वर्ण व्यवस्था का स्वरूप और लक्ष्य

June 1964

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समय और श्रम का सदुपयोग करके ही मनुष्य प्रगति की ओर बढ़ता है। यदि इन दोनों का क्रम अस्त-व्यस्त रहे तो फिर जीवन का कोई महत्वपूर्ण लाभ न उठाया जा सकेगा। जो अपना समय बर्बाद करते रहते हैं, जिन्हें अपनी आयुष्य का क्रम विभाजन करना नहीं आता, जिन्हें उपलब्ध क्षणों का सद्व्यय का मार्ग नहीं सूझता वे यहाँ से खाली हाथों चले जाते हैं। मृत्यु के समय उन्हें प्रतीत होता है कि कितनी बड़ी मूर्खता उन्होंने इस सुअवसर की उपेक्षा करते हुए की है। श्रम करने की शरीर और मन में जो अद्भुत क्षमता है उसी का सदुपयोग करने से विभिन्न दिशाओं में सिद्धियाँ तथा सफलताएं प्राप्त होती हैं। श्रम से जी चुराने वाले आलसी और समय का दुरुपयोग करने वाले प्रमादी एक प्रकार के आत्महत्यारे ही कहे जा सकते हैं।

समय और श्रम यह दो प्रत्यक्ष देवता हैं। हनुमान अंगद की तरह, नल-नील की तरह, राम-लक्ष्मण की तरह, सूर्य-चन्द्र की तरह, धरती-आकाश की तरह इनका जोड़ा है। इनका दोनों पहियों का ठीक तरह तालमेल बिठाकर ही मानव जीवन का प्रगति रथ आगे बढ़ता है। रात और दिन की तरह इन्हीं के आधार पर सुख शाँति का सन्तुलन बना हुआ है। जिसने समय का मूल्य नहीं समझा उसे ज्यों-त्यों गुजार दिया, जिसने श्रम में उत्साह नहीं दिखाया, काम चोरी की तरह बेगार भुगतने की तरह मजबूरी में जितना अनिवार्य था उतने ही हाथ पैर हिलाये तो यही समझना चाहिए कि वह जीवित रहते हुए भी मृतक जैसा आचरण कर रहा है। समय का अपव्यय और श्रम में अनुत्साह की बुराई जिसमें मौजूद है उसे सौ शत्रुओं और हजार विघ्नों से बढ़कर प्रगति पथ के अवरोध का सामना करना पड़ेगा।

ऋषियों ने इस तथ्य को समझा था और उन्होंने एक सुव्यवस्थित योजना बनाकर मानव जाति को क्रमबद्ध अनुशासन में करते हुए यह प्रयत्न किया था कि हर मनुष्य अपने समय और श्रम का पूरा-पूरा ध्यान रखें। समुचित सावधानी तभी रह सकती है जब उसका क्रम विभाजन ठीक तरह हो सके। पूरे दिन यदि कोई मनुष्य एक ही काम करता रहे, न कार्य में भिन्नता हो न अवधि नियत हो, हर समय एक ही काम करते रहा जाय, कब तक कितना करना है उसकी कोई सीमा निर्धारित न हो तो काम मनुष्य के लिए भार बन जायेगा, उसमें न आनन्द रहेगा न उत्साह। अच्छा और रुचि का कार्य भी बोझिल हो जायेगा और करने वाला उससे घबराने लगेगा।

