युग-दृष्टा राजर्षि गोखले

June 1964

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

श्री गोपाल कृष्ण गोखले के व्यक्तित्व की चर्चा करते हुए महात्मा गाँधी ने लिखा है-लोक सेवकों को कैसा होना चाहिए, इसकी जो कल्पना मूर्ति मैंने अपने मन में बना रखी है उस आदर्श के साकार स्वरूप श्री गोखले थे। वे स्फटिक जैसे निर्मल, गाय जैसे सरल, सिंह जैसे शूर थे। उदारता इतनी अधिक थी कि उसे दोष भी माना जा सकता है। मुझे उनके व्यक्तित्व में कहीं रत्ती भर भी दोष नहीं दीख पड़ा। मेरी दृष्टि से राज-नेताओं के क्षेत्र में वे एक आदर्श व्यक्ति थे।

ओछे व्यक्तित्व के मनुष्य कभी बड़े काम नहीं कर सकते। जिस चतुरता के बल पर वे नामवरी और सफलता कमाने की आशा लगाते हैं, अन्त में वही उन्हें धोखा देती है। ओछापन देर तक छिप नहीं सकता और जब वह प्रकट होता तो अपने ही पराये बन जाते हैं और वे लोग जो आरंभ में उनकी प्रशंसा किया करते थे वे ही अन्त में निन्दक और असहयोगी बन जाते हैं। यों सीमित दायरे में जीवन कम रखने वाले को भी वैयक्तिक सफलताओं के लिए उद्दात्त दृष्टिकोण ही रखना अपेक्षित है पर जिसे सार्वजनिक क्षेत्र में काम करना हो उसे ओछापन छोड़कर उदारता और साधुता का ही अवलम्बन करना चाहिए। व्यक्तिगत उत्कृष्टता के अभाव में मनुष्य के सारे गुण निरर्थक सिद्ध होते हैं विशेषतया सार्वजनिक कार्यकर्ता की सफलता तो संदिग्ध ही हो जाती है। धूर्तता के बल पर कोई व्यक्ति लोक नेता के पद पर देर तक आसानी से नहीं रह सकता, भले ही वह किसी प्रकार उसे कुछ समय के लिए प्राप्त करने में सफल हो जाय।

गाँधी जी जौहरी थे-वे मनुष्यों को परखते थे। गुणों के आधार पर नहीं व्यक्तित्व के आधार पर, गोखले को उनने परखा तो खरा पाया और सच्चे मन से उनके अनुयायी हो गये। वे उन्हें अपने राजनैतिक गुरु के रूप में मानते थे और अपनी गतिविधि निर्धारित करने में उनसे बहुत प्रकाश ग्रहण करते थे।

ऋषि शब्द की व्याख्या करते हुए यही कहा जा सकता है कि मानव जीवन की समस्याओं पर जो समग्र रूप से विचार कर सके, युग के अनुरूप अपना कर्त्तव्य निर्धारित कर सके, गिरों को उठाने के लिए जिसके मन में तड़पन उठती हो और स्वयं तपस्वी जीवन बिताते हुए दूसरों को सुखी बनाने का प्रयत्न करे वह ऋषि है। काका कालेलकर ने पिछले दिनों भारत में जन्मी विभूतियों में से देवेन्द्र नाथ ठाकुर, दयानन्द सरस्वती, स्वामी श्रद्धानन्द, गोखले, गाँधी, अरविन्द, रविन्द्रनाथ ठाकुर, ऐनी वेसेन्ट आदि महा मानवों को ऋषि श्रेणी में गिना है। गोखले सचमुच इस युग के ऋषि हुए हैं।

