सामूहिक चेतना की आवश्यकता

June 1964

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हमारे जीवन के दो बिन्दु है-एक व्यक्तिगत, दूसरा समष्टिगत। दो बिन्दुओं के संयोग से ही एक सरल रेखा आती है। व्यक्ति और समष्टि के बिन्दुओं को मिला देने पर ही जीवन यात्रा का मार्ग बनता है। यद्यपि ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं, दोनों का अपना-अपना महत्व है। व्यक्तियों के समूह से ही समाज का निर्माण होता है तो व्यक्ति भी समाज की ही देन है फिर भी हमारी गति-दिशा व्यक्ति से समाज की ओर है। समष्टिगत-जीवन ही हमारा ध्येय बिन्दु है। एक हमारी जीवन यात्रा का प्रारंभ स्थान है तो दूसरा गन्तव्य। व्यक्तिगत जीवन अपूर्ण है वह सामाजिक जीवन में आत्मसात होकर ही पूर्ण बनता है। ठीक उसी तरह जैसे नदी, समुद्र आदि में बिन्दु मिलकर पूर्णता प्राप्त करता है।

व्यक्ति और कुटुम्ब मरते हैं, नष्ट होते रहते हैं, नये पैदा भी होते हैं किन्तु समष्टि का जीवन अखण्ड है, अनन्त है, सदा-सदा चलता रहता है। व्यक्तिगत जीवन सामयिक, बरसाती नदी नालों की तरह है किन्तु समाज तो चिर-प्रवाहिता सुरसरी की तरह है जो कभी रुकता ही नहीं। यह समष्टि जीवन अनन्त है। वह नित्य प्रवाहित और सारभूत पूर्णतत्व है। इसके विपरीत व्यक्ति और उसका आकार प्रकार अनित्य, अस्थायी अल्पजीवी, असार है। जो नित्य है स्थायी और अनन्त है उस समष्टिगत जीवन को लक्ष्य करके यात्रा करना व्यक्ति का अभीष्ट धर्म है।

समाज से परे एकाकी रहकर तो व्यक्तिगत जीवन का भी विकास संभव नहीं है। जीवन विकास के अनुकूल साधन, परिस्थितियाँ, समाज ही जुड़ा सकता है। विभिन्न शिक्षण संस्थायें, उनमें काम करने वाले व्यक्ति, जीवन निर्वाह के साधन, ज्ञान, विज्ञान, आविष्कार अन्वेषण के व्यापक कार्यक्रम क्या एक व्यक्ति द्वारा संभव है? हमारे दैनिक काम में आने वाली विभिन्न वस्तुएं, कपड़ा, अन्न, मकान, रेल, टेलीफोन, मोटरें, बिजली आदि के निर्माण, उत्पादन व्यवस्था में कितने व्यक्तियों का हाथ रहा है अब तक? इसका हम अनुमान भी नहीं लगा सकते। समाज के सहयोग के अभाव में हम एक कदम भी तो आगे नहीं चल सकते। हम एक दिन भी तो जीवित नहीं रह सकते। समाज में रहकर ही। हमारा जीवन संभव है। इसी के बीच शक्तियों और गुणों का विकास हो सकता है। अस्तु समष्टिगत जीवन को ही हम अपना ध्येय बनावें। उसी को शक्तिशाली और समर्थ बनाने में अपना योग दें। सामाजिक जीवन जितना समर्थ, विकसित और व्यवस्थित होगा उतना ही व्यक्ति भी विकास और उन्नति के महान अवसर प्राप्त कर सकेगा।

एकाकी व्यक्ति तो सुख भी नहीं भोग सकता। जिसे हम सुख और आनन्द कहते हैं वह भी तो समाज की ही एक स्थिति है। सुख के स्वर्ग में भी यदि मनुष्य को एकाकी छोड़ दिया जाय तो वह उससे ऊब जायेगा और भयभीत हो उठेगा। दूसरों के साथ ही मनुष्य सुख आनन्द मना सकता है। अक्सर हम प्रकृति की दी हुई वस्तुओं को अपने अनुकूल बनाकर, उन्हें अपने लिए संग्रह कर अधिक सुखी होने का प्रयत्न करते रहते हैं। मुझे अधिकाधिक सुख मिले ऐसा ही तो होता है हमारा प्रयास। किन्तु अथक परिश्रम करने, रात दिन लगे रहने पर भी तो हमें उस स्थिति का सन्तोष नहीं मिलता जहाँ हम कह सकें कि ‘सुख मिल गया।’ इतना ही नहीं हमारे ये व्यक्तिगत सुख प्राप्ति के प्रयास भी अनन्तः दुःखों का कारण बन जाते हैं व्यक्तिगत सुख चाहे कितना ही क्यों न हो वह सीमित है और अन्ततोगत्वा दुःख में परिणित होकर हमारी अशाँति का कारण बनता है।