चार वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र के नाम से विख्यात हैं और ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास यह चार आश्रम कहे जाते हैं। वर्णों की रचना किसी विशेष लक्ष्य को चुन कर उसी के माध्यम से आत्मिक प्रगति में एकनिष्ठ भाव होकर लग जाने के उद्देश्य से की गई है। यों जीवन का लक्ष्य तो आत्म कल्याण एवं पूर्णता की प्राप्ति ही है पर उसका अभ्यास करने के लिए कोई लौकिक माध्यम भी तो अपनाना पड़ेगा। विद्या पढ़ने के लिए पुस्तकों की, बल प्राप्ति के लिए व्यायाम उपकरणों की, धन प्राप्त करने के लिए उद्योग की व्यवस्था करनी पड़ती है। बुद्धि, आरोग्य, समृद्धि यों अदृश्य एवं सूक्ष्म शक्तियाँ हैं पर उनका वैभव तो किसी स्थूल माध्यम से ही प्रकट होता है। इसी प्रकार आत्म कल्याण का सूक्ष्म उद्देश्य प्राप्त करने के लिए भी कोई भौतिक कार्य क्रम तो चाहिए ही। इच्छा और कामना करते रहने से तो कोई लाभ मिल नहीं जाता। आत्म कल्याण का उद्देश्य पूरा करने के लिए भी बाह्य जीवन में कोई रुचिकर, उपयोगी एवं सदुद्देश्यपूर्ण कार्यक्रम निर्धारित करना ही पड़ता है। एक दिशा निर्धारित करके उस पर चलते रहने से ही पथिक को अपनी यात्रा का परिणाम प्राप्त करने का अवसर मिलता है। जो कभी इधर-उधर भटकता रहेगा, कोई दिशा निर्धारित न करेगा उसे न तो किसी लक्ष्य की प्राप्ति होगी और न वह किसी कार्य में विशेषज्ञता प्राप्त कर अपनी प्रतिभा ही चमका सकेगा।

अस्तु, यह आवश्यक है कि आत्म कल्याण का लक्ष प्राप्त करने के लिए मनुष्य अपना एक निर्धारित कार्यक्रम निर्धारित करे और फिर पूरी दिलचस्पी के साथ संसार का सर्वोत्तम काम समझ कर उसी क्रम को आजीवन अपनाये रहे। इसी विधान को वर्ण-धर्म कहते हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र का क्रम विभाजन, मनुष्य-मनुष्य के बीच ऊंच-नीच या छोटे-बड़े का भाव पैदा करने के लिए नहीं, वरन् गुण, कर्म, स्वभाव के अनुसार एक निर्धारित गति-विधि अपना कर तीर की तरह लक्ष की ओर बढ़ चलने की व्यवस्था बनाने के लिए हुआ है।

संसार में चार ही प्रमुख शक्तियाँ है- 1. ज्ञान 2. बल 3. धन 4. श्रम, इन्हीं चारों खंभों पर प्रगति का मंच खड़ा किया गया है। मनुष्य ने अब तक जो उन्नति की है, उसका सारा श्रेय इन चार विभूतियों को ही है। यदि यह न हो तो जन्मजात रूप से जैसा भी कुछ मानव प्राणी उत्पन्न होता है उसे सबसे पिछड़ा ही माना जा सकता है। एक-एक वर्ण में इनमें से एक-एक शक्ति की विशेष आराधना करने, उसमें विशेषता प्राप्त करने का लक्ष्य बनाता है और उस मार्ग पर निरन्तर चलते हुए अपने तथा दूसरों के लिए सुख शाँति का लक्ष्य प्रशस्त करता है।

ब्राह्मण ज्ञान शक्ति का, क्षत्रिय बल-शक्ति का, वैश्य धन-शक्ति का और शूद्र श्रम-शक्ति का अभिवर्धन करते हुए इसका लाभ सारे समाज को पहुँचाते हैं। इस कार्य विभाजन को दूसरे शब्दों में यह भी कह सकते हैं कि जो ज्ञान की आराधना में संलग्न है वह ब्राह्मण जो बल की साधना में लगा है वह क्षत्रिय, जिसने समृद्धि की अभिवर्धन में मन लगाया वह वैश्य और जो श्रम देवता का अनुष्ठान करके इस गंदे, अव्यवस्थित एवं कुरूप संसार को सुन्दर बनाने का तप कर रहा है वह तपस्वी शूद्र कहलाता है। यह विशुद्ध कर्म विभाजन है, इसमें ऊंच-नीच की क्या बात हुई? एक ही परिवार के कई व्यक्ति कई तरह का काम करते हैं। उनमें से कोई ऊंच-नीच नहीं होता। वृद्ध पिता जी पूजा पाठ एवं कथा वार्ता एवं समाज सेवा में लगे रहते हैं वे ब्राह्मण हुए, एक लड़का सेना में हवलदार है वह क्षत्रिय हुआ, दो लड़के दुकान चलाते हैं वे वैश्य हुए, स्त्रियाँ घर का काम-धंधा, रोटी चौका का प्रबंध करती हैं वे शूद्र हुई। इनमें से किसी को नीच-ऊंच कैसे कहा जा सकता है। अपनी रुचि और योग्यता के अनुसार कार्य विभाजन में भिन्नता रहने से अच्छा ही हुआ। समाज की अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति इस प्रकार संभव हो गई। सब लोग एक ही काम करते तो उसमें नीरसता आती और अन्य काम बिगड़ते। इसलिए कार्यों में थोड़ा अन्तर होना व्यक्ति एवं समाज के विकास की दृष्टि से उचित भी है और आवश्यक भी।

