ईश-प्रेम से परिपूर्ण और मधुर कुछ नहीं

June 1969

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परमपिता परमात्मा से वियुक्त होकर जीव ने अपनी एक निराली सृष्टि बना ली। छोटा बालक जिस तरह घर के आँगन में ही मिट्टी इकट्ठा कर एक छोटा-सा घरौंदा बनाकर उसमें विशाल आकार-प्रकार की साधन सामग्रियाँ चाहता है पर न तो उनके लिये उसके उस छोटे-से घरौंदे में स्थान होते हैं, न पात्रत्व। इसीलिये उसकी इच्छायें पूर्ण नहीं होती या जान-बूझकर पिता उन्हें पूरा नहीं करता। वह तो सब घर की व्यवस्था का स्वामी होता हैं, उसे सबका ही ध्यान रखना पड़ता हैं, इसीलिये जितना उसका घरौंदा था, उसी अनुपात से दो-चार पैसे छटाँक दो छटाँक सामग्री उसे भी दे देता हैं पर उससे बच्चे को न सुख मिलता हैं, न संतोष। छोटी-सी इकाई में पूर्णता की इच्छा रखने वाले छोटे बच्चे की तरह जीव को भी अन्’ततः अपनी लघुता पर असंतोष और पीड़ा ही होती है।

तब वह अपने एकान्त में, अन्तःकरण की गहराई में मुख डालकर झाँककर देखता है तो पाता है कि अब तक वह जिन वस्तुओं की इच्छा कर रहा था वह तो सब बन्धन रूप थी। नित्य, शाश्वत आनन्द के लिये उनसे कुछ काम बनने वाला नहीं था। यह तो सब क्षण-भंगुर वस्तुयें थी। रुपया, पैसा, वस्त्र-आभूषण, मोटर, बंगले, पंखे, रेडियो, नौकरी, पद-प्रतिष्ठा यहाँ तक कि पिता-माता, पुत्र-पत्नी सुहृदय सखा, परिवार भी एक दिन छूट ही जाता हैं, चाहे उससे कितना ही मोह बढ़ा ले, चाहे उससे कितना ही प्रेम कर ले। गीता में कहा हैं- ‘‘संसार में गुण ही गुण में बर्तते हैं, जो सब वस्तुयें जहाँ तक उनकी सीमा, मर्यादा और समय हैं, वहीं तक थोड़ा-सा सुख-संतोष प्रदान कर पाती है। उसके बाद जीव का पुनः वही अकेलापन। फिर वही लघुता, फिर वही भय, फिर वही इच्छायें, फिर वही दौड़-धूप, आपा-धापी, अविश्राम, अविश्राम, अविश्राम। न इच्छायें पिण्ड छोड़ती हैं और न महत्वाकाँक्षायें। मृगमरीचिका की तरह सुख और शाँति की चाह में जीव सारे संसार का परिमंथन किया करता है पर हाथ सिवाय निराशा, कष्ट, अपमान, चिन्ता, द्वेष-ईर्ष्या, असफलता, विकलता के अतिरिक्त कुछ नहीं लगता। नैपोलियन जो अनेक राष्ट्रों का भाग्य-निर्माता या वह भी कैसी दुःखद परिस्थितियों में मरा। महापुरुषार्थी सिकन्दर का अन्त वहाँ हुआ, जहाँ उसे दवा की व्यवस्था भी न हो सकी।

अपनी इस स्थिति पर विचार करते-करते जीव अपने पिता परमात्मा की क्षरण आता है। बहुत दिन के बाद निधि रूप में अपने सर्वस्व, अपने शाश्वत प्राण, अपने लक्ष्य, अपने गन्तव्य अपने प्रकाश को पाकर उसका अन्तःकरण उमड़ने लगता है, वह कभी-कभी अपनी अब तक की गई बीती स्थिति पर दुःख और पश्चाताप करता है तो फिर भगवान् से स्नेहपूर्ण शिकायत करता है, उसे भय रहता है, कहीं पुनः इसी भ्रमजाल में न फँसना पड़े, इसलिये डरता हुआ जीव भगवान् की स्तुति भी करता जाता हैं, हे प्रभु! संभव है संसार के झंझटों में मैं तुम्हें भूल जाऊँ पर तुम मुझे छोड़ना नहीं। मैं तुम्हारा ही प्राण हूँ मैं तुम्हारा ही अंश हूँ, माना की प्रमाद बहुत किया, भूले बहुत की पर अब ऐसा ज्ञान दो प्रभु, ऐसी शक्ति दो नाथ जिससे जर्जर जीवन की नाव पार लग जाये। आकर्षणों से भरे इस संसार सागर से जीवन तारिणी पर उतर जाये।

मुझे मालूम नहीं प्रभु! तुमसे मैं बिछड़ा क्यों। क्या इसमें भी कुछ रहस्य है। मैं अपनी इच्छा से संसार में आया या तुम्हीं मुझे अकेला छोड़कर मेरे अयानेपन पर, मेरी अतुकान्त भूलों पर हँसने और उसका चिर आनन्द लेने के लिये तुम पर्दे में छुपे हो। किन्तु हे प्रभु! अब यह खेल खेलने की शक्ति मुझमें नहीं रही। मैंने संसार के माया रूप को जबसे पहचान लिया है, तब से एक तुम्हारा ही प्रेम उमड़ रहा है। भीतर भी तुम्हारा प्रेम जाग रहा है और सृष्टि के कण-कण में भी तुम्हारा प्रेम प्रतिभासित हो रहा है। हे प्रभु! यह कैसी पीड़ा है जो तुम्हें आँखों से अलग भी होने देना चाहती और तुममें मिलने, समा जाने का अवसर भी नहीं देती। अपनी तृणवान् सत्ता से थके हुए जीव को विश्राम दो, अपनी मधुर गोद म ले लो, अपने प्राणों में छिपा लो, जिससे भय, लज्जा और विवाद के सम्पूर्ण वातावरण धुल जाये। यह सब तुम्हारे से ही सम्भव है। संसार की ममता में वह सब कहाँ। प्रेम के शाश्वत सिन्धु तुम्हीं इतने निर्मल हो कि संसार का सारा मल तुम्हारे अन्दर आकर घुल जाता है। हे प्रभु, तुम्हीं इतने प्रकाशवान् हो कि संसार का सारा अज्ञ-अंधियार तुममें समा जाता है। तुम निर्बल को भी बलवान् करने वाले, घृणित को भी हृदय से लगा लेने वाले हो। तुम्हारी शरण छोड़कर जीव अन्यत्र जा भी तो नहीं सकता।

