हम आत्म-विश्वासी बनें-अपना भरोसा करें

June 1969

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संसार के समराँगण में, जीवन के संघर्ष में वही व्यक्ति स्थिर रह सकता है, जिससे अदम्य आत्मविश्वास विद्यमान् है। यह संसार नाना प्रकार की बाधाओं, विपत्तियों और विरोधी से उसी प्रकार भरा है, जिस प्रकार सागर मत्स्यों, मगरों तथा नकों से भरा होता है। इसीलिये तो संसार को भवसागर भी कहते हैं। आज आये दिन लोभ बड़े-बड़े दुर्लभ्य को पार करते रहते है। समुद्र यात्रियों का वह साधन जहाज होता है। जिस प्रकार समुद्र की भीषण यात्रा का साधन जहाज है, उसी प्रकार भवसागर से संतरण का साधन आत्म विश्वास है। आत्म-विश्वास निश्चय ही एक शक्तिशाली जहाज के समान ही है, जिसमें जीवन रूपी यात्री को बिठाकर इस विशाल भवसागर को आसानी से पार किया पा सकता है।

संसार के जो महापुरुष इस संसार-सागर से पार उतरे हैं, वे सब आत्म-विश्वास के बनी रहे हैं। जिसके पास सदस्य और अडिग आत्म-विश्वास की सम्पत्ति होती है उसके पास कोई साधन हों, न हों यह अपने जीवन को सार्थक तथा सफल बना ही जाता है। साधन तो दूसरी आवश्यकता है, जीवन की सफलता के लिये पहली आवश्यकता है आत्म-विश्वास। साधनों का प्रचुर भण्डार होने पर भी यदि मनुष्य के पास आत्म-विश्वास की कमी है तो वह सफलता के बिखर पर उसी प्रकार नहीं जा सकता, जिस प्रकार हाथ में शस्त्र होते हुए भी कायर व्यक्ति कोई जौहर नहीं दिखना सकता। किन्तु आत्म विश्वास का धनी व्यक्ति साधन हीनता की अवस्था में भी अपना मार्ग प्रशस्त कर लेता है। संसार में चारों ओर साधन ही साधन बिखरे पड़े है। कहीं किसी दिशा में भी तो कभी नहीं है। संसार केवल यह हैं कि आत्म-विश्वासी व्यक्ति पुरुषार्थ और परिश्रम के बल पर उन्हें प्राप्त कर लेता है और विश्वास-हीन व्यक्ति ताकता रहता है। सफलता का मुख आधार आत्म-विश्वास ही है, साधन की प्रचुरता नहीं।

अमेरिका के इतिहास पुरुष अब्राहम लिंकन जितने महान हुए है, उससे कही अधिक वे साधन-हीन थे। अब, वस्त्र, निवास, शिक्षा, सुरक्षा और सहयोग सभी साधनों का अभाव था उनके पास। यदि कोई पारस-मणि थी उनके पास तो वह था, उनका असभ्य आत्म-विश्वास। एक अकेले आत्म-विश्वास के बल पर ही उन्होंने अपने इस असम्भव जैसे संकल्प को पूरा कर दिखाया-’मैंने अपने भगवान् को वचन दिया है कि दासों की मुक्ति के कार्य को मैं अवश्य पूरा करूंगा।”

साधनों के अभाव की शिकायत करते रहने वालों को यदि शिकायत ही करनी है तो वह शिकायत करनी चाहिये कि उनके पास आत्म विश्वास की कमी है। यदि उनके पास आत्म-विश्वास रहा तो वे व्यर्थ में बैठे-बैठे साधन-हीनता की शिकायत न करते रहें, बल्कि कमी और अभाव को पूरा करने के लिये पुरुषार्थ करते नजर आयें। फ्राँस के महान् नायक नेपोलियन के पास प्रारम्भ में कौन से साधन थे, जिनके आधार पर यह फ्राँस का इतिहास पुरुष बना। साधनों के नाम पर उसके पास न तो पेट भर रोटी थी और न तन पर कपड़ा। तब भी उसने न केवल फ्राँस के ही बल्कि संसार के इतिहास में अपना नाम अंकित कराया। उसका वह आत्म-विश्वास ही था, जिसके बल पर उसने साधन अर्जित किये और फ्राँस को एक अदम्य राष्ट्र बनाने का श्रेय पाया। वह उसका अदम्य आत्म-विश्वास ही था, उसके ही शब्दों में इस प्रकार व्यक्त होता रहता था- ‘‘यदि हमारा व्यर्थ रोकता है तो आल्पस् पर्वत ही नहीं रहेगा।” यदि उनके स्थान पर आत्म-विश्वास-हीन कोई दूसरा व्यक्ति होता तो अपने सैनिकों की यह बात सुनकर कि- ‘‘आगे आल्पस् पर्वत है, बढ़ा नहीं जा सकता”-निराश तथा हतोत्साह हो जाता। किन्तु उस अदम्य आत्म-विश्वासी थे अपना विश्वास प्रकट किया जिसका फल यह हुआ कि आल्पस् को काटकर रास्ता निकाल लिया गया।

