कथा :- - पूजा का कर्म

June 1969

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चैत्र शुक्ल प्रतिपदा आई और भक्तगण भगवती नवरात्रि की उपासना, पूजा, पुरश्चरण में लग गये। भक्त कूरेश पुत्र पाराशर भट्ट ने भी सदा की भाँति गृह मन्दिर को खूब सजाया और उस दिन नवरात्रि की विशेष उपासना का श्री गणेश अपने ही हाथों सम्पन्न किया, ज्योति स्वरूपा भगवती गायत्री की प्रतिमा, ज्योति कलश की स्थापना, पंचोपचार और जप में कोई अधिक समय नहीं लगाया। उन्होंने स्तोत्र पाठ भी नहीं किया थोड़े ही समय में प्रसन्न मुद्रा में पूजा गृह से बाहर निकल आये।

दूसरे दिन की पूजा फिर उनके ब्राह्मण ने ही की। बड़े भाव से उसने जप ध्यान और स्तवन किया। श्लोक खूब जोर-जोर से पढ़े और जितना समय उपासना में लगना चाहिए उतना ही लगाया, किन्तु अभी वह पूजागृह से बाहर निकले ही थे कि पाराशर भट्ट ने टोका- पण्डित जी आज भी आपने यथेष्ट पूजा नहीं की?

ब्राह्मण को बड़ा गुस्सा आया पर वह तो मात्र रसोइया थे। गृहस्वामी की आज्ञा से पूजा भी कर दिया करते थे। उन्हें अपने वेतन से मतलब था, इसलिए गृहस्वामी की डाँट डपट भी सुन लेते थे। उन्हें दुख इस बात का होता था कि पाराशर आप तो स्वयं कभी 10 मिनट, कभी 1 घण्टा अस्त व्यस्त पूजा करते है और मैं जो हिसाब से पूजा करता हूँ, उसे सदैव ही कम बताते रहते हैं? इस आशय की शिकायत वे कई बार उनकी माता जी से भी कर चुके थे। माता जी ने पुत्र को कई बार समझाया भी था कि बेटे! पण्डित जी की आलोचना न किया कर आलोचना करना तो वैसे भी अच्छा नहीं होता पर न जाने पाराशर को क्या अभाव दिखाई देता कि वह जब भी पण्डित जी को पूजागृह से बाहर निकलते देखते टोकते अवश्य- पण्डित जी आज भी अपने यथेष्ट पूजा नहीं की। आज पण्डित जी अधिक क्रोध में आ अये, सो उन्होंने माता जी से भी स्पष्ट कह दिया- पाराशर जी को स्वयं तो पूजा आती नहीं फिर उन्हें इस तरह बार बार आलोचना करने का क्या अधिकार?

माता जी ने आज भी पण्डित जी को ध्यान से ही सुना पर बोली कुछ नहीं। पण्डित जी ने समझा आज पाराशर को अच्छी डाट फटकार लगेगी सो वह प्रसन्न होकर अपने दैनिक कार्यों में लग गये।

कूरेश भगवान की भक्ति में अपनी सारी सुध-बुध जो बैठे थे, इसलिए पुत्र पाराशर के पालन पोषण का सारा उत्तरदायित्व उनकी माता ने ही निभाया था। ये अपने पुत्र की गम्भीरता और उसकी ईश्वर भक्ति को अच्छी तरह समझती थी, तो भी वह यह चाहती थी कि बच्चे में यह दोष भी क्यों रहे, इसलिए वे आज तकत सदैव ही पाराशर को डाँट देती थी। किन्तु आज उन्होंने यह निश्चय कर लिया कि ब्राह्मण की आँशकार का निराकरण होना ही चाहिए अन्यथा उसे उपासना के प्रति भ्रान्ति बनी रहेगी।

इससे पूर्व कि वह पण्डित जी से प्रति कुछ कहें उन्होंने पाराशर को बुलाया और बोली- “तात्! मुझे पता है कि पंडित जी जब भगवती गायत्री का स्तवन और देवी भागवत का पाठ कर रहे होते हैं, तब तू उसमें इतना लीन हो जाता है कि पण्डित जी को यथेष्ट पूजा का समय भी तुझे कम लगता है पर अपनी रसानुभूति के लिए किसी और का तो जी नहीं दुखाना चाहिए। क्या हय भागवत धर्म नहीं कि आत्म कल्याण की जितनी साधना सम्भव हो स्वयं पूरी की जाये, यदि और कोई इच्छानुकूल साथ न दे तो उसे दोषी क्यों ठहराया जायें?”

