चन्द्रमा देवता-कुल 69 मील दूर

June 1969

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24 दिसम्बर सन् 68 को भारतीय समय के अनुसार रात दो बजे पहली बार मनुष्य में विशाल ब्रह्माण्ड के किसी दूसरे उपग्रह के गुरुत्वाकर्षण में प्रवेश किया। प्रातःकाल 6 बजने तक अमेरिका के तीन अन्तरित यात्री फ्रेंक दोरबैग, विलियम एर्न्डस और जैम्स लावेल में चन्द्रमा से कुल 25560 मील दूर थे। अब ये पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से पूर्णतया मुक्त थे, इस अवस्था में यदि अंतरिक्ष-यान में कोई खराबी आती तो वह पृथ्वी में न लौटकर चन्द्रमा की सतह में जा गिरता। यह यात्रा जितनी भयानक भरी मानवीय इतिहास में क्राँति आने वाली था, उतनी ही खतरनाक भी थी।

अनेक कीर्तिमानों के साथ ही इस अनोखी उपलब्धि में मनुष्य के उस मिथ्या अभिमान को भी तोड़ा हे कि वही सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी और मुखिया है। माना उसे बुद्धि कौशल प्राप्त है, किंतु तीन यात्रियों ने ऊपर पहुँच कर ब्रह्माण्ड के, सूर्योदय ओर चन्द्रमा आदि उपग्रहों के जिस रूप दर्शन किये उससे उन्हें भी सर्वप्रथम यही सूझा कि इतने बड़े व्यवस्थित संसार को मढ़कर तैयार करने वाला, उसका नियमन और संरक्षण करने वाला विराट् पुरुष तो कोई और ही है। शेष संसार केवल इसके दृश्य की कठपुतली है, इसलिये इन अन्तरिक्ष यात्रियों को भी वहाँ परमात्मा नहीं भूले- उन्होंने प्रार्थना की- हे प्रभु! तू मनुष्य को ज्ञान और सद्बुद्धि दे जिससे पृथ्वी पर सुख-शाँति बड़े राग-द्वेष और बुद्ध की विभीषिकायें मिटें।”

अन्तरिक्ष उड़ान का क्रम पिछले कई वर्षों से चल रहा है। सबसे पहले एलेग शेपर्ड अंतरिक्ष में 15 मिनट 22 सेकेंड रहे इसके बाद 1965 में 4 दिसम्बर से 18 दिसम्बर तक की उड़ान का सबसे बड़ा रिकार्ड भी अमेरिका का ही था। इस अवसर पर जैमिनी-10 सावेल और वार्मन को लेकर उड़ा था। इस उड़ान में 330 घण्टे का समय अंतरिक्ष में रहने का मिला था। तब यह घोषणा की गई थी कि तब यह दिन अधिक दूर नहीं, जब मनुष्य चन्द्रमा पर कदम रख देगा, यही वही एक दिन ऐडा आ जायेगा, जब सौर्य-कूल के दूसरे ग्रह थी मनुष्य के लिये पास-पास बसे गाँवों की तरह हो जायेंगे। अन्य सौर्य-मण्डलों और अनेक प्रकाश वर्षों की दूरी वाले ग्रह नक्षत्र भी पृथ्वी के विभिन्न महाद्वीपों, देशों, प्रान्त और जिलों की तरह हो जायेंगे।

सचमुच विज्ञान की यह बड़ी भारी उपलब्धि होगी। किन्तु उस दिन तक मनुष्य जीवन के संबंध में अब तक का सारा दृष्टिकोण उसी तरह बदल जायेगा, जिस तरह जब यह वह सोचने लगा है कि मनुष्य अनंत अन्तरिक्ष की तुलना में चींटी, मक्खी, मच्छर जैसा ही है। तब अंतरिक्ष में अनेक शक्ति स्त्रोतों में विकसित जीवन और ऐसी क्षमताओं से संयुक्त लोक-लोकान्तरों का भी परिचय मिल सकेगा, जो स्वर्गीय गुणों से परिपूरित होंगे और इस भारतीय दर्शन की प्रामाणिकता ही बडेगी। अन्तरिक्षीय विभाव विज्ञान तो उसके लिये सदैव से ही सामान्य बातें रही है। महाभारत युग तक ऐसी यात्रायें बिना रोक-टोक होती थी, महाभारत युद्ध के दौरान स्वयं अर्जुन और भगवान् श्रीकृष्ण के चन्द्रारोहण का वर्णन पौराणिक ग्रन्थों में मिलता है।

