महर्षि कर्वे यों एक शतायुष व्यक्ति का नाम है पर हम चाहे तो उन्हें आदर्श पर मर-मिटने वाले जीवन्त संकल्प के रूप में भी पहचान सकते हैं। जीवन के प्रथम भाग में ये प्रोफेसर थे। अच्छा वेतन मिलता था और मौज की जिन्दगी कटती थी। पर जिन्हें मानव-जीवन के अनुपम अवसर का महत्व विदित है वे मौज से घृणा ही कर सकते हैं, उन्हें अपने को जला कर दूसरों के लिए प्रकाश उत्पन्न करना ही बुद्धिमतापूर्ण लगता है।
चढ़ती उम्र में वे विधुर हो गये। प्रथम पत्नी का स्वर्गवास होने पर घर बसाने के लिए दूसरी पत्नी की आवश्यकता अनुभव की गई तो उन्होंने निश्चय किया कि यदि विवाह करना ही होगा तो विधवा-विवाह करेंगे। कुमार पुरुष ही कुमारी कन्याओं से विवाह के अधिकारी हो सकते हैं। विधुरों को यदि विवाह आवश्यक है तो वही सुविधा विधवाओं को क्यों न मिले? यह तर्क उन्हें न्याययुक्त लगा और जो उचित हो उसे ही करना किसी सच्चे मनुष्य के लिए गौरव की बात हो सकती है। उस जमाने में ब्राह्मण-वर्ण में विधवा विवाह की बात कहना सुनना भी अचंभे जैसा लगता था। फिर भी उनने निश्चय यही किया कि विधवा से विवाह न कर सकें तो वे शेष जीवन अविवाहित ही व्यतीत करेंगे।
उन्होंने एक स्वल्प शिक्षित बाल-विधवा से विवाह कर लिया और उसे सुशिक्षित बनाकर नारी जाति की सेवा के लिए कुछ विशेष कार्य करने की बात सोची। विधवा-विवाह करने के उपरान्त उन्हें जाति से बहिष्कृत होना पड़ा। समाज में उन्हें पापी और पतित जैसा माना जाने लगा। कहीं जाते तो लोग मुँह फेर लेते और पीने को पानी माँगने पर उसे भी देने से इनकार कर देते। इतने अपमान सहते हुए भी उनने मन हलका न होने दिया। और प्रेम-पूर्वक पत्नी को सुशिक्षित बनाने में लगे रहे।
कुछ दिनों बाद उनने नौकरी छोड़ दी और दुर्दशा ग्रस्त अबलाओं को सुशिक्षित एवं स्वावलम्बी बनाने के लिये एक संस्था खड़ी करने का निश्चय किया। यह बड़ा दुस्साहसपूर्ण कदम था। आजीविका से हाथ धोकर बिना किसी ठोस सहायता इस प्रकार का कार्य आरंभ कर देना लोगों की दृष्टि में मूर्खतापूर्ण था, वे इसे एक सनक समझते थे और सोचते थे यह ऊट-पटाँग बात जल्दी ही बन्द हो जायेगी। पर कर्वे दूसरी ही मिट्टी के बने थे। जो कदम उठाया सो उठाया। संकल्प शक्ति से उसे पूरा करके ही चैन लिया।
पूना के सदाशिव पेठ मुहल्ले में किराये के एक मकान में सन् 1896 में कर्वे दम्पत्ति ने, ‘अनाथ बालिका श्रम ची मण्डली’ प्रारंभ की। आरंभ में इसमें केवल चार छात्राएं थीं। उनका यह कार्य लोगों को पसंद नहीं आया। विधवाओं और निराश्रित महिलाओं को पढ़ने से क्या काम, उन्हें तो घर के भीतर दुःख-सुख सहते हुए दिन काटना ही धर्म-संगत है। ऐसी जन-मान्यता के बीच अनाश्रित नारियों को स्वावलम्बी एवं शिक्षित बनाने की योजना लोकप्रिय हो सकेगी इसकी कम ही संभावना दीखती थी। फिर कर्वे दम्पत्ति विधवा-विवाह का दुस्साहसपूर्ण कदम उठाकर अपनी प्रतिष्ठा भी तो खो चुके थे। कितनी भारी अग्निपरीक्षा में होकर इन संस्थाओं को गुजरना पड़ा होगा, आज की सुधरी हुई परिस्थितियाँ हमारे लिए उनकी कल्पना कर सकना भी कठिन है।
नगर में प्लेग फैला और लोग बेहिसाब मरने लगे तो विद्यालय को नगर से बाहर ले जाने की बात सोची गई। एक खेत में छोटी-सी पर्णकुटी बनाकर आश्रम चलाया जाने लगा। खेत के मालिक को कार्य की उपयोगिता प्रतीत हुई और उसने थोड़ी सी भूमि इस कार्य के लिए दे दी। निकट के गाँव वाले जो आरंभ में तरह-तरह के व्यंग्य उपहास किया करते थे, जब वस्तु स्थिति को समझे तो उनने भी अपनी लड़कियों को पढ़ने भेजना आरंभ कर दिया।
