हमारी महत्वाकाँक्षायें-निकृष्ट न हो

June 1969

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महानता की प्राप्ति महत्वाकांक्षाओं की प्रेरणा से ही होती है। इसमें किसी प्रकार भी संदेह नहीं है। प्रथम तो महत्वाकाँक्षा महान् मानस की साली है। इसके महत्वाकाँक्षा महाकर्तृत्व का उद्बोधन करती है। जिसमें जिस प्रकार की आकांक्षा होती है, वह उसी प्रकार का मार्ग तथा उसी प्रकार की गतिविधि को अपनाता है और उसे पूरा करने के लिये उसके अनुरूप ही साहस तथा कष्ट सहिष्णुता का अनुसरण किया करता है। यदि उसकी आकाँक्षा प्राणवती तथा सच्ची है तो वह उसके लिये उतना ही त्याग एवं बलिदान करने को तत्पर रहता है।

जिसकी इच्छायें छोटी-छोटी तथा सामान्य शारीरिक आवश्यकताओं तक ही सीमित रहती है, वह उसी परिधि तक अपनी गतिविधियों को बढ़ाता है। उसके आगे बढ़ने की न तो उसे प्रेरणा होती है और न साहस। उस सीमा से आगे उसकी कल्पना की गति भी नहीं होती।

इच्छा से ही मनुष्य प्रेरणा प्राप्त करता है और प्रेरणा के अनुसार ही गतिविधि अपनाता है। मनुष्य की क्रियायें उसकी इच्छाओं का ही तो खेल है। जो महान् आकाँक्षायें रखता है, वह उसी के अनुसार कार्य कर महान् बन जाता है और जो छोटी और ओछी आकाँक्षायें रखता है, वह क्षुद्र तथा नगण्य बना रहता है।

महत्वाकाँक्षा का अर्थ है सामान्यता से बढ़कर इच्छा करना और उसकी पूर्ति से उस क्षेत्र में अन्यों से बढ़कर स्थिति तथा स्थान पाना।

धन का क्षेत्र ले लीजिये, गुजारे के लायक कमा लेने की कामना आकाँक्षा के रूप में कोई महत्व नहीं रखती, यह तो आवश्यकताओं की पूर्ति की मजबूरी है। उससे आगे बढ़कर ऊँचे स्तर से रहने और सम्पत्ति जमा करने की इच्छा सामान्य कामना से कुछ आगे की बात है, किंतु जब यही कामना मिल मालिक बनने, संसार के धन-कुबेरों में गणना कराने और बड़े-बड़े उद्योगपतियों में नाम सिखाने की इच्छायें बन जाती है, तब यह महत्वाकाँक्षा बन जाती है। सामान्यता से विरलता की स्थिति में पहुँचने की कामना ही महत्वाकाँक्षा है।

महत्वाकाँक्षा के एक दूसरे से विपरीत दो रूप होते है। एक शुभ और दूसरा अशुभ। उसी प्रकार उनकी पूर्ति असम्भव होने पर भी शुभ महत्वाकाँक्षी चरित्र नायक की तरह उज्ज्वल पृष्ठ में और अशुभ महत्वाकाँक्षी इतिहास के मलीन पृष्ठ पर अंकित होते है। इस प्रकार ऐतिहासिक होने पर भी एक विरल पुरुष महान् एवं यशस्वी माने जाने है और दूसरे विरल व्यक्ति पतित और कलंकी एक श्रद्धा और सम्मान के साथ देखे-सुने और याद किये जाते है, दूसरे घृणा एवं तिरस्कार के साथ। दोनों ने अपनी लक्ष्य प्राप्ति में चाहे समान ही त्याग बलिदान अथवा कष्ट सहन क्यों न किया हो, कितना ही परिश्रम, प्रयत्न एवं उद्योग क्यों न किया हो, किंतु शुभ अथवा अशुभ के साथ संसार का यह भिन्न दृष्टिकोण अवश्य बना रहेगा।