वे सच्चे ब्राह्मण थे। राजनीति में धर्म का प्रवेश उन्होंने आवश्यक माना और इसके लिए अपनी सामर्थ्य भर प्रयत्न भी करते रहे। एक बार एक संन्यासी उनके पास आये और उनके ब्राह्मण होने की श्रेष्ठता का प्रतिदान करने लगे। गोखले ने उत्तर दिया यदि किसी वंश में जन्म लेने के कारण मुझे श्रेष्ठ माना जाय तो ऐसी श्रेष्ठता को दूर से ही मेरा नमस्कार है। मनुष्य गुणों से ही श्रेष्ठ बन सकता है फिर चाहे वह किसी देश, जाति या वर्ग का क्यों न हो। गोखले ब्राह्मण कुल में जन्मे थे पर उनकी श्रेष्ठता जन्म में नहीं कर्म में सन्निहित थी।

उस महा मनीषी ने गरीबी को जन्मजात ईश्वरीय वरदान के रूप में पाया और उसे वे आजीवन प्रेमपूर्वक छाती से लगाये रहे। महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले के एक छोटे गाँव में वे जन्मे। छोटी आयु में ही पिता जी का स्वर्गवास हो गया विधवा माता, चार बहनें और दो भाई सात प्राणियों के गुजारे के लिए कोई साधन न था तो उनके बड़े भाई को पढ़ाई छोड़ कर 15 रुपये मासिक की नौकरी करनी पड़ी। उदार बड़े भाई ने अपने छोटे भाई की पढ़ाई बन्द न होने दी। उसे कोल्हापुर पढ़ने भेजा और उस 15 रुपये में से सात रुपये में पूरे परिवार का खर्च चला कर आठ रुपये गोखले को पढ़ाई का खर्च देते। गरीबी ने उन्हें अनेकों गुण दिये। अमीरों के बच्चे पैसे का मूल्य नहीं समझ पाते और सुविधाओं की अधिकता के कारण व्यक्तित्व को विकसित करने वाली विशेषताओं से वंचित रह जाते हैं। गरीबी से उत्पन्न कठिनाइयाँ मनस्वी व्यक्ति को सतर्क, कर्मठ और सद्गुणी भी बनाती हैं। उससे दब तो लोग वे जाते हैं जिनकी आर्थिक स्थिति की तरह मानसिक स्थिति भी दयनीय होती है।

अच्छी श्रेणी में उन्होंने बी.ए. पास किया। उस जमाने में उच्च शिक्षा नाम मात्र की थी। इतने पढ़े लोगों को ऊंची सरकारी नौकरी या धन कमाने के अनेकों मार्ग खुले हुए थे। पर गोखले ने तो विद्या किसी और ही उद्देश्य के लिए पढ़ी थी। वे उसे नर-नारायण की सेवा का एक साधन बनाना चाहते थे। उनके जैसे ही भावनाशील व्रतधारी लोगों ने मिलकर अशिक्षा दूर करने के लिए ‘दक्षिण शिक्षा समिति’ स्थापित की। उसके आजीवन सदस्यों को 35 रुपये मासिक पर, सदा काम करते रहने की प्रतिज्ञा करनी पड़ती थी। गोखले उसके सदस्य बने और समिति द्वारा संचालित फर्गूसन कालेज में बीस वर्ष तक निष्ठापूर्वक अध्यापन कार्य करते हुए, देश सेवा के लिए नई पौध बनाने में लगे रहे। लोकमान्य तिलक के इस्तीफा दे देने पर तो उन्हें गणित भी पढ़ाना पड़ा, यों राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र आदि विषयों को वे पहले से ही पढ़ाते थे।

परिस्थितियों ने कालेज से बाहर भी उनकी सेवाओं की आवश्यकता अनुभव की और उनका क्षेत्र धीरे-धीरे समाज सेवा, पत्रकारिता और राजनीति की दिशा में अग्रसर होने लगा। अनेक पत्रों में वे नव चेतना उत्पन्न करने वाले लेख लिखा करते और कुछ ही दिनों में ‘राष्ट्र सभा समाचार’ का सम्पादन भार भी उन्हीं पर आ पड़ा। न्याय मूर्ति रानाडे द्वारा स्थापित ‘सार्वजनिक संस्था’ के वे मंत्री चुने गये। कार्य भार की अधिकता देखते हुए रानाडे ने 150 रुपये मासिक वेतन लेने का अनुरोध किया पर उन्होंने 22 वर्ष की आयु में 35 रुपये काम चलाते रहने की जो प्रतिज्ञा की थी, उसका उल्लंघन करना उचित न समझा और अनुरोध को अस्वीकार करते हुए स्वल्प वेतन पर गरीबी के साथ गुजर करते रहे।

