वसुधैव कुटुंबकम्- हमारी गतिविधियों का मूल प्रयोजन

June 1969

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सगर पुत्रों को शोक सन्ताप की आग में जलते रहने से उबारने के लिए भगवती गंगा का अवतरण आवश्यक था। भागीरथी तपस्या ने उस कठिन कार्य को असम्भव से सम्भव बनाया, इतिहास की पुनरावृत्ति अब फिर होने जा रही है। गंगा का अवतरण आज की परिस्थितियों में आवश्यक है। विचार क्राँति की धारा इसी प्रयोजन को पूरा करेगी। अन्य युगों में भगवान ने अवतार किसी भी कलेवर में किया है।- इस युग में उन्हें व्यापक विवेक के रूप में अवतरित होगा। हमारे व्यक्तिगत और सामूहिक प्रयत्नों का विवरण और प्रक्रिया का अस्तित्व और व्यक्तित्व का उद्देश्य भी यही है। जन आन्दोलन और तप संधान दोनों ही गतिविधियाँ साथ लेकर दोनों कदम आगे बढ़ रहे हैं। हमारा परिवार दैनिक 24 लक्ष गायत्री पुरश्चरण में संलग्न वाला समस्त दीवारें गिराई जा रही है। समस्त मानव समाज को एकता एवं आत्मीयता के मुख्य बन्धनों में आबद्ध किया जाना हैं।

नया युग कुछ आदर्शों को लेकर आ रहा है। - (1) एकता, (2) समता, (3) शुचिता (4) ममता। यह सत्प्रवृत्तियाँ जब उमंगने और छलकने लगेंगी तो आज प्रत्येक क्षेत्र में संव्याप्त विकृतियों अव्यवस्थाओं, उलझनों कुंठाओं एवं समस्याओँ का कोई कारण न रह जायेगा और सर्वत्र सुख शाँति प्रगति एवं समृद्धि भरी स्वर्गीय परिस्थितियाँ परिलक्षित होने लगेंगी।

लगता है यह बहुत कठिन है। विकृतियों से भरे अन्धकार युग की लंबे पाँच हजार वर्षों की अवधि में जो अनाचार मानव स्वभाव में सम्मिलित कर दिया है, उसने एक परम्परा जैसा रूप धारण कर लिया है। ऐसे व्यामोह ग्रस्त लोक मानस को बदल कर न्याय एवं औचित्य के अनुरूप विवेक सम्मत बनाना निस्सन्देह कठिन है पर कठिन काम भी मनुष्यों ने ही किये हैं। ईश्वर की इच्छा ओर मनुष्यों के प्रबल पुरुषार्थ का सम्मिलित स्वयं बड़े बड़े आश्चर्यजनक परिवर्तन उत्पन्न करता रहा है। आगे भी उसकी पुनरावृत्ति होनी कठिन भले ही लगे असंभाव्य नहीं है।

नये विश्व का नया निर्माण एकता, समता, शुचिता और ममता की चार आधार शिलाओं पर निर्भर है। इन चारों को संसार के कोने कोने में विभिन्न देशों और विचारों के व्यक्तियों में अलग अलग ढंग से प्रतिष्ठापित, परिपुष्ट एवं फलित किया जा रहा है। भारत में शतसूत्री योजना के आधार पर यही की परिस्थितियों के अनुरूप उपरोक्त चार प्रक्रियाओं का संचालन किया जा रहा है।

चार आधारों में प्रथम है एकता। जड़ पदार्थ एक और एक मिलकर दो होते है। पर जीवित व्यक्ति ‘एक और एक मिलकर ग्यारह’ होने की उक्ति चरितार्थ करते है। एकता की सुदृढ़ श्रृंखला में पिरोये हुए मनुष्य हार में गुथे हुए मोतियों की तरह सुन्दर लगेंगे और उनकी शोभा से सारा वातावरण सुरक्षित हो उठेगा।

