मनुष्य के अन्दर का रेडियो टेलीविजन

June 1969

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अमेरिका के विदेश विभाग के एक अफसर की धर्मपत्नी श्रीमती पंगी फोर्नवर्थ के पिता का निधन नहीं क्या। उन्हें अन्त्येष्टि संस्कार में भाग लेने के लिये बुलाया गया। वे गई भी। पिता के आकस्मिक निधन से उनकी मानसिक स्थिति असंतुलित-सी हो गई था। अन्त्येष्टि समाप्त हुई तो फैन्सी से लाल ऐन्बिल्स के लिये वे अपनी कार पर ही लौट पड़ी, किन्तु दुःख और थकावट में वह इतनी शिथिल हो गई थीं कि कार चलाते-चलाते ही उन्हें नीव आ गई। अर्द्धनिद्रित अवस्था में उन्हें गतिवर्द्धक यंत्र (एक्सीलेटर) की स्थिति का ध्यान नहीं दिया, पैर से उसे तेजी से दाब रहीं। कार 40 मील प्रति घंटा की चाल से दौड़ने लगी।

अचानक उन्हें अपने पिता की आवाज सुनाई दी- पेग, पेग। कार रोको, कार रोको। चौंककर पेगी ने आँखें खोल दीं। होश संभाला तो पाया कि कार एक भयंकर मोड़ को पार कर रही थी और दुर्घटना होने में कुछ सेकेंड से अधिक की देरी नहीं थी।

पिता का निधन हो चुका था, फिर वह आवाज कहाँ से आई? ठीक ऐसे समय ही क्यों आई, जय उसकी आवश्यकता हुयी। इस सम्बन्ध में श्रीमती पेगी फोर्नवर्ष ने बहुत विचार किया। मनोविज्ञान जानने वालों ने बताया कि वह तो अंतर्मन में पिता की बार-बार स्मृति के कारण हुआ। चली वह भी मान लिया जाये कि मस्तिष्क में कई दिन से पिता की स्मृति छा रही थी, इसलिये अर्द्धचेतन अवस्था में पिता की ही आवाज का भ्रम हुआ होगा पर वह भ्रम ठीक उस समय होना जबकि मृत्यु की विभीषिका के सन्निकट था, उक्त तर्क को काट देता है। पेगी स्वयं भी संतुष्ट नहीं हुई और उन्होंने निश्चित रूप से माना कि मृत्यु के बाद भी चेतना का सूक्ष्म और उसी मानसिक स्थिति में अस्तित्व बना रहता जिस अवस्था में उसका प्राणान्त होता है।

वह घटना अपरोक्ष कही जा सकती है। आत्मा को शरीर से विलग वस्तु प्रमाणित करने, उसके सर्वज्ञ, संकल्प, सर्वव्यापी एवं शाश्वत होने का एक परोक्ष उदाहरण भी वाशिंगटन (अमेरिका) में काफी दिनों तक चर्चा का विषय बना रहा।

एक उच्च घराने की दो बहनें एक दिन अकेली घर में खेल रही थीं। तभी सिविल हॉस्पीटल के किसी कर्मचारी ने फोन किया ओर बताया कि अस्पताल में एक ऐसा घायल दुर्घटना ग्रस्त मरीज पड़ा है जिसकी शिनाख्त नहीं हो रही है। उस कर्मचारी के पास कुछ ऐसे चिन्ह थे, जो उन दोनों लड़कियों के पिता से सम्बन्धित थे, इसलिये उन्हें तुरन्त अस्पताल जाकर घायल का पहचानने का आग्रह किया गया।

ऐसे समय में स्वभावतः भावनाशील लोगों की यह आशंका होती है कि दुर्घटना किसी अपने कुटुम्बी के साथ तो नहीं हुई? दोनों बहनों-जेनी और दर्जिदाना को अपने दोनों भाइयों के डी और जैक की तीन स्मृति हो आई, कहीं दोनों भाइयों में से तो कोई घायल नहीं हुआ? इस आशंका से दोनों ही आविर्भूत हो उठीं, ऐसे समय जब कोई संकट या विपन्न स्थिति में होता है तो कुछ ऐसी विलक्षण बात है कि मानसिक विकार धूमिल से पड़ जाते है और एक क्षण के लिये आत्मिक प्रकाश सा काँच जाता है। भाइयों की याद दोनों ने इसी स्थिति में, विशुद्ध अन्तःकरण से की थी।