इस प्रकार जब सब ओर परमात्मा का प्रकाश ही प्रकाश दिखाई देने लगता हैं, जीव अपनी लघुता की पहचान कर लेता है और कातर-भाव से परमात्मा को पुकारता है तो परमात्मा! उसके अन्तःकरण की गहराई भी स्थिर नहीं रह सकती। वह अन्तःकरण को मथ डालती है और उसमें से दिव्य ईश्वरीय प्रेम निखरता हुआ चला आता है। प्रेम में ही सुख हैं, प्रेम ही परमेश्वर हैं, प्रेम की सत्ता ने चर-अचर, स्थावर-जगम सब को क्रियाशील बना रखा है। प्रेम ही सम्पूर्ण पवित्र है। अपवित्रता तो आसक्ति थी, मोह था, ममता थी, वासना थी। जब वही न रहे तो मलिनता कैसी। जीव मात्र के सौंदर्य का सागर अन्तःकरण में फूट पड़ता है। जीवन मात्र की चैतन्यता की शक्ति अन्तःकरण में जाग उठती है। जब सब अपने, जब सब कुछ अपना तो कहाँ अभाव, कहाँ अशक्ति, कहाँ अज्ञान? सब ओर मंगल ही मंगल, आनन्द ही आनन्द बिखरा दिखाई देने लगता है।

प्रतिक्रिया का नियम तो जड़ वस्तुओं तक में है। कुयें और परिवार की ओर मुख करके बोली गई आवाज भी जब प्रतिध्वनित होकर आ जाती है तो नि-ससीम गहराई से लौटी हुई भावनाओं की प्रतिक्रिया का तो कहना ही क्या। जीव जिस भावना से परमात्मा की पुकार लगाता हैं, उसी गहराई से भगवान् का प्रेम, आशीर्वाद और प्रकाश भी उस तक पहुँचने लगता है। उसकी प्रिय वाणी फूटती है और कहती हैं-”वत्स! हम तुम दोनों एक ही हैं, तुम मुझसे विलग कब हो? यह जो तुम खेल खेलते रहे हो वह मेरी ही तो इच्छा थी, उसमें जो कुछ खराब था, उसका दुःख न कर, उसे भी मेरी ही इच्छा मानकर मुझे ही सौंप दें। तूने! यह पाप किये हैं, ऐसा भूलकर अब यह मान कि यह तो मेरा ही अभियान, मेरी ही इच्छा थी। अब तू उन सब बुराइयों को मुझे समर्पित करके निर्द्वंद्व हो जा। जब तू सारे संसार से मोह और ममता के बन्धन हटाकर ‘अहं-विमुक्त’ हो रहा तो अपनी भूलों और गलतियों को ही अपनी मानने की भूल क्यों करता है? अपना सम्पूर्ण अहंभाव छोड़कर तू सम्पूर्ण भाव से मेरी शरण में आ गया हैं तो तेरे पापों को जो डालने का उत्तरदायित्व भी तब मेरा ही है।”

भावनाओं के इस आदान-प्रदान में भी बड़ा रस है। माना कि परमेश्वर दिखाई नहीं देता पर मन की मलीनताओं के प्रति घृणा और विराट् के प्रति प्रेम से निर्मित स्वच्छ जीवन का सुख तो प्रयत्न है ही। जिसके हृदय में सत्य हैं, वह भला किसी से भय क्यों करेगा, जिसके हृदय में सबके लिये प्रेम, दया और करुणा होगी, वह भला किस अभाव से पीड़ित होगा। प्रेम में वह शक्ति हैं, जो हिंसक जीव को भी वश में कर लेती है, फिर जब जीव मात्र में परमात्मा और परमात्मा के प्रति प्रेम का भाव उमड़ने लगेगा तो किसी से छल-कपट, द्वेष-दुर्भाव का दुःख मनुष्य क्यों उठायेगा।

प्रेम साधना से बढ़कर और कोई साधना नहीं, उसमें आदि से लेकर अन्त तक मधुरता ही मधुरता, सौंदर्य ही सौंदर्य हैं, किन्तु वह सौंदर्य और माधुर्य संसार के किसी एक पदार्थ या परिस्थिति में उपलब्ध नहीं हो सकती। जीव स्वयं लघु है, उसकी तरह ही हर कण छोटा और अभाव की स्थिति में है, सबका सम्मिलित भाव परमात्मा हैं, प्रेम उसका निर्विवाद और निर्भय स्वरूप है इसीलिये हम प्रेम को पवित्र बनाकर ही अपनी लघुता को विभुतायें बदल सकते है। परमात्मा के प्रेम में ही वह शक्ति हैं, जो जीव को सामान्य अवस्था में भी असामान्य रस माधुर्य और आनन्द प्रदान करती है।


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