मनुष्य की शक्ति एकता से ही बढ़ेंगी। समाज की उन्नति एकता पर निर्भर है। विश्व से शाँति की स्थापना के लिए एकता नितान्त आवश्यक है। यह एकता हमारे चतुर्विधि नवनिर्माण प्रयोजनों में सर्वप्रथम है। एकता क्षमता, शुचिता और ममता का लक्ष्य प्राप्त करना ही नव निर्माण है। वर्तमान अव्यवस्थाओं के स्थान चतुर्विधि सुव्यवस्थाओं की स्थापना ही युग परिवर्तन है। इस पुण्य प्रयोजन के लिए अग्रसर होते हुए हमें विश्वव्यापी एकता के लिए कठोर प्रयत्न करना होगा। कहा जा चुका है कि एकता के भी चार स्तम्भ है- धर्म, संस्कृति, भाषा और शासन इनके बीच जो खाइयाँ बन गई है,उन्हें पाटना है। विभिन्नताओं के निराकरण का अनेकता का एक रूपता के लिए प्रयत्न करना है। यही हमारी युग निर्माण योजना का साराँश है। इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए भारत में हिन्दू धर्मानुयायी जनता को जो करना है उसका एक शतसूत्री कार्यक्रम हम लोगों के जिम्मे आया है। इससे मिलती जुलती, विभिन्न देशों ओर समाजों की स्थिति के अनुरूप संसार भर में अन्यत्र भी योजनायें बनी हैं और नव निर्माण के अग्रदूत उन्हें अपने अपने ढंग से कार्यान्वित कर रहे हैं। योजना के स्वरूपों में अन्तर है। पर आधार सबका एक है। एकता समता, शुचिता और मस्ता का व्यापक विचार करने के लिए हमारे कदम आगे बढ़ रहे है।

(1) धर्मो की अनेकता क्यों? जब ईश्वर एक है- उसका संसार एक है- उसके पुत्र एक है- ईश्वर का संदेश एक है- उद्देश्य एक है तो फिर धर्म भी एक ही होना चाहिए। अनेक धर्म- जो परस्पर टकराते है- एक दूसरे का खण्डन करते है- एक दूसरे से विपरीत दिशायें दिखाते है- ईश्वर प्रेरित नहीं हो सकते। हो सकता है सभी के मूल में धर्म की अनादि आस्थाओं का समावेश रहा हो पर पीछे चलकर उनमें इतने अधिक जंजाल जुड़े कि सत्य से बढ़कर असत्य और विवेक से बढ़कर अविवेक उनमें जुड़ गया। यदि ऐसा न होता तो धार्मिक कहे जाने वाले लोगों का चरित्र एवं स्वभाव तो आदर्श रहा होता। देखने में ऐसा कहाँ आता है? आज तो हर धर्म, सम्प्रदाय वाला यह माने बैठा है कि अपने वर्ग की क्रिया प्रक्रियाओं को अपनाकर उसने धर्म आस्तिकता और स्वर्ग भक्ति का ठेका उसने ले लिया। अपने वर्ग की मान्यताओं को सत्य और दूसरों की असत्य सिद्ध करने के लिए धर्म ध्वजों सारा बुद्धि कौशल व्यय करते रहते हैं। शास्त्राओं के अखाड़ों में आये दिन कुश्तियाँ होती देखी जा सकती है। वाक् वाण और कागजी गोले चलते रहते तो भी सहन किया जाता पर इस वेदी पर कितने निरीह प्राणियों का रक्त निर्दयता के साथ बहता रहा है। इसका स्मरण करके रोमांच खड़े हो जाते हैं। दूसरे धर्म वालों पर अपने धम्र की गरिमा थोपने के लिए इतना नर संहार अब तक इस दुनियाँ में हुआ है, जितना समस्त युद्धों में भी नहीं हुआ। क्या यही स्थिति उपयुक्त है? क्या इसे ही बने रहने देना चाहिए। विभिन्नताओं की उलझनें सत्य तक पहुँचने के लिए भारी बाधा है। आज का धर्म जंजाल इतना उलझा हुआ है कि वह वास्तविक धर्म तक आत्मा को पहुँचने देने में सहायक नहीं बाधक ही सिद्ध हो रहा है।