पाराशर ने अम्बिका के चरण स्पर्श कर क्षमा याचना की और वचन दिया आगे वह कभी ऐसा नहीं करेंगे।

दूसरे, तीसरे, चौथे दिन भी ब्राह्मण ने ही पूजा की पाराशर भट्ट पास ही बैठे सब सुनते, पर पहले की तरह अब उन्होंने एक दिन भी नहीं टोका। ब्राह्मण को अपनी इस विजय का बड़ा अभिमान था। वह जब पूजा गृह से निकलते तो अकड़कर यह जताते हुए कि पाराशर जी पूजा तो हमारी है। कितनी देर पूजा करते हैं, एक तुम हो जो आधा घन्टे भी मन्दिर में नहीं बैठा जाता? पाराशर उन्हें देखकर थोड़ा मुस्करा देते और फिर दोनों ही अपने अपने काम से लग जाते।

आज पूर्णाहुति थी। निर्धारित परम्परा के अनुसार आज कुटुंबी और मित्रजनों का प्रीतिभोज भी सम्पन्न होना था, उसके लिए दिन भर तैयारी होती रही। ब्राह्मण ने तरह-तरह के पकवान बनाये, पहले भोजन परोसते भी वही थे, किन्तु आज न जाने किस आशय से भोज के समय माता जी ने ब्राह्मण को छुट्टी दे दी और सब के साथ उन्हें भी भोजन में बैठ जाने को कहा। परोसने का कार्य आज उन्होंने स्वयं ही सम्भाल लिया था।

सब लोग बैठ गये, पण्डित जी और पाराशर जी पास पास बैठाये गये। माता जी ने परोसना प्रारम्भ किया। सब कुछ परोसा जाने के बाद खीर परोसने की बारी आई। माता जी कटोरा लिए परोसती हुई, जब पाराशर के पास पहुँची तो यह कहती हुई लौट गई खीर कम हो गई अभी आती हूँ। दुबारा आई तो उनके हाथ में दूसरा ही कटोरा था। उसमें से पाराशर और ब्राह्मण दोनों को खीर परोसी गई। सब लोगों ने भोजन करना प्रारम्भ कर दिया।

पर यह क्या? ब्राह्मण ने खीर मुख से लगाई तो वह कठिनाई से ही निगली जा सकी। खीर में इतना नमक उनसे सहसा विश्वास नहीं हुआ। पंगत में बैठे सभी लोग कितने प्रेम से खीर का स्वाद ले रहे हैं, फिर पाराशर जी को भी अपने हाथ ही खीर परोसी गई थी, वह भी तो उसी तरह खा रहे है, जिस तरह और सब उन्हें समझ में नहीं आया बात क्या है।

बेचारे खीर खा भी नहीं सकते थे, क्योंकि उसमें नमक की मात्रा बहुत अधिक थी, इसलिए उन्होंने माता जी को पास बुलाकर पूछ ही लिया। माता जी आपने नमकीन खीर बनवाई थी, वह लगता है भूल से हमें और पाराशर जी को परोस दी। माता जी ने विस्मय की मुद्रा बनाते हुए कहा- “नमकीन खीर आ गई, पर पाराशर ने तो कुछ नहीं कहा।” फिर पाराशर की ओर देखते हुए उन्होंने पूछा- “वत्स क्या सचमुच खीर नमक वाली हैं?” पाराशर जी अब तक आधी खीर खा चुके थे, ने उंगली से उठाकर चखा और बोले- ‘अरे हाँ माँ! खीर तो सचमुच नमकीन है?”

ब्राह्मण को बड़ा कौतूहल था, इन्होंने आधी खीर खा ली- तक भी उसके नमकीन होने का पता नहीं चला और मुझसे एक कौर भी नहीं खाया गया उनके विस्मय को उभारते हुए माता जी ने पूछा- “अरे पाराशर तूने आधी खीर खाली और तब भी तुझे पता नहीं चला।”

विनीत भाव से पाराशर ने कहा- “अम्बे! आज पण्डित जी ने भगवती गायत्री की एक ऐसी स्तुति गाई थी, जिसमें उनकी मनोहर छवि का वर्णन था। नील आकाश में सूर्य तेज मध्यस्थ प्रकट होकर उन्होंने अपने भक्त पुत्र शुम्भ निशुम्भ को किस तरह वरदान दिया कुछ ऐसा ही वर्णन था, जब से वह सुना मन में वही चित्र रम गया है मैं उसी विचार में डूब गया था, क्या जगत जननी वैसी भक्ति, वैसा अनुग्रह मुझे प्रदान नहीं करेंगी। माँ उन तल्लीनता में ही यह ध्यान नहीं रहा कि खीर में नमक है या मीठा।”

इससे पूर्व कि माता जी ब्राह्मण से कुछ कहें उसने स्वयं उठकर पाराशर के पैर पकड़ लिए और कहा- “तात्! मैंने सारी बात आज समझी। पूजा के इस मर्म को समझ गया होता तो मेरा भी कल्याण हो गया होता। भावनाओं से की गई 5 मिनट की पूजा सचमुच एक घन्टे की उपासना से अधिक फलदायक होती है, जो केवल समय पूरा करने के लिए की जाती है।

पण्डित जी भी आज इतने भाव विभोर थे कि उन्हें पता भी न चला कि उनकी बात सुनने के लिए माता जी वहाँ है भी नहीं, जब उन्होंने दृष्टि उठाई तो देखा माता जी मीठी खीर से भरा कटोरा लिए आ रही है।


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