अपोलो 8 की यात्रा पुरातन इतिहास की आधुनिक आवृत्ति आज है और वह जितना अधिक वैज्ञानिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, उससे कही अधि आत्मिक दृष्टि से भी क्योंकि तब मनुष्य अमरत्न की कल्पना के और भी बडीय पहुँचेगा। चन्द्रमा में पहुँच कर भी यदि मनुष्य की मृत्यु हो सकती है, शुक्र पहुँच कर बुद्धि मनुष्य धरती पर लौट कर न आया तो उस हंसती-खेलती, चलती-फिरती श्रेष्ठता का अगला इतिहास क्या होगा, यह सोचने का अवसर मिलेगा। अध्यात्म की यह पहली सीढ़ियां है और इसी लिये इस यात्रा को हम अध्यात्म के दुलर्भठंग की पहली सीढ़ी मानते है। अपोलो-8, एक 36 मंजिला दानवाकार चन्द्राबाग 21 दिसम्बर 1968 को विशाल क्षमता वाले सैटर्ग .5 बस्टर राकेट के द्वारा आकाश की ओर उछाला गया। 363 फुट ऊँचा और 3100 टन वजन का विशालकाय भाग अपोलो .8-75 लाख पौंड़ शक्ति से 6000 मील प्रति घण्टा की रफ्तार से आकाश की ओर उड़ चला। इस वान में 50 लाख लाख छोटे-बड़े पुर्जे लगे थे। कोई भी पुर्जा अलग हो जाता तो चन्द्रयान या तो कही बीच में ही व्यस्त हो जाता, आग लग जाती या फिर वह पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से भटक कर सूर्य में चला जाता और जलकर व्यस्त हो जाता या फिर किसी और ग्रह में लिखा चला जाता। भगवान् जाने यह स्थिति कैसी होता, पर तो भी मनुष्य की वीरता की सराहना ही की जायेगी जो वह अपने जीवन की परवाह न करके सत्य और तथ्य की खोज में निकल पड़ता है। माया-मोह, आसक्ति, राग-द्वेष के बन्धनों से मुक्त ऐसे ही साहसी विज्ञानियों के लिये भगवान् ने ज्ञानी से कोहि प्रिय विज्ञानी’ कहकर स्नेह किया है।

एक निश्चित ऊँचाई पर पहुँचकर अपोलो 8 की शक्ति ने ह्रास अनुभव किया तब द्वितीय चरण के 5 इंजनों का विस्फोट हुआ, जिससे 11 लाख 25 हजार पाउण्ड की नई शक्ति मिली, यान की आकृति कुछ छोटी हो गई पर अब वह 14000 मील प्रति घण्टा की उड़ान से उड़ रहा था, 4 मील की दूरी तय करने में उसे 1 सेकेंड के लगभग समय लग रहा था। इस गति से वह 119 मील की ऊँचाई पार करने में समर्थ हुआ। अब तीसरे चरण के ईधन का विस्फोट हुआ और उससे 2 लाख 25 पाउण्ड की नई शक्ति पाकर वह 17400 मील प्रति घण्टा की गति से आगे बढ़ने लगा। बीच निर्धारित यात्रा पथ के एक डिग्री से हमारवें हिस्से के लगभग अन्तर पड़ा होगा, यदि पृथ्वी का नियंत्रण केन्द्र (कन्ट्रोल) उसे नियंत्रित नहीं करता, तो इतनी विषमता ही चन्द्रयान को कहीं और पहुँचा देती। जब सब कुछ ठीक हो गया तो पृथ्वी से संदेश दिया गया- तुम लोग ठीक यात्रा कर रहे हो’ उत्तर में नियंत्रण अधिकारियों को धन्यवाद भी मिला। अन्तरिक्ष यात्रियों और नियंत्रण अधिकारियों के बीच संसार व्यवस्था ठीक काम कर रही थी,