लोक सेवा में अपना जीवन उत्सर्ग करने वाले जन-सेवकों की निर्वाह व्यवस्था करने के लिए गोखले ने ‘सर्वेण्ट आफ इण्डिया सोसायटी’ की स्थापना की। एक से एक आदर्शवादी और राजनैतिक संन्यासी उस आश्रम से व्यक्तिगत जीवन की आर्थिक समस्याओं से निश्चित होकर जन जागरण के काम में जुट गये। कहना न होगा कि सोसायटी के सदस्यों ने भाषण, लेखन, कला, रचनात्मक कार्य द्वारा जन जीवन में नव जागरण की ऐसी आग फूँकी जो राजनैतिक पराधीनता समाप्त होने तक कभी बुझने न पाई।

राजनीति के क्षेत्र में उनने प्रवेश किया तो अपनी सूझ-बूझ प्रतिभा और व्यक्तित्व के बल पर आशाजनक कार्य कर दिखाया। राष्ट्रीय महा सभा काँग्रेस में प्रवेश करके उन्होंने उसका संगठन मजबूत किया, शक्ति बढ़ाई और उस दिशा में तेजी से बढ़ाया जिस पर चलते हुए ‘स्वराज्य’ को प्राप्त करने के लिए पथ प्रशस्त हो सके। बम्बई प्रान्तीय काँग्रेस के मंत्री, फिर काँग्रेस महा समिति के संयुक्त मंत्री बने और 1905 में अ. भा. काँग्रेस के बनारस अधिवेशन में वे अध्यक्ष चुने गये। दक्षिण अफ्रीका से गाँधी जी को निमंत्रण देकर उनने भारत बुलाया और उनके हाथ में जन नेतृत्व सौंपने की अंतःभूमिका बड़ी कुशलता से उन्होंने ही पूरी की।

भारत में प्लेग फैला तो पीड़ितों की सहायता के लिए जी जान से जुटे रहे। उस समय के भयानक दुर्भिक्ष में क्षुधातों के लिए उनसे कुछ उठा न रखा। बंग-भंग आन्दोलन और तत्कालीन स्वदेशी आन्दोलन में उनने आगे बढ़ कर भाग लिया। दक्षिण अफ्रीका की सरकार द्वारा वहाँ के भारतीयों पर होने वाले अत्याचारों को विरुद्ध गाँधी जी द्वारा आरंभ किये अभियान में सहायता करने वे अफ्रीका पहुँचे और ब्रिटिश सरकार को भारत के प्रति उदार नीति बरतने की प्रेरणा देने के लिए कई बार इंग्लैण्ड की यात्रा की। बम्बई धारा सभा के सदस्य निर्वाचित हुए और पीछे दिल्ली की केन्द्रीय धारा सभा के सदस्य भी चुन लिये गये। अंग्रेजी सरकार द्वारा भारत के दोहन का वे निरन्तर भंडाफोड़ करते और इस प्रयत्न में लगे रहते कि भारतीय जनता को सरकार द्वारा उपयोगी कार्यों की अधिकता का लाभ मिले। उस समय की परिस्थितियों में सरकार को झुकने के लिए जितना कुछ संभव था वे नरम और गरम तरीके अपनाकर भारतीय जनता के सच्चे प्रतिनिधि के रूप में संघर्ष करते रहे। जहाँ आवश्यकता पड़ी वहीं उन्होंने डट कर विरोध करने में भी संकोच न किया। उस समय के वायसराय लार्ड कर्जन उन्हें अपना ‘समवयस्क प्रतिद्वन्दी माना करते और कहा करते थे, ‘उनके संपर्क में अब तक जितने भी मनुष्य आये उनमें गोखले ही सबसे अधिक मजबूत और बलवान हैं।’