विवेक का तकाजा है कि धर्म की एकरूपता होनी चाहिए। समस्त विश्व का एक ही धर्म होना चाहिए। उसमें सत्य, न्याय, नीति, सदाचार, शिष्टाचार आदर्श, औचित्य उदारता, स्नेह सद्भावना संतोष संयम जैसी मान्यताओं को प्रश्रय मिलना चाहिए। माननीय आस्थाओं और प्रक्रियाओं को जो पशुता के स्तर से ऊँचा उठाकर देवत्व की दिशा में विकसित कर सके वही विश्व धर्म हो सकता है। अगले दिनों ऐसे ही विश्व धर्म का विकास होना है। संसार के कोने-कोने में रहने वाले एक ही प्रकार के धर्म को मानेंगे। एक ही प्रकार की पूजा पद्धति से सब का काम चल जायगा। एक ही धर्म मंच पर सब लोग इकट्ठे हुआ करेंगे। धर्म के नाम पर व्यय होने वाले समय श्रम तथा धन इन्हीं प्रयोजनों में लगेगा। ऐसा विवेकपूर्ण धर्म, मनुष्य मनुष्य के बीच प्रेम और आत्मीयता उत्पन्न करने तथा अन्तःकरण के दिव्य तत्वों के उत्कर्ष में सहायक होगा। धर्म के नाम पर विराजमान मूढ़ मान्यताओं और व्यर्थ आडम्बरों में लगी हुई आज की ज्ञानवान शक्ति जब विश्व कर्म की विवेकसम्मत आदर्शवादी प्रतिष्ठापनाओं में नियोजित होगी, तब उसके रचनात्मक परिणाम इतने शानदार होंगे कि यह संसार स्वर्ग जैसा दिखाई देने लगेगा।

(2) विश्व संस्कृति की एकता भी वैसी ही आवश्यक है जैसी विश्व धर्म की। आज संस्कृति भी धर्म में जुड़ गई है। वस्तुतः वे दोनों अलग है। रीति- रिवाज, आचरण, शिष्टाचार, आचार-व्यवहार, रहन सहन, तर्ज तरीका यही संस्कृति के अंग है। इनमें पृथकता से रहने से मनुष्य मनुष्य के बीच पृथकता और परायेपन के भाव उठते हैं। अब किन्हीं आधारों पर जातियाँ बनती चली जा रही है। जो लोग अपनी भाषा बोलते हैं, अपने जैसी पोशाक पहनते है, वेश विन्यास रखते है, आहार विहार करते है।, रीति रिवाज मानते है, उनके साथ सहज स्नेह हो जाता है और भिन्न प्रक्रियाओं वाले पराये लगते है। यह अपने पराये की प्रक्रिया संसार में भारी विद्वेष एवं विश्रृंखला पैदा कर रही है। भारतवर्ष जाति-पाँति और धर्म, संप्रदायों के नाम पर इतना अधिक विभक्त है कि सर्व? उसकी हँसी उड़ाई जाती है ओर आत्मिक दुर्बलता में ग्रसित पिछड़ा हुआ देश माना जाता है। वहाँ तथा कि राजनैतिक पद पर जाति पाति हाथी है। चुनावों में जीतना अब बहुत करके इसी आधार पर होता है। भले ही कोई बाहर से इसका खण्डन करें पर जानते सब है कि वस्तुस्थिति यही है।