तीसरा चरण समाप्त होने के साथ यान पृथ्वी के परिक्रमा पथ पर पहुँच चुका था। एक बार फिर में चंद्रयान की याँत्रिक परीक्षा की गई। इस बीच वह पृथ्वी की परिक्रमा करता रहा। जब सब ठीक पाया जाय तो चौथे चरण के इंजिन चालू किये गये। यह सबसे माजुक समय था, जब चन्द्रयान ने झटका खाया और 24200 मील प्रति घण्टा की गति से पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति से बाहर शून्य गुरुत्वाकर्षण (न्यूट्रल पाइन्ट) में पहुँच गया।

23 दिसम्बर को 120000 मील से भी अधिक दूर पहुँचे हुये चन्द्रयान के टेलीविजन दृश्य दिखाये गये। चन्द्र यात्री पृथ्वी पर उल्टे खड़े दिखाई दे रहे थे। यात्रा-वार्ता (रनिंग कवेन्ट्री) में बौरर्मग ने बताया- “वे ओजन तैयारी में है, देखिये वह चाकलेट का पैकेट निकाल रहा और आप देख ही रहे होंगे कि वहाँ कैसी भारहीनता है, यह जो चाकलेट का टुकड़ा हवा में तैर रहा है। वैसे इसमें बिल्कुल वजन नहीं है। तभी ‘एण्डंर्स’ में अपना टुथ ब्रुश उछाला- “आप यह खेल देख रहे है।” इसी बीच सावेन कैमरे के सामने आया और उसने अपनी माँ को उनके 75 में जन्म दिन के उपलक्ष में शुभ कामनायें भंड की।”

जोखिम के क्षणों में भी हास-परिहास का यह क्रम भी मनुष्य की एक अहं-समस्या का संकेत है। हम कुछ भी करे, कहीं भी रहे पर आनन्द और सुख की इच्छा से वंचित नहीं हो पाते। अन्तरिक्ष में भी जब उसकी खोज हुई तो ऐसा लगा कि मनुष्य की तमाम समस्याओं का कारण उसकी सुखी और आनन्दित रहने की इच्छा ही है, इसे सब जानते है पर सुख का स्त्रोत कहाँ है, वह बहुत कम लोग ढूंढ़ते और ढूंढ़ने वालों में बहुत कम उसे पाते है, अधिकाँश तो बाह्य-विज्ञान में ही भटकते है। दरअसल जब तक मनुष्य अपने आपको नहीं जानता शरीर के स्थूल इण्यों से ध्यान हटाकर चेतन-आत्मा की शोष और विकास नहीं करता, तब तक यह इच्छा अधूरी ओर भटकाने वाली ही रहती है। सम्भव है, यह अन्तरिक्ष यात्रा कुछ लोगों को यह आत्म-प्रबोध भी कराये।

पर यहाँ तो अब चन्द्रयान अपनी यात्रा के सर्वाधिक जटिल मुहाने पर जा चुका था। चौथे चरण का विस्फोट हुआ, इस इंजन से यान 50 फुट आगे जाकर उलट गया और दोनों आमने-सामने आ गये, इंजन के बचाने वाले यन्त्र (पेन से) अलग हो गये और उसके आगे रखा हुआ ‘डमी स्थूनर माड्यूक’ सामने आ गया। अन्तरिक्ष यात्रियों ने उसका अध्ययन किया। संसार बड़ा विचित्र लग रहा था। सूर्योदय का दृश्य कुछ और ही था किसी ने पूछा तो उन्होंने बताया- ‘अभी नहीं पृथ्वी पर लौटेंगे तो एक निबन्ध लिखेंगे।” तात्पर्य यह कि जो कुछ अन्तरिक्ष यात्रियों के मस्तिष्क में है, यह सबका सब यहाँ लिखा और बताया न जा सकेगा, क्योंकि वहाँ सब कुछ स्थूल और शाब्दिक ही नहीं भावनात्मक भी होगा, जिसे चाह कर भी अन्तरिक्ष यात्री शब्दों में व्यक्त न कर सकेंगे।