संसार में समस्त दुःखों के चार कारण हैं- 1. अज्ञान 2. अशक्ति 3. अभाव 4. आलस्य। जितने भी मनुष्य, जितने भी प्रकार के कष्ट भुगत रहे हैं उन सबके दुःखों का मूल कारण इन चार में से ही कोई हो सकते हैं। अज्ञानी का दृष्टिकोण, विचारने का ढंग गलत होता है वह न सोचने योग्य बातें सोचता और न करने योग्य निर्णय करता है। फलस्वरूप अनेकों अनावश्यक उलझनों में उलझकर दुःख भोगता है। अशक्त अपनी दुर्बलता के कारण न तो उपयुक्त उपार्जन कर पता है, न संघर्षों का मुकाबला कर पाता है उसे कमजोर पाकर भीतरी, और बाहरी शत्रु अपना आक्रमण प्रबल कर देते हैं, फलतः उसे त्रास सहने पड़ते हैं।

अभावग्रस्त मनुष्य जीवनोपयोगी वस्तुओं से वंचित रहकर अपना सामान्य क्रम चलाने में असमर्थ हो जाता है। दरिद्रता उसके मनोबल, सम्मान, स्वास्थ्य एवं संतुलन को खा जाती है। साधनों के अभाव में आगे बढ़ने का न तो साहस होता है और न सुयोग बैठता है। ऐसी दशा में उसे मन मसोस कर दीन दुःखियों की स्थिति में पड़े रहकर अभावजन्य दुःखों को भोगते रहना पड़ता है। आलस्य तो सबसे दुष्ट शत्रु है ही उसकी छाया जहाँ भी पड़ रही होगी वहाँ सब कुछ चौपट हो रहा होगा। शनि ग्रह की दशा की चर्चा ज्योतिष ग्रंथों में पाई जाती है। वह शनि आकाश में रहने वाला जड़ पिंड नहीं वरन् आलस ही होता है। जिस पर उसकी दशा आई वह बर्बाद हुए बिना नहीं रह सकता। आलस्य के कारण इस संसार में कितना दुःख दरिद्र फैला हुआ है इसका अनुमान लगाया जाय तो उसे मानव जाति का घोर शत्रु ही माना जायेगा।

उपरोक्त चारों दुःख-हेतुओं को अपने निज के जीवन में से बहिष्कार करने के संघर्ष में संलग्न होने की वीरता अपने-अपने क्षेत्र में चारों ही वर्णों को दिखानी पड़ती है। अपने कार्यक्रम में प्रगति करते हुए जो शक्तियाँ उपलब्ध होती हैं उनका लाभ स्वयं ही उठाते रहने की स्वार्थपरता से बचते हुए सारे समाज को उसका लाभ पहुँचाने का व्रत लेना पड़ता है। तभी वह वर्ण-धर्म ठीक तरह पालन हुआ समझा जायेगा।

ब्राह्मण अपने सद्ज्ञान से बिना किसी फल की आकाँक्षा रखे सारे समाज को उसका लाभ देने का प्रयत्न करता है। गुरुकुल, चिकित्सालय, कथा, प्रवचन, सत्संग, सत्कार आदि की प्रक्रिया अपनाकर जन-समाज का भावना स्तर ऊंचा बनाने के लिए वह प्राण-पण से प्रयत्न करता है। उसका व्यक्तित्व श्रद्धा-पद बना रहे इसलिए दूसरों की तुलना में अधिक त्यागी, तपस्वी, संयमी, अपरिग्रह में रह कर अपनी वाणी से ही नहीं चरित्र से भी यह शिक्षा देता है कि सन्मार्ग पर चलते हुए यदि गरीबी से भी रहना पड़े तो आन्तरिक उल्लास एवं बाहरी आनन्द में कोई कमी नहीं आ सकती।

