाँ अभी नितान्त अपूर्ण हैं तो भी उनसे मनुष्य को सत्य की यथार्थ जानकारी के लिये प्रेरणा अवश्य मिलती है। ‘कंटेम्प्रेरी थट ऑफ ग्रेट ब्रिटेन’ के विद्वान् लेखक ए॰ एन॰ बिडगरी लिखते हैं-”वे तत्व जो जीवन का निर्माण करते हैं और जिनकी वैज्ञानिकों ने जानकारी की हैं, उनमें यथार्थ मूल्याँकन के अनुपात में बहुत कमी हैं, आज आवश्यकता इस बात की है कि साँसारिक अस्तित्व से भी अधिक विशाल मानवीय अस्तित्व क्या है, इसका पता लगाया जायें। विज्ञान से ही नहीं, बौद्धिक दृष्टि से भी उसकी खोज की जानी चाहिए। हमारा भौतिक अस्तित्व अर्थात् हमारे शरीर की रचना और इससे सम्बन्धित संस्कृति का मानव के पूर्ण अस्तित्व से कोई तालमेल नहीं है। इससे हमारी भावनात्मक संतुष्टि नहीं हो सकती, इसीलिये हमें जीवन के मूलस्रोत की खोज करनी पड़ेगी। अपने अतीत और भविष्य के बीच थोड़ा-सा वर्तमान हैं, क्या हमें उतने से ही संतोष मिल सकता हैं, हमें अपने अतीत की स्थिति और भविष्य में हमारी चेतना का क्या होगा, इस संसार में क्यों हैं और क्या कुछ ऐसे आधार है जिनसे बँधे होने के कारण हम संसार में हैं, इनकी खोज होनी चाहिये।” इन पंक्तियों में वही बात प्रतिध्वनित होती है, जो ऊपर कही गई है। विज्ञान ने निष्कर्ष भले ही न दिया हो पर उसने जिज्ञासा देकर मनुष्य का कल्याण ही किया है। ‘अघातो ब्रह्म जिज्ञासा’ ब्रह्म की पहचान के लिये हम तभी तत्पर होते हैं, जब उस मूलस्रोत के प्रति हमारी जिज्ञासा जाग पड़ती है।

इस बिन्दु पर पहुँचकर हम कह सकते हैं कि ब्रह्मविद्या का अर्थ और इति दोनों ही वेदान्त धर्म में बहुत पहले से है। ‘एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति’ एक नूर से सब जग उपजिया’ ‘संकल्पयति यन्नाम प्रथमोऽसौ प्रजापतिः, दत्तवेदाधु महति तस्येंदं कल्पनं जगत्। (योग-घनिष्ठ 6/2/186/6), सृष्टि के आदि में एक ब्रह्मा ही था, उसने जैसे-जैसे संकल्प किया, वैसे-वैसे यह कल्पना जगत् बनता गया। ‘एक मेवाद्वयं ब्रह्म’ (छान्दोग्य 6/2/1) वही एक अद्वितीय और ब्रह्म होकर विराजता है।

‘एकोदेवः सर्वभूतेषु गूडः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा। कर्माध्यक्षः सर्वभूताचिवासः साक्षी चेता वेवलोनिर्गुणश्च।

श्वेताश्व-6/11,

वही एक देव सब भूतों में ओत-प्रोत होकर सबकी अन्तरात्मा के रूप में सर्वत्र व्याप्त हैं, वह इस संकल्प शरीर का अध्यय है। निर्गुण होते हुए भी चेतना शक्तियुत है। पूर्व में क्या किया हैं, अब क्या कर रहा है, जीव की इस संपूर्ण क्रिया का साक्षी वही हैं, वही सब भूतों में प्राण धारण करके जीव रूप से वास करता है।