8000 फीट आगे बढ़ने पर अपोलो उसी से अलग हो गयी, तब चौथे इंजन का शेष ईधन भी काम आ गया और वह इंजन सूर्य का ही उपग्रह बनकर चक्कर काटने लगा और अपोलो-8 अकेले ही चन्द्रमा की ओर आगे बड़ा। उसके कई खण्ड अलग हो जाने से अब वह काफी हल्का भी हो गया था। चन्द्रमा के गुरुत्वाकर्षण में उससे 30000 मील दूरी पर पहुँच जाने पर मान गति कल 2170 मील प्रति घण्टा रह गई थी, पर गुरुत्वाकर्षण के भीतर पहुँच जाने के कारण यह फिर बड़ी और पश्चिम छोर तक पहुँचने पर 5720 मील प्रति घण्टा हो गईं पृथ्वी अभी भी दिखाई दे रही थी, यह हरे-भरे नखलिस्तान सी दिखाई दे रही थी। यहाँ क्या हो रहा है, उसकी कल्पना भी न की जा सकती थी, क्योंकि हजारों मील व्यास वाली पृथ्वी अब एक छोटी-सी गेंद भर लग रही थी। तीनों अंतरिक्ष यात्री अनुभव कर रहे थे कि मनुष्य का ज्ञान भी कितना सीमित है कि अब तक हम जहाँ रह रहे थे, अब यही ऐसी दिखाई दे रही है, जैसे वहाँ कुछ हो ही नहीं। न जाने ऐसे कितने विलक्षण जगत् इस ब्रह्माँड में विद्यमान होंगे।

यान के इंजन फिर चाल हुए और उसने चन्द्रमा की परिक्रमा करनी प्रारम्भ कर दी, पहली बार जब यान चन्द्रमा के पृष्ठ भाग पर पहुँचा तो एक बार पृथ्वी की उत्सुक निगाहों से स्तब्धता छा गई। क्योंकि अच्छे से अच्छे संचार-प्रबन्ध के बावजूद भी अब कुछ न दिखाई दे रहा था, न कुछ दूर संचार (टेली पैथी) का ही क्रम बन रहा था। सारा संसार स्तब्ध था। चन्द्रमा के पृष्ठ भाग में यान की पता नहीं क्या स्थिति है घण्टे भर की व्याकुल प्रतीक्षा के बाद जैसे ही यान के दृश्य भाग पर आया रेडियो सम्बन्ध फिर स्थापित हुये। अमेरिकन ही क्या सारी मानव-जाति इस प्रसन्नता पर प्रसन्नता से नाच उठी। यान ने 20 घण्टे में ऐसे 10 चक्कर चन्द्रमा के लगाये और उसे निकटतम 61 मील की दूरी से देखा।

25 दिसम्बर को प्रातःकाल 11-40 पर चन्द्रयान ने पुनः दूसरा इंजन चालू कर पृथ्वी की ओर यात्रा की। 60-60 मील प्रति घण्टा की रफ्तार से यान पृथ्वी की ओर चल पड़ा 57 घण्टे बाद यान ने 24765 मील प्रति घण्टे की रफ्तार से पृथ्वी के वायु-मण्डल में प्रवेश किया। यह वेग ऐसा था कि मान से चिनगारियाँ उठती जान पड़ती थी। वायु घर्षण से इतनी ताप पैदा हो गई थी, जो प्लास्टिक की मोटी बाहर को जलाकर पानी कर सकती थी। 10000 फुट की ऊँचाई पर मान के मुख्य पैराशूट खुल गये और तीनों अन्तरिक्ष यात्री प्रशान्त महासागर पर सकुशल उतर आये। 6 दिन में यह महाअभियान पूरा हुआ।