दोनों शीघ्रता से तैयार हुई ओर अस्पताल पहुँचीं। मालूम हुआ कि वापस कोई और था पर वह कुछ समय पहले उनके पिता का नौकर रह चुका था। दोनों बहनों ने घायल के परिवार वालों को सूचना भिजवाई, औषधि इत्यादि का प्रबन्ध किया और तब घर छोड़ी।

अभी घर लौटे कुछ ही क्षण बीते थे कि टेलीफोन की घण्टी खड़खड़ाई। जेबी ने फोन उठाकर पूछा-कौन बोल रहा है तो वह सुनकर स्तम्भ रह वर्ष कि आवाज देने (काल) वाला ओर कोई नहीं उसका भाई फेंकी है और पूछ रहा कि “वे स्वस्थ और सकुशल तो है” इससे आगे उसने विस्तार से बात चीत करते हुए बताया कि मैं टैक्टर चला रहा था तो मुझे कई बार ऐसा लगा जैसे तुम मुझे बुला रही हो और किसी गम्भीर चिन्ता में हो।” मुझे वह आवाज इतनी मार्मिक लगी कि जब तुम दिखाई नहीं दी तो मुझे फोन करना पड़ा।

एक व्यक्ति के अन्तःकरण की भाव तरंगें बिना किसी माध्यम के बेतार के तार के समान दूसरे आदमी तक फंसे पहुँचे गई। क्या इसके पीछे कुछ दार्शनिक तथ्य भी है? जब यन्त्र भी एक निश्चित स्थिति (फ्रीक्वेंसी) पर ही दूसरे शब्द या रेडियो स्टेशनों के ब्राडकास्ट पकड़ते हैं, तब शरीर में ऐसा कौन-सा यंत्र फिट है जो जेनी की आन्तरिक जैसी सूक्ष्म प्रक्रिया की फ्रेडी तक पहुँचा देता है, इसका कोई निश्चित उत्तर विज्ञान के पास नहीं है।

जेनी ने बात समाप्त की ओर दूसरे काम में लग गई पर अभी दो क्षण भी नहीं बीते थे कि एक बार फिर से टेलीफोन की घण्टी चमकना उठी। वर्जियाना थौड़ी-थौड़ी गई और पूछा-”आप कौन बोल रहे है ?” “मैं तुम्हारा आई जैक बोल रहा हूँ।” उधर से आवा आई। “अभी कुछ देर पहले रिचमाँड पर हवाई जहाज चला रहा था, मुझे कई बार ऐसा लगा वर्जियाना जैसे तुम मुझे आवाज दे रही हो। तुम्हारे शब्दों में कुछ भय हो। पहले तो मैंने समझा कि मुझे वैसे ही सूझ रहा है पर बेचैनी इतनी बढ़ो कि मुझे जहाज वाशिंगटन की ओर मोड़ना पड़ा। जहाज से उत्तर कर सीधा तुम्हें फोन कर रहा है। बहन! तुम अच्छी तो हो न, जेनी स्वस्थ है न, सब ठीक है न?

वर्जियाना ने सब विस्तार से समझा दीं पर तब से अब तक उनमें से कोई भी यह नहीं समझ पाया कि एक दूसरे के दर्द की अभ्यान्तरिक अनुभूति कैसे और क्यों होती है, जबकि दोनों के बीच की दूरी और स्थिति ऐसी होती है कि यान्त्रिक सम्बन्ध भी सहसा स्थापित नहीं किया जा सकता।

यह घटनायें असामान्य व्यक्तियों के जीवन की हैं, इसलिये उन्हें मनगढ़न्त कहकर ठुकराया नहीं जा सकता। हमारे भारतीय योग-शास्त्रों में अणिमा, लधिमा, महिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, वशित्व और ईशित्व आदि अनेक सिद्धियों का वर्णन है, यह सिद्धियाँ ऐसे अलौकिक चमत्कारों को ही कहा गया है। जिनको स्थूल जीवन के आधार पर तो नहीं सिद्ध किया जा सकता, किन्तु उनके पीछे साधना और योग विद्या के सुनिश्चित सिद्धान्त है, जो मूलरूप से आत्मा के सूक्ष्म ‘तत्वदर्शन’ पर आधारित है। पातंजलि योग में बहुत-सी सिद्धियों का वर्णन है, जो केवल मन की स्वच्छता से प्राप्त की जाती है, उनमें से पूर्वजन्म का ज्ञान, दूरस्थ व्यक्ति का ज्ञान, अदृश्य और दूसरे चित्त का ज्ञान आदि भी है। उसके कारण पर योगवाशिष्ठ में इस प्रकार प्रकाश डाला है-