महान् नाविक कोलम्बस ने महासागर के दूसरी ओर एक विशाल देख का अनुमान किया और तत्कालीन अविकसित जहाज लेकर निशान महासागर की छाती पर लहरों और तूफानों से टक्कर लेता हुआ तैर चला। महीनों के महीनों उसका जहाज उस अतल सागर में चलता रहा। लेकिन किसी देख अथवा द्वीप के दर्शन नहीं हुये। उसके साथी निराश होकर विरोध करने लगे, किन्तु उस अदम्य विश्वासी ने साहस तथा आशा का साथ नहीं छोड़ा वह आशा करता ही रहा अन्त में अमेरिका जैसे देश को खोज ही लिया। उसकी वह विशाल सफलता उसके अखण्ड आत्म-विश्वास के परिपाक के सिवाय और कुछ भी तो नहीं थी। आत्म-विश्वास एक बहुत बल, सम्बल और साधन है।

आज भी लोग आये दिन पचासों मील लम्बी-चौड़ी नदियाँ और उपसागरों को तैर कर पार करते रहते है। मनुष्य का स्वाभाविक बल इतना कहाँ कि वह उस कठिन संतरण को केवल तैरने की कला के आधार पर पूरा कर सकें। यह उनका अदम्य आत्म-विश्वास ही होता है, जो उन्हें थक कर भी थकने और हार कर भी हारने नहीं देता। एक महान् नौका की तरह से जाकर पार लगा देता है। आत्म-विश्वास को मानव-जीवन की नौका ही माना गया है। निश्चय ही वह एक सुदृढ़ नौका के समान ही है। यदि मनुष्यों के पास आत्म-विश्वास न हो तो वे संसार की लाखों आपत्तियों, विपत्तियों, उलझनों और समस्याओं से कैसे पार पा पाये। यह उनका आत्म-विश्वास ही होता है, जो संकटों में भी धीर पुरुषों को सक्रिय तथा साहसी बनाये रहता है। आत्म-विश्वास के समाप्त होते ही मनुष्य का पुरुषार्थ मर जाता है। पराक्रम तिरोधान हो जाता है। आशा और उत्साह के दीप बुझ जाते है। जीवन में भय और आशंकाओं का घटाटोप अंधकार छा जाता है।

मनुष्य में एक नहीं अनेक प्रकार की शक्तियों का भण्डार भरा पड़ा है। वह सब समर्थ ईश्वर का अंश जो है। उसमें उसी प्रकार की दिव्य शक्तियों के न होने की कल्पना करना असंगत हो नहीं अध्याय भी है। किंतु इन शक्तियों का लाभ वही उठा पाता है, जो आत्म-विश्वासी होता है। संसार में ईश्वर की सत्ता विद्यमान है। किन्तु उसका सान्निध्य उसी को नसीब हो सकता है, जो आस्तिक भाव का होता है। नास्तिक उस असीम और अनन्त सत्ता से वंचित रहता है। जो परमात्मा को छोड़ देता है, परमात्मा उसे पहले त्याग देता है। इसी प्रकार जो आत्मा में, अपने में विश्वास नहीं करेगा, वह अपनी उन शक्तियों से वंचित ही रह जायेगा। अविश्वास से अविश्वास का जन्म होता है। जो अपनी आत्मा, अपनी शक्तियों और अपनी क्षमताओं में अविश्वास करता है, उसकी शक्तियाँ भी उसमें अविश्वास करने लगती है। अन्दर ही निरपेक्ष भाव से कोई पड़ी रहती है। जाय कर न तो उसकी सहायता के लिये व्यक्त होती है और न संकट-आपत्तियों में उसकी रक्षा करती है। आत्म-विश्वासी की सारी शक्तियाँ कुण्ठित होकर उठ जाती है।

जीवन-समर जीतने, उपयोगी और महान् कार्य करने के लिये अपने आत्म-विश्वास को प्रज्वलित रखना बहुत आवश्यक है। क्योंकि किसी भी महान् ध्येय की पूर्ति तभी होती है, जब मनुष्य के सारे गुण और सारी शक्तियाँ का नियोजन तथा केन्द्रीकरण का कार्य आत्म-विश्वास द्वारा ही पूरा होता है। आत्म-विश्वास के उठते ही सारी शक्तियाँ स्वतः उठ खड़ी होती है और स्वतः ही पंक्तिबद्ध होकर कार्य का सम्पादन करने के लिये तत्पर हो जाती है। ऐसे प्रबुद्ध पुरुषार्थी के लिये कौन-सा ध्येय, कौन-सा उद्देश्य और कौन-सा लक्ष्य दुःसाध्य हो सकता है। वह तो असम्भव को सम्भव और असाध्य को साध्य बना सकने में समर्थ तथा सफल हो जाता है।