संसार को विजय करने की इच्छा रखने वाला सिकन्दर निःसंदेह महत्वाकाँक्षा व्यक्ति था। उसकी आकाँक्षा बहुत ही बड़ी और विरल थी। इसे मूर्तिमान् करने के लिये उसने बहुत बड़ा त्याग किया, अपार कष्ट उठाये और अनन्त उद्योग किया और उसने अनेक देशों पर अपनी विजय वैजयन्ती भी फहराई तथापि विरल व्यक्ति होने पर भी वह इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ पर लिये जाने का गौरव प्राप्त न कर सका, इसका एक मात्र कारण यही था कि उसकी महत्वाकाँक्षा अशुभ थी। उसकी विजय के पीछे कोई भी माँगलिक उद्देश्य न था। उसकी महत्वाकाँक्षा उसके व्यक्तिगत दम्भ और शक्ति प्रदर्शन की उद्धतता से दूषित थी। उसने अपने व्यक्तिगत अहंकार को तुष्ट करने के लिये न जाने कितने देशों को रौंद डाला, हजारों - लाखों निरपराधों को मौत के घाट उतारा और अपनी सेना के असंख्यों सैनिकों को निरुद्देश्य समराग्नि में आहुति बना डाला। निरर्थक अशाँति, अराजकता, युद्ध और रक्तपात का दोषी होने के कारण ऐतिहासिक होकर भी सिकन्दर महान् न बन सका। यद्यपि अनेक लोग उसे सिकन्दर महान् की पदवी देते है, किंतु उसको महान् मानने वाले व्यक्ति उस जैसी ही आततायी वृत्ति के हो सकते है। प्रत्युत कोई भी निष्पक्ष और बुद्धिमान् व्यक्ति सिकन्दर को उसकी उस विजय के लिए महान् मानने को तैयार न होगा। यह तो उसे रणलिप्सु तथा रक्त-रंजक ही कहेगा। एक अशुभता के कारण ही सिकन्दर का सारा बलिदान, व्याय तथा उद्योग असफल होकर रह गया, जिसका फल उसके लिए ऐतिहासिक अपकीर्ति के सिवाय और कुछ न जा सका।

चाणक्य राजनीति क्षेत्र का महान् व्यक्ति है। यद्यपि उसने अन्य तथा आम्भीक जैसे राजाओं को आमूल नष्ट कर डाला। अनेक युद्ध कराये ही नहीं उनका नेतृत्व भी किया। जहाँ तक रक्तपात का प्रश्न है, चाणक्य के जिम्मे भी यह बात आती है। तथापि राजनीति क्षेत्र का वह एक विरल व्यक्तित्व है और इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ में अंकित है और लोक में श्रद्धा तथा सुयश का भागी है।

सिकन्दर तथा चाणक्य दोनों युद्ध के हेतु रहे। किंतु सिकन्दर कलंकित और चाणक्य यशस्वी। इसका एक मात्र कारण यही है कि चाणक्य का उद्देश्य उसकी महत्वाकाँक्षा का ध्येय और उसके सारे युद्धों का लक्ष्य शुभ था। जहाँ विजय के पीछे सिकन्दर की यह महत्वाकाँक्षा थी कि वह सारे संसार का एक छत्र शासक बने, संसार उसकी अपराजेय शक्ति के सम्मुख नमन करे, उसका साम्राज्य विस्तार हो और मानव-जाति उसकी दास बने। वहाँ चाणक्य की महत्वाकाँक्षा यह थी कि देश की राजनीतिक अव्यवस्था तथा अस्तव्यस्तता दूर हो। शासन में स्थिरता जाये। छोटे-छोटे राज्यों के रूप में खण्ड-खण्ड देश एक ओर एक राष्ट्र बने। राजाओं की अनीति और अत्याचार का दमन हो, नन्द जैसे राजाओं का उन्मूलन हो, जनता का बास दूर हो, सब और सुख-शाँति और व्यवस्था की परिस्थितियाँ दिखाई देने लगे। राष्ट्र एक संगठन और एक राजनीति सूत्र में बद्ध हो। इसकी शक्ति बढ़े, आचरण उज्ज्वल हो और देश से विदेशियों का भय दूर हो।