तस्मार्थ वेंद्यबेताये ये वा धर्म परंपिताः। आतिवाहिक लोकाँस्ते प्राप्मुवन्तीह मेतरे॥ -3।54।1,

आतिवाहिकताँ वाँस बुद्धं चितान्तरेर्मनः। सर्ग जम्मान्तरधर्तः सिद्धै मिलति नेतरत्॥ -3।22।10,

आधि भौतिक देहोडयमिति यस्य मतिभ्रमः। तस्यासायगुरन्ध्रेण गन्तुँ शक्नोति मानव॥ -3।40।8,

अर्थात्- जो ज्ञानी-तत्वदर्शी पूर्णतया धार्मिक विचार वाले लोग हैं, उन्हीं का आतिवाहिक (सूक्ष्म) लोकों में प्रवेश हो सकता है। जो प्रबुद्ध होकर सूक्ष्मभाव को प्राप्त हो चुके वे ही दूसरे उन जीवों से मिल सकते हैं, जो सिद्ध होकर दूसरे लोकों में जन्म ले चुके है। जिसके मन में अपने को स्थूल शरीर होने का भ्रम दृढ़ हो यथा है, वह भला सूक्ष्म मार्ग द्वारा दूसरे लोकों में कैसे जा सकता है।

यत्र स्वसंकल्प पुरं स्वदेहेन न सभ्यते। तत्रान्यसंकल्पपुर देहोअम्यो लभते कथम्॥ -3।21।43,

जब कि मनुष्य अपने ही संकल्प जगत् में स्थूल शरीर में प्रवेश नहीं कर सकता तो भला दूसरों के विचार या संकल्प जगत् में उसका प्रवेश स्थूल शरीर द्वारा कैसे हो सकता है।

शास्त्र के इस कथन को अभी तक काल्पनिक ज्ञान कहा जा सकता था घर वह दृष्टान्त यह बताते है कि अशुभ्य स्थूल ही सब कुछ नहीं है, उसकी सूक्ष्म सत्ता उससे कहीं करोड़ों गुना जबर्दस्त है। जो स्थूल रूप से सुनाई देता है, पूर्वाभास जा दूरश्रवण तो उस शक्ति और सामर्थ्य को एक नगण्य चिनगारी मात्र है। इन तथ्यों को पाश्चात्य देशों में अब भारतवर्ष से कहीं अधिक विश्वस्त माना जाने लगा है।

‘सत्य की खोज’ (इन सर्च फार दि ट्रुथ) की लेखिका श्रीमती रूप मौटगुखरी ने ‘भाई साहकिक फ्रेण्डस’ अधिक पाँचवें अध्याय में मिला है-

“हमारे घर के समीप ही तुर्की दूतावास के राजदूत भी वृक्षैण्ड उसाकलीगिस रहते थे। 1938 में वे एक बार रुमानियाँ यात्रा पर गये। उन्हें एक दिन अपने भाई श्री वैदत उदाकलीनिक की बीमारी का समाचार डाक हुआ। उसी रात रेलगाड़ी से वे घर के लिये चल पड़े। गाड़ी में नींद आ गई, निद्रावस्था में उन्हें ऐसा लगा कि किसी ने डिब्बे (कंपार्टमेंट) का दरवाजा खोला और डिब्बे में घुस आया। प्रविष्ट व्यक्ति ने हाथ की घड़ी खोली और उसे देखते हुए कहा-”अब तो तुम्हें छोड़कर जा रहा हूँ, तुम्हें अन्तिम नमस्कार करने की इच्छा से चला आया।”