क्षत्रिय अपने प्राण हथेली पर रखकर अनैतिक तत्वों से संघर्ष करता है। साधारण लोग प्रत्याक्रमण के भय से भयभीत होकर दुष्टता के आगे सिर झुका देते हैं और उससे समझौता भी कर लेते हैं वह क्षत्रिय जिसने समाज की सुरक्षा का, दुर्बलता की हिमायत करने का व्रत लिया है वह अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए शरीर बल, शस्त्र बल एवं सत्ता बल प्राप्त करके उद्दंडताओं को नियंत्रित करने के कार्य में लगता है। उसका कार्य किसी भी त्यागी, तपस्वी, आत्म बलिदानी से कम महत्वपूर्ण नहीं माना जा सकता है।

वैश्य उत्पादन और उद्योग के प्रत्येक पहलू को विकसित करते हुए जन साधारण की जीवनोपयोगी सुविधाओं को बढ़ाता है। अन्न, वस्त्र, दूध, शाक, औषधियाँ, पुस्तकें, सुई, साबुन, बुहारी आदि अनेक आवश्यकीय साधनों से जनता को वंचित न रहना पड़े इसलिए वह उत्पादन एवं वितरण के लिए आवश्यक व्यवस्था करते हुए सर्व साधारण की एक बड़ी कठिनाई को दूर करता है। श्रम के बिना कोई भी कार्य पूरा नहीं हो सकता। छोटे से बड़े हर काम में श्रम ही सफलता उत्पन्न करता है। उस अभाव की पूर्ति शूद्र वर्ण को करनी पड़ती है इसलिए इस सहयोग के अनुरूप उसका गौरव भी अधिक माना गया है।

आज चारों वर्णों का विकृत स्वरूप ही दिखाई पड़ रहा है। इसका कारण उस व्यवस्था का दोष नहीं वरन् लोगों की नासमझी एवं अनुपयुक्त गति-विधियों को ही माना जा सकता है। वर्ण धर्म हमें सिखाता है कि जीवन का कोई लक्ष्य बना कर जिया जाय। एक निर्धारित दिशा में पूर्णता प्राप्त करने के लिए, लोकहित का उद्देश्य लेकर तन्मयतापूर्वक संलग्न रहा जाय और यह समझा जाय कि हमारा कार्य संसार के किसी भी श्रेष्ठतम कर्म से घट कर नहीं हो सकता। ईमानदारी, कर्त्तव्यनिष्ठा, समाज-सेवा एवं आत्म-कल्याण का लक्ष्य रखकर अपनी आन्तरिक सद्वृत्तियों के विकास का अभ्यास करने के लिए कोई भी कार्य अपनाया जाय वह योग साधना, तपश्चर्या एवं पुण्य परमार्थ से किसी भी प्रकार कम श्रेयस्कर न होगा।

वर्ण धर्म में आज भयंकर विकृति यह आई है कि उसे कर्म विभाजन न मानकर वंश परम्परा का रूप मिल गया है जातियों को वर्ण समझा जाने लगा है। ऊंच-नीच की निरर्थक भावना को इसी आड़ में प्रश्रय मिला है और अलग-अलग गुटों के रूप में हमारा जातीय जीवन खण्ड-खण्ड हो गया है। मानव जाति की एकता और श्रेष्ठता को नष्ट-भ्रष्ट करने में आज वर्ण धर्म की विभूतियाँ अभिशाप बन रही हैं पर उनका मूलस्वरूप वस्तुतः वैसा है नहीं। उसका निर्माण मानव के सुव्यवस्थित विकास क्रम को सरल बनाने के लिये ही हुआ है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी रुचि और क्षमता के अनुरूप कार्य चुने, सदुद्देश्य से उसे आरंभ करे और आन्तरिक सद्वृत्तियों के विकास को माध्यम मानते हुए पूरी ईमानदारी-जिम्मेदारी और दिलचस्पी से उसे पूरा करने में तत्परता पूर्वक लगा रहे तो उससे उसका भी कल्याण है और समाज का भी। वर्ण धर्म की यह प्रेरणा मानव जाति का भविष्य उज्ज्वल बनाने में निस्सन्देह बहुत ही सहायक सिद्ध हो सकती है।


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