लोक मंगल के लिए महर्षि कर्वे ने भिक्षा पात्र उठाया। ‘मुट्ठी फण्ड’ की मित्रों के घर व्यवस्था कराई और इस प्रकार जो थोड़ी-सी आय होती उसी से अनाथ अबला-मण्डली का काम चलता। धीरे-धीरे छात्राओं की संख्या बढ़ती गई। जो लोग आरंभ में हंसते थे उन्हें हैरत होने लगी कि परिस्थितियाँ जिस कार्य के बिलकुल अनुकूल न थीं, आमतौर से जिस बात को नापसंद किया जाता था वह समस्त विघ्न-बाधाओं के रहते हुए भी प्रगति पथ पर अग्रसर हो तो इसे सुदृढ़ व्यक्ति का सशक्त संकल्प मानने के अतिरिक्त और समझा ही क्या जा सकता था।
आज वही ‘अनाथ बालिकाश्रमा ची मण्डली’ विशालकाय महिला विद्यापीठ के रूप में यशस्विनी संस्था बनकर खड़ी है। गत 68 वर्षों में उसने सहस्रों उपेक्षित और तिरस्कृत नारियों को सुशिक्षित एवं स्वावलम्बी बनाकर मानवोचित जीवन जी सकने की स्थिति में पहुँचाया है। सहस्रों कन्याओं ने इस संस्था की छाया में शिक्षा प्राप्त करके अपने परिवारों में नव-जीवन की हरियाली उत्पन्न की है। सैंकड़ों ऐसी हैं जो उच्च पदों पर आसीन होकर देश और समाज की प्रगति में महत्वपूर्ण योगदान दे रही हैं।
आर्थिक ईमानदारी और हिसाब पाई-पाई का रखने के बारे में महर्षि कर्वे प्रख्यात हैं। नौकरी छोड़ते समय जो पाँच हजार के लगभग फण्ड मिला था उसे उन्होंने संस्था के आरंभिक संचालन के निमित्त खर्च कर दिया। इसके बाद बीमे की जो रकम उन्हें मिली, उसे उन्होंने बड़े लड़के को पढ़ाई के खर्च के लिए कर्ज रूप में इस शर्त पर दिया कि काम से लगते ही वह उस रकम को वापिस लौटावेगा और उससे उसके दूसरे छोटे भाई की पढ़ाई का खर्च चलेगा। लड़कों ने ईमानदारी से पिता की आज्ञा मानी और अपने छोटे भाई-बहिनों की पढ़ाई के लिए इस शिक्षा काल में लगी हुई उधार रकम को लौटाया। लोग पूछते थे कि भला बाप-बेटे में भी कर्ज देने और वसूल करने का कोई व्यवहार होता है? तो महर्षि कहते- हर मनुष्य को स्वाभिमानी और स्वावलम्बी होना चाहिये। दूसरों की सहायता से हमें जो मिलता है उसे समयानुसार दूसरों की सहायता से खर्च करना न भूलें यही ईमानदारी की बात है। मैं अपने बच्चों को ईमानदारी और स्वावलम्बी देखना चाहता हूँ। इसलिए उनकी जो सहायता करता हूँ उसे वैसी ही स्थिति के दूसरों लोगों की सहायता करने की शर्त पर ही देता हूँ। मुफ्त किसी को क्यों तो कुछ लेना चाहिए और क्यों मैं उसे दूँ?
आदर्शवादी महर्षि कर्वे अपने जीवन के सौ वर्ष पूरे कर चुके। उनकी शताब्दी अनेक स्थानों पर मनाई गई। भारत सरकार ने उनके चित्रों वाले डाक टिकट चला कर लोक सेवियों को सम्मान देने का अपना कर्त्तव्य पालन किया। उनकी यशस्विनी संस्था ‘महिला विद्यापीठ’ की हीरक जयंती मनाई गई और देश भर के मनीषियों ने उसके सेवा कार्यों के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त की।
इमर्सन की व्याख्या के अनुसार ‘ऋषि वह वट वृक्ष है जिसकी छाया में अनेकों को शीतलता भरा आश्रय मिलता है।’ महर्षि कर्वे पर यह व्याख्या अक्षरशः खरी उतरी है। उन्होंने अपने जीवन का सारा समय गिरे हुओं को उठाने, अशाँतों को शाँति देने और अन्धकार में प्रकाश उत्पन्न करने में लगाया है। ऐसे ही नर-रत्नों को जन्म देकर कोई जाति अपने को यशस्वी और धन्य बनाती है।