सुस्थिर मानवीय एकता के लिए साँस्कृतिक एकता आवश्यक है। जीवन यापन की विभिन्न दिशाओं में हमें सर्वभौम एकता स्थापित करनी ही पड़ेंगी। पोशाकें इतनी अधिक तरह की न हों, एक ही तरह के वस्त्र सब लोग पहनें तो कपड़े की सिलाई का तीन चौथाई व्यय बच सकता है और वह बचत शिक्षा, स्वास्थ्य आदि के संवर्धन में लगाई जा सकती है। त्यौहार की एकता हो तो सारे समाज में एक ही समय एक सा उल्लास जगता दिखाई पड़े। विवाह शादियों के रीति रिवाज एक जैसे सरल और सस्ते हो तो इन व्यर्थ आडम्बरों में शक्ति बच जाय ओर उनका उपयोग परिवारों का स्तर ऊंचा उठाने में किया जा सकें। साँस्कृतिक एकता के बिना विश्व मानव की एकता सुस्थिर न बन सकेंगी। विज्ञान और शिक्षा की प्रगति ने संसार को बहुत छोटा बना दिया है सुदूर द्वीप महाद्वीप अब गली मुहल्ले की तरह समीप आ गये हैं, द्रुतगामी वाहनों ने दूरी जब यह परिस्थितियाँ न थी, सुदूर देशों के निवासी परस्पर परिचय के अभाव में अलग अलग ढंग ढर्रे को अलग अलग रीति रिवाजों को अपनाये रहने के लिए विवश थे। पर अब वैसी परिस्थिति नहीं रही। संसार समीप आ रहा है तो हमारी संस्कृति भी समीपवादी ही होनी चाहिए। अब पृथकताओं पर अड़े रहने का, अपनी को श्रेष्ठ दूसरे की को निकृष्ट बताते रहने का कोई कारण नहीं। संसार भर में फैली हुई विभिन्न संस्कृतियों में से चुने हुए सर्वश्रेष्ठ सर्वोपयोगी अंश लेकर एक सर्वांगपूर्ण सार्वभौम संस्कृति का निर्माण अब होने ही वाला है। युग की माँग ऐसी ही है।

संसार में किसी भी कोने में रहने वाले व्यक्ति की यह अनुभव करना होगा कि यह विश्व परिवार का एक घटक है। विश्व संस्कृति की एक इकाई के रूप में ही उसे अपना रहन-सहन एवं प्रथा, परम्पराओं को अपनाना है। जिस प्रकार छोटे-छोटे वर्गों में एक ही प्रकार के रिवाज चलते हैं, उसी प्रकार जब समस्त विश्व का एक सम्मिलित वर्ग होगा, एक ही समाज बनेगा, एक ही कुटुम्ब का आचरण होगा तो प्रथा-परम्पराओं में भी एकरूपता उत्पन्न करनी होगी। रुचि भिन्नतायें रह सकती है- कोई वालों में कंघी कैसे करें, कोई साबुन कौन-सा लगाये जैसी छुट-पुट वैयक्तिक अभिरुचियों में विभिन्नता रह सकती है। आचार विचार, व्यवहार और शिष्टाचार की सामान्य रीति-नीति और प्राि परम्परा समस्त विश्व में एक जैसी होनी चाहिए।

कहना न होगा कि इस दृष्टि से भारतीय धर्म, अध्यात्म तथा संस्कृति विश्व मानव का सार्वभौम आवश्यकताऐं पूरी करने में भली प्रकार समर्थ है। पिछले पाँच हजार वर्षों में जो विकृतियाँ उत्पन्न हुई है, यदि उन्हें निकाल दिया जाय तो विशुद्ध भारतीय मान्यतायें इसी स्तर की है, मानों किसी ने समस्त मानव जाति के लिए वास्तविकता उपयोगिता और औचित्य का ध्यान कर ही विनिर्मित किया हो। निकट भविष्य में जिस नवयुग को लाने की साधना चल रही हैं, वही प्राचीनकाल में चिरकाल तक यहाँ विद्यमान रहा है और एकता समता और ममता की गंगा यमुना, सरस्वती यहाँ बहती रही है। अस्तु भारतीयता में विश्व धर्म एवं विश्व संस्कृति के बीज विद्यमान परिलक्षित हैं तो इसमें आश्चर्य की कुछ बात नहीं है।

(3) विश्व धारा की आवश्यकता वसुधैव कुटुंबकम् की स्थिति उत्पन्न करने के लिए अनिवार्य है। वह कैसा कुटुम्ब जिसके सदस्य एक दूसरे की बोली न समझें, परस्पर बातचीत तक न कर सकें, विचारों के आदान प्रदान के लिए भाषा ही माध्यम है। भाषाओं की भिन्नता मनुष्य को एक सीमित समाज एवं क्षेत्र में संकुचित करती है। विश्व के विशाल ज्ञान भण्डार को सरलतापूर्वक उपलब्ध करने, हर विश्व नागरिक को निर्बाध गति से विचार विनियम करने के लिए एक विश्व भाषा की आवश्यकता है। अन्यथा मानवता टुकड़ों में क्षेत्र और प्रान्तों में विभक्त बनी सड़ती चलती रहेगी। हम भारतवासी एक राष्ट्रवासी एक राष्ट्रभाषा की आवश्यकता अनुभव करते हैं, इसी प्रकार यदि विश्व नागरिकता का - वसुधैव कुटुंबकम् का विस्तार होता है तो उसके आधार भी तैयार करने होंगे। इन आधारों में एक विश्व भाषा का महत्वपूर्ण स्थान होगा।

