सच्चे पुरोहित-रविशंकर महाराज

June 1964

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गुजरात में पाटण वाडियै नामक एक जाति है जिसे पेशेवर अपराधियों में गिना जाता था, महाराज रविशंकर इन्हीं के पुरोहित थे। इस वर्ग में वे देवता की तरह पूजे जाते थे। कोई पाटण वाणिया महाराज को रास्ते में मिलता तो अपनी पगड़ी उनके पैरों के नीचे बिछा देता, उनकी चरण रज लेने के लिये। महाराज का उज्ज्वल चरित्र सार गुजरात में प्रख्यात था और अभी भी उनका नाम उस प्रदेश में एक धरती के देवता की तरह आदर और श्रद्धा के साथ लेते हैं।

दूसरे पंडित पुरोहितों की तरह यदि महाराज चाहते तो पोथी-पत्रा के सहारे पेट का धंधा करते रह सकते थे और दूसरे अनेकों की तरह दान दक्षिणा के बल बूते से चैन की जिन्दगी व्यतीत कर सकते थे। पर उसने अपना दूसरा ही रास्ता चुना और पुरोहित नाम को सच्चे अर्थों में सार्थक की तरह माना।

अपने हाथ के कते सूत की बड़ी और घुटनों तक की खादी की धोती यही दो परिधान उनके शरीर पर रहते। किसी भी स्थिति में जो सरलतापूर्वक प्राप्त किया जा सके ऐसा नियमित भोजन था उनकी खिचड़ी। सो भी बिना नमक की। अस्वाद व्रत धारी महाराज अपना भोजन आप पकाते थे अपनी सेवा आप करने की दृष्टि से, पर छूत के पाखण्ड को उन्होंने कभी मान्यता न दी। बिना जूता नंगे पैरों घूमने वाले इस ऋषि ने सच्चे परिव्राजक और ब्राह्मण का आदर्श प्रस्तुत किया और निरन्तर गाँव-गाँव घूमकर नीति धर्म एवं सदाचार का जीवन भर प्रशिक्षण किया।

अपनी निस्वार्थता, आदर्शवादिता सेवा वृत्ति और उच्च मनोभूमि के कारण जनता में उनके प्रति भारी श्रद्धा की। उसे श्रद्धा का उपयोग दूसरों की तरह उन्होंने अपनी पूजा कराने या कोई स्वार्थ सिद्ध में नहीं किया वरन् जन कल्याण के लिये ही उसे प्रयुक्त करते रहे। यश, विज्ञापन और प्रतिष्ठा के भूखे लोक सेवक जहाँ ईर्ष्या द्वेष से जलते भुनते रहते हैं वहाँ महाराज अपने उज्ज्वल चरित्र से यह बताया करते थे कि सच्चे लोक सेवी को यशलिप्सा से कितना दूर रहना चाहिए।

उनके प्रभाव और व्यक्तित्व को देखकर सरदार पटेल ने राष्ट्रीय कार्यों में उनकी सामर्थ्य का उपयोग किया। गुजरात में वे सरदार पटेल के दाहिने हाथ समझे जाते थे। बारदोली सत्याग्रह में उन्होंने अग्रिम पंक्ति में रहकर जो कार्य किया उसे देखकर लोगों को आश्चर्य से दाँतों तले उंगली दबानी पड़ी।

उनका कार्य क्षेत्र प्रधानतया अपराधी जातियों में सच्चरित्रता उत्पन्न करना था। धर्म पुरोहित के रूप में उनके घरों में जाते। उनके साथ बैठते-उठते सोते और रहते। आडम्बर उन्हें छू भी नहीं गया था। पाटण वाडियों में उस समय ऐसा रिवाज था कि वे चोरी किये बिना रह नहीं सकते थे। एक सप्ताह तक जो चोरी करने न जाय उसकी स्त्री रूठ जाती थी- उसे कायर मानती थी और घर छोड़ देने तक को तैयार हो जाती थी। पुलिस का आतंक दूसरी ओर उन्हें तंग करता था। पुलिस कर्मचारी के सामने इस जाति के पुरुषों, स्त्रियों और बच्चों तक को दिन में दो बार हाजरी देने जाना पड़ता था। कहीं भी उन्हें न सम्मान प्राप्त होता था और न विश्वास। कोई दूसरा काम करने की आदत और रुचि न होने से वे आजीविका के लिए अन्य कार्य कर भी नहीं पाते थे। ऐसे दुर्दशाग्रस्त लोगों को सदाचारी और स्वावलम्बी जीवन बिताने के लिये तैयार करना कितना कठिन मार्ग है, यह सभी जानते हैं। पर कठिन भी साहसी लोगों द्वारा ही सम्पन्न होते हैं। महाराज साहस की मूर्ति थे, उनके कदम जिधर बढ़े उधर सफलता दौड़ती ही चली आई।