जहाँ सिकन्दर की महत्वाकाँक्षा उसके शक्ति-दर्प और व्यक्तिगत अहंकार से प्रेरित थी वहाँ चाणक्य की महत्वाकांक्षा का आधार देश-शक्ति, राष्ट्र-शक्ति, समाज के हित और लोक रंजन ही था। उसका उसमें यत्किंचित भी अहंकार अथवा स्वार्थ न था। यही शुभ और अशुभ का अन्तर था, जिससे दोनों की महत्वाकाँक्षाओं ने दोनों की ऐतिहासिक स्थिति में आकाश पाताल का अन्तर कर दिया।

मनुष्य को महत्वाकाँक्षी होना चाहिये महत्वाकाँक्षा से ही मनुष्य महान् बनता है। बिना ऊंची कल्पना और आकाँक्षा के वह योंही सामान्यतर स्थिति में पड़ा रहता है। किंतु अपनी महत्वाकाँक्षा में शुभ-अशुभ का ध्यान अवश्य रखना चाहिये। नहीं तो साधारण व्यक्ति जहाँ कुछ समय के लिये सीमित क्षेत्र में ही अपवाद कलंक अथवा धिक्कार के पात्र बनते है, वहाँ असाधारण व्यक्ति अशुभ आकाँक्षाओं के कारण इतिहास में स्थायी रूप से युग-युग धिक्कारे जाते है। यह जीवन की बड़ी व्यापक विराट् और दूरगामी असफलता है। इस परिणाममूलक महत्वाकाँक्षा से कही अच्छा एवं कल्याण है कि मनुष्य साधारण जीवन-परिधि में सज्जनतापूर्वक चुपचाप जीवन पूरा कर ले। इससे यह महान् भले न बन पाये, किंतु लोक से लेकर परलोक तक युग-युगान्तर के लिये उसकी आत्मा तो कलंक, ग्लानि और पश्चाताप की आग में न जलेगी।

यदि आपकी महत्वाकाँक्षा धनवान्, यशवान् अथवा बलवान् बनने की है- बड़ा अच्छा है। आपको उसे मूर्ति मान करने के लिये यथासाध्य पुरुषार्थ और प्रयत्न भी करना चाहिये, फिर भी इससे पहले कि आप अपनी महत्वाकाँक्षाओं से प्रेरित एवं परिचालित हो यह देख लीजिए। पूरी तरह विवेचन कर लीजिए कि आपकी महत्वाकाँक्षा अशुभता के दोष से तो दूषित नहीं है। उसमें लोक-रंजन, सामाजिक हित अथवा आत्मोद्धार की भावना के स्थान पर शोषण प्रतिशोध प्रतिहिंसा, भोग, विस्तार आदि के विषैले बीज तो सन्निहित नहीं है। यदि ऐसा हो तो तत्काल ही अपनी उन महत्वाकांक्षाओं को तिलाँजलि दे दीजिए अथवा उनका सुधार संशोधन कर डालिए, क्योंकि इससे तो लोक से लेकर परलोक तक के बनने-बिगड़ने की सम्भावना होती है। अवयन्त्र और अशाँति मूलक महानता से शाँति-संतोष और सुखदायक सामान्यता हजारों लाखों गुना अच्छी है।

इस सम्बन्ध में आत्म-विवेचना करते समय निष्पक्ष और निःस्वार्थ रहने की आवश्यकता है। यदि आँख पर से इन आवरणों को उतार कर दिग्दर्शन न किया गया तो अपने दोष दिखाई न देंगे। स्वार्थ और पक्षपात के दोष दृष्टि को ऐसा कोण दे दिया करते है, जिससे असत्य, सत्य और अहित, हित दिखलाई देने लगता है और मनुष्य अपने ही दृष्टिकोण से स्वयं प्रवंचित हो जाता है। इसलिए महत्वाकाँक्षाओं के विषय में उनके रूप और उनका विवेचन करने में बहुत ही सतर्क और सावधान रहना चाहिये।

महत्वाकांक्षी बनिए, उनमें शुभ संकल्प का समारोपण करिये, उनको मूर्तिमान करने के लिए सत्पथ का अवलंबन करिये और संसार में महान् उन्नतिशील और यशस्वी होकर इस महत्वपूर्ण मानव जीवन को सफल एवं सार्थक बनाइये। परमेश्वर आपकी सहायता करे।


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