करुणामूर्ति माता टेरीजा

June 1964

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यूगोस्लाविया में जन्मी इस ईसाई संन्यासिनी का जन्म नाम ‘जोग्ज्हा बोजाग्ज्हा’ है। उन्नीस वर्ष की आयु में वे आज से पैंतीस वर्ष पूर्व कलकत्ता के सेन्टमेरी हाईस्कूल में अध्यापिका बनीं और तभी उन्होंने लोरेत्तो मठ में संन्यास की दीक्षा ले ली। संन्यास का नाम उन्हें मिला-’टेरीजा’। स्कूल का काम पूरा होते ही वे गरीबों के गंदे गली मुहल्लों में निकल जाती और वहाँ रोगों से कराहते हुए दर्दी, भूखे बालक, असहाय बूढ़े, पतिता नारी और अशिक्षा एवं अंधविश्वासों के कारण पिछड़े हुए लोगों की जो सेवा उनसे बन पड़ती, दिन भर करती रहती। मानव-जीवन से खिलवाड़ करने वाले अनाचारों के प्रति उनके मन में विद्रोह की भावना तो बराबर उठती थी, पर वे उसे उद्विग्नों की तरह क्रोध करते रहने और अव्यवस्था फैलाने में नहीं वरन् रचनात्मक कार्य करने में लगाया करतीं।

पीड़ित और पददलित मानव की सेवा करने में ईश्वर की सर्वोत्तम पूजा मानने वाले प्रभुपरायण भक्तों में से एक है-माँ टेरीजा। इनने आजीवन कुमारी रहकर ईश्वर उपासना की सर्वश्रेष्ठ पद्धति जनसेवा में अपने जीवन का उत्सर्ग करके आत्म-कल्याण का पथ अपनाया और अपने निश्चित लक्ष्य में बालकपन समाप्त कर जीवन का उदयकाल आरंभ होते ही वे जुट गई।

कलकत्ता, आसनसोल आदि बंगाल के कतिपय नगरों में बंगाली ढंग की किनारीदार सफेद धोती पहने गरीबों के मुहल्लों में इस करुणामयी मातृत्व की मूर्ति नारी को काम करते हुए देखा जा सकता है। गोरी चमड़ी के अतिरिक्त और कोई चिन्ह ऐसा नहीं जिससे उन्हें अभारतीय के रूप में पहचाना जा सके। उनका क्षोभ करुणा में बदल जाता है और सेवा उनका कष्ट कम करने के लिए जो कुछ संभव होता है सो करने लगती है।

सेवा कार्यों में इतनी तन्मयता देखकर उदारमना पोप ने उन्हें रात को देर तक और आवश्यकता पड़े तो रात को बाहर भी रह जाने की छूट दे दी। यों ऐसी संन्यासिनी महिलाओं का मठ के नियमानुसार रात को मठ से बाहर रहना निषिद्ध है। पर पोप ने इस युवती की उच्च आत्मा में मरियम की झाँकी देखी और उन्हें हर प्रकार के प्रतिबंधों में मुक्त कर दिया।

टेरीजा के सेवा कार्यों से प्रभावित होकर उनकी अन्य सहयोगिनियाँ इस क्षेत्र में उतरीं और उनके संगठित प्रयत्नों से पीड़ित मानवता की सेवा के लिए जो महत्वपूर्ण कार्य संभव हुआ है उसे देखकर कोई भी भावनाशील व्यक्ति श्रद्धा से नत-मस्तक हुए बिना नहीं रह सकता।

साध्वी टेरीजा की 169 जीवन दानी, सेवाव्रती साथिन महिला कार्यकर्ता छाया की तरह उनके साथ रहती और आदर्शों का पालन करती हुई दिन-रात एक करती रहती हैं। उनके द्वारा 55 सेवा केन्द्र विभिन्न जिलों में संचालित होते हैं। उनमें से आठ सो कुष्ठ चिकित्सालय ही है जिनमें 2000 से ऊपर कोढ़ियों का उपचार होता हैं। उनके अनाथालयों में निराश्रित बालकों के लिए आरंभ ले लेकर उच्च शिक्षा तक की व्यवस्था है जिनकी संख्या 3000 से ऊपर है। सात अस्पतालों में लगभग पचास रोगियों की चिकित्सा यह लोग करते हैं। छोटे बच्चों के लिए एक विशेष सेवा संस्थान है, गंदी बस्तियों में शिशु विकास के लिए बहुत कुछ किया जाता है। दिल्ली, आगरा, राँची, झाँसी, अम्बाला, अमरावती और बम्बई की गंदी बस्तियों में माता टैरीजा की संस्था- ‘मिशिनरीज आफ चेरिटी’ के अंतर्गत जो कार्य करती है उनके द्वारा वे लोग जिनके भाग्य में केवल तिरस्कार एवं उपेक्षा ही आई है, स्नेह एवं सहानुभूति पाते और अपने को धन्य हुआ अनुभव करते हैं। मृत्यु मुख में जाने वाले वे निराश्रित लोग जो मरणासन्न अवस्था में उसी संख्या के आश्रम में जा पहुँचते हैं, शाँतिपूर्वक मृत्यु का वरण करते है। कई तो इनमें से बच भी जाते हैं।

संन्यासियों के सामने सच्ची उपासना और धर्म परायणता का अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करने वाली माता टैरीजा के सत्प्रयत्नों के लिए किस अभागे का श्रद्धा से मस्तक झुक न जायेगा। मनीला की ‘रैमोन मैग्सासे पुरस्कार समिति’ ने अपना 10 हजार डालर का विश्वबन्धुत्व पुरस्कार दो वर्ष पूर्व ही उन्हें प्रदान किया है और भारतीय गणतंत्र दिवस पर राष्ट्रपति ने उन्हें ‘पद्मश्री’ पदक देकर भारत की सराहनीय सेवा के लिए उनका सम्मान प्रदर्शित किया।

यों ऋषि-सिद्धियों का लाभ प्राप्त करने के भ्रम जंजाल में भटकने वाले साधु बाबाजियों की कमी नहीं। कहने भर को त्यागी, पर वस्तुतः आलसी और व्यसनी लोग त्याग-वैराग्य का झूठा ढोल पीटते रहते हैं। इसमें न उनका कुछ भला होता है और न किसी और का। ऐसे लोगों के लिए माता टेरीजा का उदाहरण ऐसा है जिससे हर विचारशील को प्रकाश और प्रेरणा ग्रहण करने के लिए बहुत कुछ मार्ग-दर्शन मिल सकता है।


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