हम सेवा भावी बनें

June 1964

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संसारी मनुष्यों में दो प्रवृत्तियाँ विशेष रूप से देखने में आती हैं- एक स्वार्थ और दूसरी परमार्थ। आत्म-रक्षा, जीवन-निर्वाह और शरीर को स्थिर रखने के लिए एक सीमा तक स्वार्थ की प्रवृत्ति सर्वथा उचित और आवश्यक भी है। यदि मनुष्य अपने इतने स्वार्थ का ध्यान न रखें और उसकी यथोचित ढंग से पूर्ति न करता रहे तो उसके लिए प्राण धारण कर सकना भी कठिन हो जायेगा। उस दशा में वह न किसी तरह का धर्म-कर्म, पुण्य कार्य कर सकेगा, न किसी प्रकार के परमार्थ, परोपकार के कार्य के योग्य रह सकेगा।

पर यदि कोई व्यक्ति निरन्तर स्वार्थ में ही संलग्न रहता है, अपने खाने, पीने, पहनने तथा अन्य प्रकार की सुख-सुविधाओं को ही महत्व देकर अन्य व्यक्तियों तथा समाज के हित की उपेक्षा करता है अथवा ऐसा आचरण करता है कि जिससे सार्वजनिक कल्याण के कामों की हानि होती है, तो वह सभी विचारशील, विवेकवान सज्जनों की दृष्टि में निन्दनीय ठहरता है। क्योंकि प्रत्येक मनुष्य का जीवन समाज से संबंधित है, सामाजिक सहयोग के प्राप्त होने से ही उसका अस्तित्व रह पाता है, और समाज के आधार पर ही वह तरह-तरह की सुख-सुविधाएं प्राप्त कर सकता है। ऐसी दशा में जो सामाजिक हित की बातों की उपेक्षा करके ‘अपने मतलब से ही मतलब’ रखने की नीति को अपनावे तो उसे हीन और मनुष्यता से शून्य माना जायेगा।

यद्यपि परमार्थ का क्षेत्र बहुत विस्तृत है और गंभीर भाव से विवेचना की जाय तो उचित श्रेणी के स्वार्थ का भी उसमें समावेश हो जाता है। पर सामान्यतः परमार्थ का एक प्रत्यक्ष तथा सर्व-सुलभ रूप अन्य लोगों की किसी न किसी प्रकार की सेवा ही माना जाता है। इसके द्वारा स्वार्थ और परमार्थ दोनों ही सिद्ध होते हैं। इससे दूसरों का उपकार तो होता ही है, उनके अभावों की पूर्ति होने अथवा कष्टों के मिटने से वे आशीर्वाद देते ही हैं। साथ ही अपने हृदय में भी आत्मिक सन्तोष की प्राप्ति और आत्मबल की वृद्धि होती है। इस प्रकार का आत्म-विकास जीवन की प्रगति के लिए बहुत आवश्यक और महत्वपूर्ण बात है। परोपकारमय जीवन व्यतीत करते हुए जो उन्नति की जाती है वह ठोस और स्थाई होती है और ऐसे व्यक्ति का जीवन जगत में सार्थक समझा जाता है।