श्री डुलेण्ड की नींद बेचैनी से टूट गई, उन्हें स्वप्न में ही वह आभास हो गया कि वह शब्द उनके भाई के है और कुछ गड़बड़ अवश्य हो गई। लाइट जलाकर उन्होंने घड़ी की ओर देख रात के पाँव बजने को कुछ ही मिनट शेष थे। सफर बेचैनी में ही कटा। घर पहुँचने पर मालूम हुआ कि उनके भाई का निधन हो चुका है और वे उसी रात ठीक पाँच बजने से पाँच मिनट पूर्व भरे जिस रात उन्हें गाड़ी में उपरोक्त पूर्वाभास हुआ था।

चैकोस्लोवाकिया और थाईलैण्ड के भूतपूर्व अमेरिकी राजदूत, जो बाद में जापान के राजपूत नियुक्त हुए, की धर्मपत्नी श्रीमती यू0 एलेकिसस जानसन भी जापान में ही थीं। वहाँ रहकर उन्होंने जापानी भाषा का अध्ययन किया। इसी बीच द्वितीय महायुद्ध चिड़ गया। श्रीमती जानसन और उनके बच्चों को मुकडेन के बाहर भेज दिया गया। श्री जानसन वहीं रहे। 7 सितम्बर 1941 के दिन जापानियों ने पर्स हारबर पर भीषण बमबारी की, उसी दिन जानसन को भी गिरफ्तार कर लिया गा। श्रीमती जानसन ने इस दोष लगुना बीच (कैलीफोर्निया) में मकान ले लिया था पर पति के अलग रहने से वे सदैव चिन्तित-सी रहा करती थीं। 7 मार्च 1942 को एक पड़ौसी सी ने आकर बताया कि उनका रेडियो ओरियन्ट के सारे कार्यक्रम सुन सकता है। आप चाहें तो जापानी भाषा के समाचार सुन सकती है। श्रीमती जानसन ने उनकी इच्छा भी व्यक्त की पर तीन महीने तक उन्होंने व कोई कार्यक्रम सुना, न उनकी ऐसी कोई इच्छा ही हुई।

8 जून को साँयकाल से ही उन्हें कुछ अजीब-अजीब सा लग रहा था। उन्हें ऐसे अनुभव हो रहा था जैसे उन्हें कोई खुला रहा है। वे 6 बजकर पचास मिनट पर पड़ौसी के घर नई और रेडियो खोलने की प्रार्थना की। उसने शीघ्रता से मुर्कटन स्टेशन आ गया, कोई जापानी ऑफिसर अंग्रेजी में बोल रहा था, अभी थोड़ी देर में आप अमेरिकी राजदूत श्री यू0 जानसन को सुनेंगे। उसके बाद जो आवाज सुनाई दी, वह सचमुच जानसन की थी और वे कह रहे थे, जो भी सज्जन रेडियो सुन रहे हों मेरी पत्नी से सन्देश कहें, मैं स्वस्थ हूँ और आशा है शीघ्र ही युद्धबन्दियों की अदला-बदला में मुझे छोड़ दिया जायेगा।”

इस तरह के पूर्वाभास का आखिर रहस्य क्या है? साइकिक एक्सपीरियेन्सेज मात्र से पूर्वाभास की विदेशों में भी बड़ी चर्चा होती है और कहा जाता है कि ऐसे अनुभव युद्धकाल में अधिक होते है, क्योंकि युद्धभूमि के खतरों की सहन करने वाले और घरों पर उन्हें अनुभव करने वालों के बीच एक प्रकार का भावनात्मक सम्बन्ध बना रहता है। दो संकल्प एक में जुड़कर एक दूसरे के मन की बात कैसे जान लेते है, इसका कोई विज्ञान सम्मत विश्लेषण नहीं है पर यदि ऐसा कुछ हुआ तो निश्चय ही उन सूक्ष्म-तत्वों की जानकारी सम्भव होगी, जो मनुष्य की मूलभूत चेतना से सम्बन्धित है। हमारी बुद्धिमता इसमें है कि पूर्वाभासों के आधार पर ही सोच कि सचमुच मनुष्य जीवन शरीर तक ही सीमित है अथवा चेतना का काई स्वतन्त्र अस्तित्व भी है, यदि है तो उसकी विशेषतायें क्या है और क्या उन्हें अल्पकाल के लिये ही नहीं सदैव के लिये भी परिष्कृत किया जा सकता है?


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