‘जो मिले उसे प्राप्त करो और आगे के लिए संघर्ष जारी रखो उस समय की राजनीति का यही केन्द्र बिन्दु उन परिस्थितियों को देखते हुए उचित भी था। ब्रिटिश सरकार पर भरसक जवाब डाल कर उन्होंने मार्ले मिन्टो सुधार घोषणा कराई जिसके अंतर्गत भारत को कुछ अधिक अधिकार मिले। दक्षिण अफ्रीका में गाँधी-स्मट्स समझौता उनसे कराया और भारतीयों को कुछ राहत मिली। कांग्रेस के नरम और गरम दलों में समझौता करा सकना उनकी ही सूझ-बूझ का फल था। वे लड़ना जानते थे पर जहाँ समझौते का अवसर आता उससे चूकते न थे। देश के कौने-कौने में भ्रमण करके उन्होंने राष्ट्रीय चेतना उत्पन्न करने वाले असंख्य भाषण दिये। देश को संगठित करने और भावनात्मक एकता उत्पन्न करने के लिए उनके प्रयास निरन्तर चलते रहे। उनने भारत के एक सच्चे देश भक्त के रूप में जीवन का प्रत्येक दिन लोक हित के लिए अर्पित करने में ही सौभाग्य समझा।

व्यक्तिगत जीवन की तरह ही वे सार्वजनिक जीवन में भी ईमानदार थे। ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध एक बयान में उनने एक बार ऐसे आरोप लगाये जो पीछे जाँच करने पर असत्य निकले। अपनी गलती के लिए उन्होंने सार्वजनिक रूप से खेद प्रकट किया। यों उस समय के नेता उनके इस माफी माँगने से रुष्ट हुए और कुछ समय तक वे साथियों द्वारा उपेक्षित होने पर एकाकी पड़ गये, इसका उन्हें जरा भी दुःख न हुआ। सचाई उनकी दृष्टि में सबसे बड़ी बात थी। राजनीतिक लाभों के लिए वे सचाई की उपेक्षा नहीं कर सकते थे। उनकी राजनीति में धर्म के लिए प्रमुख स्थान था।

गोखले ने राष्ट्रीय कार्यों के लिए प्रचुर धन एकत्रित किया और उसका विभिन्न कार्यक्रमों में उपयोग भी हुआ। पर उनके व्यक्तिगत जीवन के लिए फर्गुसन कालेज से सेवा निवृत्त होने पर जो 25 रुपये मासिक पेंशन मिलती थी, वही पर्याप्त हो जाती। जिस गरीबी से उन्होंने जीवन आरंभ किया उसे ही उन्होंने जीवन भर अपनाये रखा और केन्द्रीय सभा की सदस्यता आदि से सभी कुछ अतिरिक्त आय हो जाती तो उसे जरूरतमंदों को उदारतापूर्वक दे डालते। गोपाल कृष्ण गोखले यों राजनेता के रूप में प्रख्यात हैं पर वस्तुतः वे एक ऋषि थे। सच्चे ब्राह्मण की तरह उन्होंने जनता जनार्दन की उपासना के लिए विश्व मानव को सत्यं शिवं सुन्दर से समलंकृत करने की आराधना के लिए अहिर्निशि निष्ठापूर्वक कार्य किया। ऋषि ऐसे ही लोगों को तो कहते हैं-वेश में नहीं कर्म में उनका ऋषि-तत्व देखा और परखा जा सकता था। ऐसी ही विभूतियों से इस महान देश का मस्तक ऊंचा होता चला आया है और आगे होता रहेगा।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118