सेवा कई प्रकार की हो सकती है। सबसे पहली तो प्रत्यक्ष सेवा है, जो दीन-दुःखी जनों की सदैव की जाती है। संसार में इस समय धन और अधिकार संबंधी विषमता बहुत अधिक फैली हुई है। जिसके कारण करोड़ों व्यक्ति उपार्जन और निर्वाह के साधनों से वंचित होकर निराश्रित जीवन बिताने को बाध्य होते हैं। ऐसे अभागे लोग जैसे-तैसे रूखी-सूखी रोटी से पेट भर भी लें तो भी उनके सामने सदैव कोई न कोई आवश्यकता, अभाव बना ही रहता है। ऐसे लोगों को रोगी होने पर मामूली दवा भी नहीं मिलती, पथ्य का कोई प्रबंध नहीं हो पाता और उनमें से अनेकों साधारण बीमारी में ही बिना देखभाल और सहायता के मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। बाढ़, अकाल, महामारी आदि फैलने पर पहले ऐसे ही कमजोर और साधनहीन लोगों का नंबर आता है और वे कीड़े-मकोड़े की तरह हजारों लाखों की संख्या में चटपट मर जाते हैं। सेवाभावी स्वभाव के लोग ऐसे अवसर पर अपने सुख दुख या हानि-लाभ का विचार न करके कष्ट पीड़ितों की सहायता के लिए कूद पड़ते हैं और उनकी सेवा की बदौलत हजारों व्यक्तियों की प्राण रक्षा हो जाती है। ऐसी सेवा से सच्चे सेवक को जो आनन्द प्राप्त होता है वह अवर्णनीय होता है। देखने वाले तो समझते हैं कि इसे बहुत परिश्रम करना पड़ा, खतरा उठाना पड़ा, हानि सहनी पड़ी, पर इस कार्य के फलस्वरूप उसकी आत्मा का जो उत्थान होता है और हृदय किस प्रकार सात्विक भावों से भर जाता है, उसे वह अपने लिए एक अमूल्य लाभ समझता है, और इसलिए जब कभी मौका मिलता है अवसर आता है वह सेवा कार्य से नहीं चूकता। सेवा उसका जीवनोद्देश्य ही बन जाती है और अपनी परिस्थिति तथा साधनों के अनुसार अधिक से अधिक सेवा करना वह अपना धर्म समझता है।

आजकल एक अन्य प्रकार की सेवा अधिक चल पड़ी है जिसे यश या नामवरी की सेवा कह सकते हैं, यह आज कल की राजनैतिक और सामाजिक परिस्थितियों के कारण उत्पन्न हुई और उच्च श्रेणी के व्यक्तियों में उसी का बोलबाला दिखाई पड़ता है। नेताजी, सेठजी या उद्योगपति जी सार्वजनिक सेवा के कार्यों में हजारों लाखों चंदा दे डालते हैं, आवश्यकता होने पर अपने संगी, साथियों को सहायता कार्य के लिए भी भेज देते हैं, लोगों को सरकार से या किसी समुदाय विशेष से कोई शिकायत होती है तो उसके लिए दौड़-धूप करके या आन्दोलन उठाकर उसे दूर कराने की चेष्टा भी करते हैं। वे स्वयं इन कामों को जनता की सेवा के नाम से पुकारते हैं और वैसा ही भाव प्रकट करते हैं। पर उनके मन में यही भावना रहती है कि इस प्रकार लोगों में उनकी नामवरी हो जाय, जनता उनको हितैषी और सहायक समझने लगे और जब अवसर आये तो वे इस सेवा के आधार पर नगरपालिका या छोटी अथवा बड़ी व्यवस्थापक सभा के सदस्य चुन लिए जायें। शासन सभाओं में जाते समय भी वे जनता की सहायता की ही दुहाई देते हैं, पर वहाँ जाकर वे अपने कारोबार को बढ़ाने या किसी उपाय से धनोपार्जन की ही चेष्टा करते हैं। यदि वे इस प्रकार के चुनाव के झंझटों के नाम पर सरकारी अधिकारियों और शासन-सभाओं के संचालकों पर प्रभाव जमाते है और उनके द्वारा अपने व्यापार या उद्योग-धंधे को बढ़ाने का प्रयत्न करते हैं।