उपरोक्त व्याख्यानों और पश्चात् वैज्ञानिकों की इस खोज में कि-”संसार के समस्त पदार्थ एक ही तत्व से बने हुये हैं” जबर्दस्त साम्य है। वेदान्त के यह प्रतिपादन आज से लाखों वर्ष पूर्व लिखे गये हैं, इसीलिये जब हम अकेले वेदान्त को कसौटी पर लाते हैं तो उसकी परिपूर्णता और वैज्ञानिकता में कोई सन्देह नहीं रह जाता। जब तक वह एक था, तब तक ‘पूर्ण पर ब्रह्म’ था, जब वही अपनी वासनाओं के कारण जीव रूप में आया तो अद्वैत से द्वैत बना, जीव जब अपने साँसारिक भाव से अपने शाश्वत अंश और मूल ब्रह्म पर विचार करता है तो वही स्थिति ‘त्रैत’ कहलाती है। इसी का विकास और आत्मा को परमात्मा में लीन कर देने पर शरीरधारी की जो स्थिति होती हैं, वही विशिष्टा द्वैत के नाम से कहा गया है, इनमें न कही कोई भ्राँति हैं, न मत अनैक्य। वेदान्त ने यह प्रतिपादन प्रत्येक स्थिति के व्यक्ति की समझ के लिये किये हैं, वैसे सिद्धान्त में वह वैज्ञानिक मान्यताओं पर ही टिका हुआ है। कैवल्योपनिषद् में पाश्चात्य वैज्ञानिक मान्यताओं और अपने पूर्वात्म दर्शन को एक स्थान पर लाकर दोनों में सामंजस्य व्यक्त किया गया है और कहा है-

वत् परं ब्रह्म सर्वात्मा विश्वस्यायतमं महत्। सूक्ष्मात सूक्ष्मतरं नित्यं तस्वमेव स्वमेव तत्॥॥ 16॥

मणोरणीयामहमेव तद्वन्महानं विश्वमित्रं द्विचित्रम्। पुरातनोऽहं पुरुषोहमीशो हिरण्यमोऽहंशिवरुपमस्मि॥ 20॥

अर्थात्-जिस परब्रह्म का कभी नाम नहीं होता, जिसे सूक्ष्म यन्त्रों से भी नहीं देखा जा सकता जो इस संसार के इन समस्त कार्य और कारण का आधारभूत हैं, जो सब भूतो की आत्मा हैं, वही तुम हो, तुम वही हों। और “मैं छोटे से भी छोटा और बड़े से भी बड़ा हूँ, इस अद्भुत संसार को मेरा ही स्वरूप मानना चाहिये। मैं ही शिव और ब्रह्मा स्वरूप हूँ, मैं ही परमात्मा और विराट् पुरुष हूँ।”

उपरोक्त कथन में और वैज्ञानिकों द्वारा जीव-क्रोध से सम्बन्धित जो अब तक की उपलब्धियाँ हैं, उनमें पाव-रत्ती का भी अन्तर नहीं है। प्रत्येक जीव-क्रोध का नाभिक (न्यूक्लियस) अविनाशी तत्व है वह स्वयं नष्ट नहीं होता पर वैसे ही अनेक कोश (सेल्स) बना देने की क्षमता से परिपूर्ण है। इस तरह कोशिका की चेतना को ही ब्रह्म की इकाई कह सकते हैं, चूँकि वह एक आवेश, शक्ति या सत्ता है, चेतन हैं, इसलिये वह अनेकों अणुओं में भी व्याप्त इकाई ही है। इस स्थिति को जीव भाव कह सकते हैं पर तो भी उसमें पूर्ण ब्रह्म की सब क्षमतायें उसी प्रकार विद्यमान् हैं, जैसे समुद्र की एक बूँद में पानी के सब गुण विद्यमान् होते है। वैज्ञानिकों का मत है कि शरीर में 6 अरब कोशिकायें हैं, इन सबको सूक्ष्म चेतना की पूर्ण जानकारी वैज्ञानिकों को नहीं मिली पर हमारा वेदान्त उसे अहंभाव के रूप में देखता है और यह कहता है कि चेतना की अहंभाव की जिस प्रकार की वस्तु में रुचि या वासना बनी रहती हैं, वह वैसे ही पदार्थों द्वारा शरीर का निर्माण किया करता हैं, नष्ट नहीं होता वही इच्छायें, अनुभूति, संवेग, संकल्प और जो भी सचेतन क्रियायें हैं करता या कराता हैं, पदार्थ में वह शक्ति नहीं है। क्योंकि ब्रह्म दृश्य नहीं विचार है उसे ‘प्रज्ञान’ भी कहते है।