जिस समय यह पंक्तियाँ लिखी जा रही है, रूस अपने सोयूज-5 के करतब दिखाकर अन्तरिक्ष में प्रयोगशाला स्थापित करने में सफल हो गया है। शीघ्र ही चन्द्रमा में उतर कर एक घण्टे में वहाँ की मिट्टी और कंकड़-पत्थर उठाकर लाने की उनकी योजना है। अमेरिका अपोलो-9 के द्वारा अप्रैल 69 में ही चन्द्रमा में उतरने की योजना बना रहा है। अपोलो-8 की 7 बीं चन्द्र-परिक्रमा के दौरान उसने सम्भावित स्थानों (वहाँ चन्द्रयान उतरेंगे) की खोज कर सी है। यहाँ के बहुत स्पष्ट फोटो भी ये साथ लाये है। तात्पर्य यह कि भय चन्द्रमा और पृथ्वी दोनों दो पड़ौसी रियासतों की तरह पास-पास आ गये है। पता नहीं किसी दिन यह आवागमन और भी सुविधाजनक और सरल हो जाये, जिससे सामान्य लोग भी वहाँ जाने लगे।

चन्द्रमा की इन चर्चाओं के साथ भारतीय मान्यताओं की चर्चायें और जुड़ रही है, लोग उपहास में कहते है यह जो हिन्दुओं के देवताओं के सिर मनुष्य जा चढ़ा है। यों बात कोई भी कुछ करे पर इस यात्रा से भारतीय दर्शन और उसके विराट् तत्वज्ञान की ही पुष्टि हुई।

देवता- (जो निरन्तर कुछ देता रहे) के रूप में सृष्टि व्यात जिगर ने भी चन्द्रमा को जीवन का स्त्रोत मानते हुये किया है कि “यह जल हर आधिपत्य रखता है और आक्रधारियों का पोषण करता है। ‘मिथ्स एण्ड सिम्बिल्स एकाधिपन आर्ट एण्ड सिबिलिजेशन पृठ 60 में लिखा है- धरती में ओस-कण चन्द्रमा के प्रकाश को ही देन है, उससे वनस्पतियों को पोषण मिलता, वनस्पति दूध का और दूध मनुष्य के शरीर में रक्त का निर्माण करता है। जीवन दान की इसी कल्पना के रूप में चन्द्रमा को देवता माना गया है, स्थूल रूप में तो पंच-भौतिक प्रकृति के अतिरिक्त वहाँ कुछ भी नहीं है।

अपोलो-8 के कमाण्डर फ्रेंक बोरमैन ने इस यात्रा के दौरान चन्द्रमा को बहुत निकट से देखकर बताया-” यह चन्द्रमा वहन स्तब्ध सन्नाटे से भरा बीहड़ मात्र है। इसमें कुछ नहीं है, भद्दी चट्टानों से बना बादलों का पुंज लगता है।” सहयोगी बालक लाबेस ने भी उसकी पुष्टि करते हुए बताया - “ चन्द्रमा पास से बड़ा भयोत्पादक है।” एर्ण्डस- “चन्द्रमा बड़ा वीभत्स है, मीलों गहरे अन्ध क्रेटर, वनस्पति जहाँ कुछ भी नहीं घूसर मरु विस्तार, डरावनी ऊबड़ खाबड़ पहाड़ियों का अस्तित्व जहाँ से दिखने वाले तारे और सूर्य और भी भयंकर लगते है।” इन कथनों में जहाँ यह बात सिद्ध होती है कि चन्द्रमा पंच-महा-भौतिक प्रकृति का घनीभूत स्थल है, यहाँ उसकी महता केवल प्रकाश की है, जो कही और स्थान से आता है और जिसके सम्बन्ध में मांडूक्य उपनिषद् (2।1।4) तथा गीता में क्रमशः ‘पक्ष पी चन्द्र सूर्यों- चन्द्रमा विराट पुरुष परमात्मा का वाहिना नेत्र और ‘अनन्त वाहुँ शशि सूर्य नेत्र’- अनन्त बाहुओं वाले मुझ परमात्मा के सूर्य और चन्द्रमा नेत्र है- कहा है। संयोग से विराट दर्शन श्रीगणेश भी चन्द्रमा से ही होता है। प्रकाश के सम्बन्ध में व्यापक खोजें हुई तो चन्द्रमा के भारतीय स्वरूप की और भी पुष्टि होगी तथा विराट्-पुरुष की खोज में विलक्षण जानकारियाँ भी मिलेंगी। अभी वैज्ञानिकों का ध्यान केवल स्थूल चन्द्र की ओर है।


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