अपराधी जातियों के बीच उनने आत्मीयता के संबंध स्थापित किये और अन्तःकरण की वाणी से चोरी, जुआ, नशा और आलस छोड़ने के लिए समझाया। उनका समझाना ऐसा जो कभी निरर्थक न जाता। कितने ही लोग सच्चे मन से प्रतिज्ञा करते और उसे आजीवन निवाहते, जहाँ चोरी होती वहाँ महाराज पहुँच जाते और जिसने चुराया होता उससे माल वापिस दिलाते। अपराधी को अपना पाप स्वीकार करना ही पड़ता। कई बार तो वे अपराधियों को पुलिस में हाजिर होकर अपना अपराध स्वीकार करने के लिए तैयार करते और जो राजदण्ड मिलता उसे प्रायश्चित मानकर उसकी आत्म-शुद्धि की व्यवस्था करते। सरकार ने भी यह नीति अपनाई थी कि जिस व्यक्ति की सिफारिश महाराज कर दें उसे पुलिस में रोज हाजिर होकर दो बार हाजिरी देने के प्रतिबंध से मुक्त कर दिया जाय।

एक बार उन्होंने भयंकर आतंकवादी दस्युओं से मिलने का निश्चय किया और जहाँ उनके मिलने की संभावना थी वहाँ अंधेरी रात में चल दिये। डाकुओं ने उस अजनबी को लूटने को बन्दूक तानी तो वे खिलखिला कर हंस पड़े और बोले- मैं भी तो तुम्हारी बिरादरी का डाकू ही हूँ। दस्युओं ने बन्दूक नीची कर ली और पूछा कि किस गिरोह के हो? कहाँ रहते हो? महाराज ने कहा-मैं गाँधी जी के गिरोह का डाकू हूँ। दस्युओं को पास बिठा कर उन्होंने बड़े मार्मिक शब्दों में कहा-’हमें तो पराधीन बनाने वालों के विरुद्ध शूरता प्रकट करनी चाहिए। निरपराध देशवासियों को लूटने से क्या लाभ? उनके प्रस्ताव से कितने ही डाकुओं ने वह कार्य छोड़ दिया और उपयोगी कार्य करने लगे।

काठियावाड़ के जमींदारों और ठाकुरों के बीच घूम कर वे उनसे शराब छोड़ने की प्रतिज्ञा कराते। एक बार एक जमींदार ने कहा- ‘महाराज शराब छूटती ही नहीं क्या करूं? उसने मुझे बुरी तरह पकड़ रखा है।’ महाराज ने दूसरे दिन उसे अपने ठहरने के स्थान पर बुलाया। जब वह आया, तो महाराज एक खम्भे को दोनों हाथों से लपेट कर जकड़े हुए खड़े थे। बोले-’भाई, मैं तुम्हारे पास बैठ कर बात करना चाहता था पर क्या करूं? इस खम्भे ने मुझे पकड़ रखा है, छोड़ता ही नहीं।’ जमींदार असमंजस में पड़े और बोले- ‘भला बेजान खम्भा आपको क्या पकड़ेगा? आपने ही तो उसे जकड़ रखा है। महाराज ने मुस्कराते हुए कहा- ‘तब बेचारी शराब तुम्हें कैसे पकड़ सकती है।’ जमींदार की आँखें खुल गई और उसने उसी दिन से शराब छोड़ दी।

चीन जब आज जैसा आक्रमणकारी न था तब वे पेकिंग में होने वाली शाँति परिषद में भाग लेने गये और वहाँ एक अधिवेशन के अध्यक्ष भी बने। चीनी सरकार उन्हें अपना देश दिखाने के लिए मोटर आदि का विशेष प्रबंध कर रही थी पर उन्होंने उसे स्वीकार नहीं किया और पैदल ही गाँव-गाँव घूम कर, ग्रामीणों के साथ घुल मिलकर उन्होंने वहाँ के जन-जीवन का अध्ययन किया।

दया और धर्म का, कर्त्तव्य और पुरुषार्थ का संदेश सुनाते हुए गाँव-गाँव घूमना यही उनकी प्रधान साधना थी। रात को चलना और दिन में काम करना यही उनका तरीका था। रात में चलने के खतरे की ओर से जब लोग उन्हें आगाह करते थे तो वे यही कहते- डरने से मरना अच्छा। जो मुसीबत रात को अंधेरे में आ सकती है वह दिन में न आवेगी, इसका क्या भरोसा।

लोग उनसे पूछते- ‘अब तो आप वृद्ध हो चले, विश्राम क्यों नहीं करते?’ वे यही कहते- ‘जब तक मेरे यजमान अपराधी प्रवृत्तियाँ छोड़कर मुझे निश्चिन्त नहीं कर देते, तब तक मैं विश्राम कैसे कर पाऊंगा?’ सच्चे पुरोहित की तरह उन्हें देश-धर्म और जन-साधारण को ऊंचा उठाने की लगन लगी रहती थी और उसी भावना से प्रेरित होकर अहिर्निश काम करते रहते थे। ऐसे ही आदर्श पुरोहितों की भारत को आज भारी आवश्यकता है।


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