तीसरी प्रकार की सेवा वह है जो हृदय से तो नहीं वरन् अपनी सामाजिक परिस्थितियों, मर्यादा को कायम रखने के लिए लोक-लाज या मजबूरी के नाम पर की जाती है। यद्यपि ऐसे लोगों को जनता या गरीबों से कोई हमदर्दी नहीं होती पर जब अन्य दस-पाँच परिचित और प्रतिष्ठित व्यक्ति आकर आग्रह करते हैं तो अपने सम्मान और पदवी के अनुसार कुछ आर्थिक सहायता करते ही हैं और आवश्यकता होती है तो अन्य लोगों के साथ जाकर कुछ समय भी खर्च करते हैं। ऐसी सेवा दिखावटी होती है और उसमें हार्दिकता का समावेश न होने से उसके द्वारा मनुष्य की आत्मिक उन्नति नहीं हो पाती और न मानसिक संतोष प्राप्त होता है। ऐसे लोगों को एक प्रकार का झूठा अभिमान और ऊपरी शान ही पल्ले पड़ती है।

एक चौथी तरह की सेवा अप्रत्यक्ष भी हो सकती है। जो व्यक्ति प्रत्यक्ष में किसी की सेवा न करते हुए अपने नियमित कर्म, कर्त्तव्य को ईमानदारी, सच्चाई, नेक नीयती से करते हैं, वे भी समाज की एक सेवा ही करते हैं। आजकल अधिकाँश मनुष्य हर एक काम में बेईमानी की भावना रखने लगे हैं। लोगों में नागरिकता की भावना नहीं पाई जाती और वे प्रायः ऐसे काम करते रहते हैं जिससे दूसरे अनेक व्यक्तियों की हानि होती है और वे भी वैसे ही दुराचारों की नकल करने लगते हैं। इसलिये जो लोग अपनी सच्चाई, ईमानदारी, कर्त्तव्य पालन के द्वारा अन्य लोगों के सामने श्रेष्ठ नागरिकता का उदाहरण उपस्थित करते हैं वे कोई प्रत्यक्ष सेवा न करने पर भी अन्य अनेक व्यक्तियों के जीवन सुधार करने में सहायक बनते हैं और इस प्रकार सदैव एक प्रकार की मूक सेवा करते रहते हैं।

सत्य तो यह है कि ‘सेवा’ धर्म का सच्चा और सामान्य दृष्टि से सर्वोच्च रूप है। उस तपस्या, ध्यान, जप, तीर्थयात्रा, देवार्चन आदि कर्म आजकल धर्म के लक्षण माने जाते हैं, पर इन कार्यों को करते हुए भी अनेक व्यक्तियों में तरह-तरह के दोष, दुर्गुण देखने में आते हैं। बड़े-बड़े तपस्वी, अहंकार या ख्याति के कारण एक-दूसरे से प्रति स्पर्धा का भाव रखते हैं और अनेक अवसरों पर प्रत्यक्ष रूप से लड़ते भी रहते हैं। इसी प्रकार नित्य दो-दो चार घंटे तक भजन, ध्यान करने वाले अपने स्वार्थ साधन के लिए सब तरह के दुष्कर्म करने में भी संकोच नहीं करते। पर जो व्यक्ति सच्चा सेवाभावी होगा उसमें स्वार्थ त्याग, निरहंकारिता, विनय, प्रेम, आदि सद्गुण स्वतः ही पैदा हो जाते हैं और वे निरन्तर बढ़ते ही रहते हैं।

आत्म-कल्याण के लिये सेवा भावना को अपनाया जाना आवश्यक है। परमार्थ कर्म करते रहने से ही आध्यात्मिक आस्थाओं को व्यवहार रूप में चरितार्थ करने का अवसर मिलता है। इसी प्रकार वे परिपुष्ट होकर अन्तःकरण में संस्कार का रूप धारण करती हैं और यह सुसंस्कार ही जीवन लक्ष्य को प्राप्त कराने में स्वर्ग एवं मुक्ति का अवसर उत्पन्न करने के माध्यम बनते हैं। सेवा भावना भी वस्तुतः पूजा उपासना की ही भाँति साधना का एक आवश्यक अंग है।


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