समस्त विश्व के लिए एक ही भाषा में साहित्य छपने लगे तो यह कितना सस्ता और कितना उच्चकोटि का होगा, इसकी कल्पना मात्र से भारी उत्साह पैदा होता है। मनुष्य ने अब तक जो ज्ञान विभिन्न दिशाओं में संचित किया है, वह इतना अधिक है कि उसका उपयोग हमें सहज ही महत्वपूर्ण उपलब्धियों से लाभान्वित कर सकता है। पर खेद इसी बात का है कि वह ज्ञान भाषाओं की भिन्नताओं के कारण सीमित क्षेत्रों में बन्दी बना पड़ा है। यदि एक विश्व भाषा होती तो पुस्तकालयों के माध्यम से ऊँचे से ऊँचा ज्ञान सर्व साधारण तक सहज हो पहुँच सका होता। संसार भर के लोग परस्पर पत्र व्यवहार और विचारों का आदान प्रदान कर सके होते। तब विश्व समस्याओं का हल ढूंढ़ सकना और एक देश के नागरिकों का अन्य देशवासियों के अति निकट पहुँच सकना सम्भव हो गया होता। विश्व की वह ज्वलन्त आवश्यकता हमें पूरी करनी ही होगी। संस्कृत भाषा में यह सारी विशेषतायें विद्यमान है, वस्तुतः किसी समय वह विश्व भाषा ही थी और अगले दिनों अपने महान गुणों के कारण यदि वह पुनः अपना स्थान प्राप्त कर लें तो यह तनिक भी आश्चर्य की बात न होगी।

(4) विश्व शासन ही समस्त राजनैतिक तथा सामाजिक समस्याओं का हल कर सकेगा। यातायात साधनों के अभाव में छोटे-छोटे सामन्ती राज्य शासनों की आवश्यकता रही होगी पर अब राष्ट्रवाद भी, प्रान्तवाद जाति वाद जैसी ही संकीर्णता का प्रतीक बनता जा रहा है। अपने देश का लाभ करने के लिए दूसरे देश का शोषण उत्पीड़न करना भी अब देश भक्ति का एक अंग बन चला है। दूसरे देश के साथ अन्याय करके भी अपने देश का लाभ करने वाले आज की अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति इसी आधार को अपनायें हुए है कि अपने देश का लाभ जैसे भी बनें, वैसे किया जाय। युद्धों का मूल कारण यह राष्ट्रवाद के नाम पर पनप रही क्षेत्रीय संकीर्णता ही हैं तस्कर व्यापार पनपने का कारण यही है। एक देश के पास उपयोग के पर्याप्त साधन हों और दूसरे देश वाले उससे वंचित रहे। एक क्षेत्र में विपुल सम्पन्नता और पड़ौस के क्षेत्र में विपुल विपन्नता रहे, इसका कारण विश्व वसुधा एवं विश्व वसुंधरा की राष्ट्रवाद के आधार पर कृत्रिम रूप में खण्ड खण्ड कर देना ही है।

यदि यह रेखायें मिटा दी जायें और समस्त संसार एक राष्ट्र बन जाय, एक शासन के असंगत शामिल हो तो फिर युद्धों महायुद्धों की विभीषिका सदा के लिए समाप्त हो जाय। एक प्रांत में छोटे-छोटे अनेक जिले जोते हैं, उनकी शासन व्यवस्था अलग अलग रहते हुए भी एक केन्द्र से संसार के समस्त राष्ट्र शासित हों तो उनके झगड़े विश्व न्यायालय से तय होते रहेंगे। परस्पर लड़ने की कोई सम्भावना न रहेंगी आशंका भय और अविश्वास से ग्रसित राष्ट्र आजकल सुरक्षा के नाम पर जो विपुल धन व्यय कर रहा है, उसकी कोई आवश्यकता न रह जायगी। आजकल प्रायः एक चौथाई आय युद्ध कार्यों की शिक्षा व्यवस्था में लगती है। वह बच जाय तो उतने साधन मानवीय भ्रातृत्व एवं सुख सुविधा के साधन जुटाने में लगाये जा सकते हैं और देखते देखते यह संसार स्वर्गीय सुख शाँति से ओत प्रोत हो सकता है।