वेद भगवान् के कथनानुसार- ‘‘मनुष्य अमृत की लड़ी हैं। उसका प्राण, उसका जीवन नित्य नई आशा लिये आता रहता है। मनुष्य प्रेरणा का केन्द्र है, प्रकाश धारण करने वाला स्तम्भ है, वह साक्षात् प्रकाश रूप है, वह प्रकाश हे, ज्योति है और अमर आलोक हैं।” मनुष्य में यह सब है तो, किन्तु इसका अनुभव वह तब ही कर सकता है जब ज्वसन्त आत्म-विश्वास से ओत-प्रोत हो। अन्यथा वह माँसा का एक पिण्ड और मिट्टी की एक मूर्ति मात्र ही है। अदम्य आत्म-विश्वास ही मनुष्य का साधारण जीव से असाधारण देवपुरुष बनाता है। स्वामी विवेकानन्द ने ठीक ही कहा है-”विश्वास! विश्वास! अपने में विश्वास, ईश्वर में विश्वास, अपने आत्मदेव की अपार शक्तियों में विश्वास ही मानव-जीवन की सफलता और महानता का रहस्य है।”

आत्म-विश्वास का वास्तविक अर्थ है-अपनी आत्मसत्ता में विश्वास करना। अपने को मांस पिण्ड रूप शरीर न मानकर आत्मा मानना ओर उसी के प्रकाश से प्रेरित होना आत्म-विश्वास का ही रूप है। जो अपनी आत्मा की अजेय सत्ता में विश्वास करता है, अपने जीवन की सार्थकता, महता और उपयोगिता को स्वीकार करता है। उसे अनुभव करता है। वही आत्म-विश्वासी होता है। इस प्रकार का सच्चा आत्म-विश्वासी ही किसी बड़े लक्ष्य का लम्बा रास्ता तय कर सकता है और वही उस पर आई आपत्तियों, संकटों तथा विपत्तियों से टक्कर ले सकता है।

शिक्षा, साधन संपन्नता आदि की कोई भी सुविधा मनुष्य को न तो महान् बना सकती है और न उसके व्यक्तित्व में तेज का समावेश कर सकती है। संसार में ऐसे लाखों मनुष्य मौजूद हैं, जिन्हें साधन-सुविधाओं के साथ तुच्छ तथा हेय स्थिति में पड़ जीवन काटा करते हैं। यदि साधन-सुविधाओं ही मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास और उसकी महानता का आधार होतीं तो अवश्य ही हर साधन सम्पन्न व्यक्ति को महान् तथा तेजस्वी होना चाहिये। किन्तु ऐसा होता कदापि नहीं। तेजस्विता और महानता का विकास साधनों में नहीं, अपने प्रति महानता, उदारता तथा आत्म-सत्ता का विश्वास रखने में है। आलोकित पदार्थ के संपर्क में आने पर ही कोई दूसरी वस्तु प्रकाशित हुई है। आग से संपर्क होने पर ही उष्मा उत्पन्न होती है। इसी प्रकार जब मनुष्य विश्वासपूर्वक अपने आत्मस्वरूप के निकट आता है, तभी वह प्रकाशित तथा ज्योतिर्मान बनता है। एक मात्र जड़ पदार्थों का संपर्क उसे आलोकित अथवा प्रकाशित नहीं कर सकता।

जिसे अपनी आत्म-सत्ता में विश्वास नहीं होता, वह अपनी सारी विशेषताओं से रहित होकर परावलम्बी बन जाता है। उनका अस्तित्व ओर आधारहीन जीवन समुद्र की लहरों पर पड़ी अनाथ नौका की भाँति इस उत्ताल भवसागर में आपत्तियों और विपत्तियों के थपेड़े खाया करता है। उसे साधारण समस्याओं तथा उलझनों से ही जब अवकाश नहीं मिल पाता तो कोई उपयोगी तथा महान् कार्य करने के लिये किस प्रकार उत्साहित हो सकता है और किस प्रकार साहस पा सकता है। आत्म-विश्वास ही मनुष्य निबल रहकर समय का क्रीड़ा-कडंक बनकर रह जाता है। परिस्थितियाँ कभी उसे इस ओर फेंकती रहती है और कभी उस ओर धकेलती रहती है। आत्म-विश्वासी में हीन व्यक्ति को चिदानन्द की सम्भावना से पूर्ण इस मानव-जीवन में दुःख-कष्ट और शोक संताप के सिवाय और कुछ नहीं मिल पाता। जो आत्म-अविश्वासी हैं, वह नास्तिक है और जो नास्तिक है उसे आनन्द का ऐश्वर्य भी नहीं मिल सकता।

आत्म-विश्वास मनुष्य को सभी प्रकार के भयों, संदेहों, आशंकाओं तथा भीरुताओं से मुक्त बना देता हे। उसमें साहस, उत्साह, आशा और पराक्रम का संचार करता है। उन्नति के शोभनीय शिखर की ओर प्रेरित ही नहीं करता, बल्कि उसका महानतम सम्बल बनता है। आत्म-विश्वास उन्नति, प्रगति, सफलता तथा सार्थकता का मूलमंत्र है। उसे जगाना ही चाहिये, उसकी वृद्धि तथा समृद्धि करते ही रहना चाहिये।


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