राकफेलर इंस्टीट्यूट (अमेरिका) में बेकाफ और स्टेनली ने जीवित और अजीवित पदार्थों का अन्तर बतलाने के लिये अनेक अनुसन्धान किये उन्होंने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि प्रत्येक अणु रासायनिक प्रक्रिया से स्वयं ही उत्पन्न होते हैं और बढ़ते हैं पर इसमें विचारणीय बात है कि अणु तभी उत्पन्न होते हैं, जब तक वे जीवित पदार्थ से सम्बन्धित रहते हैं। इसलिये जीवन की उत्पत्ति सिद्ध करने का प्रयास तो निरर्थक हैं, उससे तो हम इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि चेतना और जड़ दो मिश्रण वस्तुयें होकर भी गति या सक्रियता का मूल कारण चेतन ही है, उसकी क्षमताओं का विज्ञान अध्ययन नहीं कर सका, उसे केवल जड़-शक्ति की उपलब्धि हुई हैं, इसलिये विज्ञान जिन बातों को बताने में असमर्थ हैं, उसकी जानकारी के लिये संसार के सामने सिवाय इसके कि वह वेदान्त की शरण से और कोई दूसरा उपाय शेष नहीं रह जाता। जहाँ से पदार्थ विज्ञान की इति हो जाती हैं, उसके आगे मनोविज्ञान-अर्थात् आस्था और विश्वास का आशय लिये बिना मनुष्य ‘सत्यमेव’ की जानकारी प्राप्त नहीं कर सकता। हमें यह विश्वास करना ही होगा कि चेतना के गुण और स्वभाव पदार्थ से अलग है और उसकी जानकारी भावनात्मक आधार पर ही हो सकती है। भावनाओं को गहरा बनाने के लिये उपाय भले ही कुछ हों।

प्रत्येक जीव में स्वार्थपरायणता का कुछ न कुछ अंश अवश्य रहता है। इसमें स्वयं के प्रति प्रेम और आदर भी सम्मिलित हैं, यदि यह प्रश्न किया जा सकता है कि प्रोटोप्लाज्मा कहाँ से उत्पन्न हुआ तो यह भी पूछा जा सकता है कि वह स्वार्थ भाव कहाँ से आया? मानव की मूढ़ प्रवृत्तियों जैसे प्रेम, काम, अहंभाव की उत्पत्ति कैसे हुई। मनोविज्ञान उन्हें वंशानुगत सम्पत्ति के रूप में लेता हैं। उससे भी सीढ़ी दर सीढ़ी ऊपर चढ़े तो हम इसी निष्कर्ष पर पहुँचेंगे कि विकास की प्रक्रिया किसी एक बिन्दु से प्रारम्भ हुई है और तब यह भी मानना पड़ेगा कि वह चेतना आदि अन्त रहित हैं। जीव उसमें से समर्थ मात्र से पैदा होता रहता है, उससे मूल चेतना के अस्तित्व में न अन्तर आता है और न उसे कोई खतरा पैदा होता है।

वेदान्त उस मूल-स्वरूप की ही अधिक महत्व देता है और उसे प्राप्त करने को ही जीवन का लक्ष्य बतलाता है। वह अविनाशी, अक्षर सर्वव्यापी तत्व हैं, वह बड़ सम्पत्तियाँ हैं, जिसके पास होंगी, वह स्वर्ग से भी अधिक सुखी होगा। इच्छानुसार जहाँ चाहें पहुँच सके, जो भोग चाहे भोग सके उससे बढ़कर सुख क्या हो सकता है। वह स्थिति अन्तिम स्थिति है।

ब्रह्म एक भाव है और उसे भावनात्मक स्तर पर उतर कर ही प्राप्त कर सकते है और जब उसे पा लेते हैं, तब उस स्थिति से आनन्ददायक और प्राप्य कुछ रह नहीं जाता। यह प्रक्रिया हम अपने आपको प्रेम करने से प्रारम्भ करते है। यह प्रेम शरीर के माध्यम से करने लगते है तो वह अज्ञान की स्थिति हो जाती हैं, क्योंकि हमारा अपना स्वरूप चेतन तो है पर अदृश्य है उसे केवल विश्वास और अपने गुणों के अध्ययन और विकास के द्वारा ही प्राप्त कर सकते है। वेदान्त की इस सम्मति को मानने से ही ईश्वर-दर्शन की अगली जानकारियाँ सम्भव होंगी और उसके अतिरिक्त कोई उपाय भी नहीं है।


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