आनन्द, सुख वस्तुतः आत्मा के गुण हैं इससे ये सार्वभौमिक भी है। समष्टि के साथ मिलने वाला सुख ही हमें आनन्द दे सकता है। इसलिए निजी सुख के बजाय समष्टि के सुख को महत्व देना, उसे सर्वोपरि मानना सुखी होने का आधार है।

इसलिए जीवन के सभी क्षेत्रों में हमारा ध्येय समष्टिगत है, सामाजिक है। हमारा कार्य व्यवहार सामाजिक जीवन को परिपुष्ट और विकसित करने के लिए हो। समाज जितना उत्कृष्ट होगा उतना ही व्यक्ति भी उन्नति और विकास के अवसर प्राप्त कर सकेगा। स्वामी रामतीर्थ ने कहा था-’तुम समाज के साथ ही ऊपर उठ सकते हो और समाज के साथ ही तुम्हें नीचे गिरना होगा। यह तो नितान्त असंभव है कि कोई व्यक्ति अपूर्ण समाज में पूर्ण बन सके। क्या हाथ अपने शरीर से पृथक रहकर बलशाली बन सकता है? कदापि नहीं।’ समाज के साथ ही हमारी स्थिति भी चलती है।

जिस समाज में व्यक्ति अपने-अपने लाभ, अपने सुख, अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं की प्रेरणा से जीते हैं, अपनी व्यक्तिगत जरूरतें पूर्ण करने में ही जीवन बिताते हैं, वह समाज विशृंखलित हो जाता है। सामूहिक ध्येय के अभाव में व्यक्ति की गति स्वकेन्द्रित रहती है तो वह समाज नष्ट हो जाता है। चाहे उसमें कितने ही बड़े विद्वान, योद्धा, राजनीतिज्ञ, शक्तिशाली व्यक्तित्व क्यों न हो। शास्त्रकार ने लिखा-

बहवो यत्र नेतारः सर्वे पण्डित-मानिनः।

सर्वे महत्वमिच्छन्ति तद्वृन्दमवसीवति॥

‘जहाँ बहुत से नेता हैं, सभी अपने को पण्डित मानने वाले अहंकारी हैं, और सभी अपनी-अपनी महत्ता चाहते हैं वह समाज नष्ट हो जाता है।’

अपने ही हित की बात, अपनी महत्वाकाँक्षा, अपना लाभ, अपनी उन्नति की बात चाहे वह धार्मिक हो या भौतिक, सामाजिक जीवन के लिए घातक है। हम जो कुछ भी करते हैं, सोचते हैं उसका आधार समष्टिगत न होकर जब व्यक्तिगत होता है तो अनेकों सामाजिक विषमतायें एवं संघर्ष पैदा जो जाते हैं और सार्वजनिक अशाँति उत्पन्न हो जाती है। ऐसी स्थिति में व्यक्तिगत जीवन भी खतरे में पड़ जाता है।

स्मरण रहे व्यक्ति और समाज की उन्नति साथ-साथ चलती है। यदि समाज कमजोर, विशृंखल, अव्यवस्थित होगा तो व्यक्ति के विकास में समर्थ न हो सकेगा। न वह व्यक्ति की रक्षा कर सकेगा। सामूहिक शक्ति के अभाव में व्यक्ति भी दूसरों द्वारा शोषित होगा। उसे अन्याय, अत्याचार का सामना करना पड़ेगा। इतिहास इस बात का साक्षी है कि इसी कमजोरी के कारण, सामाजिक चेतना के अभाव में, अपने ही लाभ और सुख को मान्यता देने के कारण हमें विदेशियों के आक्रमण तथा अत्याचार के दिन देखने पड़े। महमूद गौरी, गजनबी, तैमूरलंग, नादिरशाह को हमारी सामाजिक विशृंखलता, व्यक्ति वाद के कारण ही सफलता मिली अपने पैर जमाने में। हमारी धार्मिक सामाजिक आस्थाओं को इसीलिए नष्ट भ्रष्ट होना पड़ा। हमारी अपार सम्पत्ति इसी कारण विदेशों में चली गई और यही प्रमुख कारण था कि हमें शताब्दियों तक गुलामी का जीवन बिताना पड़ा। हम अपने ही मसलों में उलझे रहे। अपने स्वार्थ की पूर्ति में लगे रहे। हमारा कोई सामूहिक ध्येय नहीं था, उस समय। हालाँकि उस समय कई विद्वान भी थे, धनी सम्पत्तिशाली भी थे, किन्तु सामाजिक चेतना के अभाव में अपना तथा जन-जीवन का अपमान शोषण वे नहीं रोक सके। इस व्यक्तिवाद के कारण हमारी बहुत बड़ी पराजय हुई जिसकी क्षतिपूर्ति हमारा समाज अभी तक नहीं कर पा रहा है। सामूहिक ध्येय को भुलाकर व्यक्तिगत स्वार्थों में लिख रहने की त्रुटि का परिणाम हम बहुत समय से भोगते आये हैं।


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