लक्ष्मी का निवास

June 1964

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उत्तरायण सूर्य आने पर प्राण त्यागने की प्रतीक्षा में शरशैय्या पर पड़े हुए भीष्म पितामह से युधिष्ठिर ने विनयपूर्वक पूछा-भगवन्! लक्ष्मी का निवास कहाँ रहता है? यह रहस्य कृपापूर्वक मुझे बता सकें तो वैसा अनुग्रह कीजिए।

भीष्मजी ने उत्तर दिया-राजन ऐसा ही प्रश्न एक बार रुक्मिणी ने साक्षात् लक्ष्मीजी से पूछा था। उन्होंने स्वयं जो उत्तर दिया था उसे ही मैं तुम्हें सुना रहा हूँ।

लक्ष्मी बोली-हे रुक्मिणी! मैं ऐसे लोगों के यहाँ रहती हूँ जो निर्भीक, क्रियाकुशल, कर्त्तव्यपरायण, हंसमुख, कृतज्ञ, जितेन्द्रिय तथा सत्यपरायण हों। जो लोग गुरुजनों का सम्मान करते हैं। मन को वश में रखते हैं, शक्ति बढ़ाते है, परिश्रम करते हैं, समय नहीं गंवाते और जागरुक रहकर सब काम करते हैं, छोटों को क्षमा करते हैं, ईर्ष्या-द्वेष से बचे रहते हैं उन दूरदर्शी मनुष्यों के यहाँ में सदा ही बनी रहती हूँ।

किन्तु जो आलसी, क्रोधी, कृपण, व्यसनी, अपव्ययी, दुराचारी, कटु वचन बोलने वाले, अदूरदर्शी और अहंकारी होते हैं उनके कितने ही प्रयत्न करने पर भी मैं अधिक दिन नहीं ठहरती।

जिन घरों में स्त्रियों को सम्मानित और सन्तुष्ट रखा जाता है, देव पूजन और स्वाध्याय होता है, जहाँ सब लोग प्रेमपूर्वक मिल जुलकर रहते हैं, अनुशासन में रहते हैं, उदारता बरतते और प्रसन्नचित रहते हैं और वहाँ से अन्यत्र जाने को मेरा मन नहीं रहता। परन्तु जहाँ जुआ, परनिंदा, देर से सोना, देर से उठना, चटोरापन, मिथ्याचार, सज्जनों का उपहास और धर्म के प्रति उपेक्षा रहती है वहाँ क्षण भर ठहरना भी मुझे कष्टकारक होता है।


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