विश्व शासन के अंतर्गत एक ही समाज का सहज विकास हो सकता है। आचार संहिता, न्याय, नैतिकता, के कानून एक से हो सकते है। व्यापार को निर्वाधता से गरीबी और अमीरी का -उत्पादन और अभाव का समान रूप से वितरण हो सकता है और प्रकृति के अनुदानों का समान लाभ उठाते हुए धरती के समस्त निवासी जीवनोपयोगी आवश्यकताओं की पूत्रि सहज ही कर सकते हैं। उन परिस्थितियों से आज की अगणित समस्याओं का हल जादू की तरह निकल सकता है और जिन शोक संतापों से आज मानवता पीड़ित है, उनका नाम निशान मिट सकता है।

विश्व व्यापी एकता और मानव भ्रातृत्व को एक मधुर कल्पना के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ के आदर्श को एक सरस स्वप्न मात्र माना जाता है। सम आ गया कि इन कल्पनाओं और स्वप्नों को साकार बनाया जाय। एकता की उपयोगिता एवं आवश्यकता को यदि हम समझते स्वीकार करते है तो उनके आधारों को भी ढूंढ़ना होगा। पलंग के चार पायों की तरह एकता के भी चार स्तम्भ है- (1) धर्म (2) संस्कृति (3) भाषा (4) शासन। विश्व को एकता के सूत्र में आबद्ध करना हो तो इन चार आधारों में भी सार्वभौम स्तर पर एकता और एक रूपता भी उत्पन्न करनी ही होगी।

युग निर्माण योजना के विविध कार्यक्रमों के पीछे यही मूल भावना एवं प्रक्रिया काम कर रही हैं। शतसूत्री रचनात्मक कार्यक्रमों का महत्व इसलिए है कि ये व्यक्ति को वर्तमान संकीर्णता की परिधि से ऊपर उठकर सत्य और तथ्य को समझने स्वीकार करने की प्रेरणा उत्पन्न करते है। इसी प्रेरणा के आधार पर उन कुसंस्कारों और मूढ़ताओं से छुटकारा पाया जा सकेगा। यह कार्यक्रम एक प्रकार के कर्मकाण्ड है। कर्मकाण्डों का उद्देश्य भावनाओं को प्रदीप्त करना है। आत्मिक प्रगति का सारा आधार भावनाओं पर निर्भर है। नव निर्माण के कार्यक्रम तो करते रहे पर उनके पीछे सन्निहित तत्व ज्ञान और प्रयोजन से विलग रहे तो भी काम चलने वाला नहीं है। हममें से प्रत्येक को यह जानना चाहिए कि हम विश्व का नव निर्माण जनमानस में एकता, समता, शुचिता और ममता की उत्कृष्ट आदर्शवादिता स्थापित करने जा रहे है। भावनात्मक परिवर्तन पर ही व्यक्ति महानता, समाज की सुदृढ़ता और विश्व की समग्र शाँति आधारित है।

हमारा छोटा सा जीवन इसी प्रयोजन के लिए जिया गया। लगभग 60 वर्षों की लम्बी अवधि इसी साधना में लग गई, अब जो दिन शेष है उनकी गतिविधियाँ भले ही भिन्न प्रकार की दीखें पर उनकी दिशा यही है। जीवन के प्रथम चरण 24 पुरश्चरणों की साधना में 20 वर्ष लोक मंगल के आन्दोलनात्मक अभियान में बीते अब एकांत तपश्चर्या में उस शक्ति का उद्भव सन्निहित है, जो सजग संस्कारवान आत्माओं में से व्यामोह भरे कषाय कल्मषों को हटाकर उन्हें ईश्वरीय प्रयोजन की पूर्ति में नव निर्माण की साधना में संलग्न कर सकें।


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