आश्रम-धर्म की उपयोगिता और आवश्यकता

June 1964

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आयुष्य का समय विभाजन करने की दृष्टि से आश्रम धर्म की परम्परा का निर्माण किया गया है। जिन्दगी को चार हिस्सों में बाँटा जा सकता है। बालकपन, जवानी, ढलती आयु और वृद्धावस्था। इन चारों की अपनी-अपनी अलग स्थिति है, उनकी विशेषताओं तथा परिस्थितियों का ध्यान रखकर उपयुक्त कार्यक्रम बने तभी से जीवन का संतुलित विकास हो सकेगा। प्रतिदिन हमें इसी प्रकार का क्रम विभाजन करना पड़ता है। सवेरा होते ही शौच, स्नान, व्यायाम, जलपान का क्रम रहता है। धूप फैलते ही काम पर जुट जाना पड़ता है। मध्याह्न को भोजन, विश्राम, सायंकाल काम को समेटना, दिन छिपने पर नित्यकर्म, रात को सोना यह एक स्वाभाविक क्रम है। प्रातःकाल भोजन, दिन चढ़ते ही सोना, सायंकाल शौच, स्नान, रात को काम करना इस प्रकार का उल्टा ढर्रा बन जाय तो विशेष परिस्थितियों की बात छोड़िये- साधारणतया इस अस्वाभाविक क्रम को अनुपयुक्त ही माना जायेगा और उसका स्वास्थ्य तथा कार्य की सफलता पर भी बुरा प्रभाव पड़ेगा।

बालकपन, यौवन, ढलती आयु और वृद्धावस्था को भी एक जीवन दिन मानकर उसका यथोचित क्रम विभाजन ही श्रेयस्कर हो सकता है। न्यूनतम बीस वर्ष की आयु तक स्वास्थ्य और बुद्धि के विकास के लिए शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य संवर्धन के लिए ब्रह्मचर्य, खेलकूद, व्यायाम, अध्ययन एवं भावी जीवन में आने वाली समस्याओं को समझने तथा उन्हें हल करने की विधि का साँगोपाँग प्रशिक्षण प्राप्त करना चाहिए। यह आयु इसी क्रम में लगनी चाहिए। दस बारह वर्ष तक की आयु तो माता-पिता के सान्निध्य में ही बितानी चाहिए पर इसके बाद किशोर अवस्था को उच्च चरित्र एवं विवेकशील जीवन कला विशेषज्ञों की देख−रेख में अत्यन्त सावधानी के साथ बनाई हुई क्रम विधि के अनुसार व्यतीत की जानी चाहिए।

किशोर अवस्था जीवन की सबसे संवेदनशील एवं महत्वपूर्ण स्थिति है। मनुष्य का बनना बिगड़ना इसी में होता है। नया खून, नया उत्साह, नयी आशा एवं नया अनुभव पाने के लिए मचलता रहता है। जोश बहुत और होश कम रहने के कारण बच्चे इसी आयु में दिग्भ्रांत होते और कुमार्गगामी बनते हैं। इसलिए इसे जीवन का सबसे खतरनाक समय माना गया है। निर्माण के लिए उपयुक्त समय भी वही है। महापुरुष बनने के लिए उपयुक्त संस्कार प्रायः इसी आयु में अंकुरित होते हैं। इसलिए किशोर अवस्था का समय सुसंस्कारी सान्निध्य, प्रशिक्षण एवं नियंत्रण में व्यतीत किया जाना चाहिए। जहाँ इस प्रकार की व्यवस्था बन गई वहाँ बच्चे के भविष्य को उज्ज्वल बनाने का सुदृढ़ शिलान्यास हो गया, यही मानना चाहिए। प्राचीन काल जैसी गुरुकुल पद्धति अब नहीं है फिर भी हमें उस आवश्यकता की पूर्ति के लिए दूसरे उपाय सोचने चाहिए। ब्रह्मचर्य का मतलब केवल कामेन्द्रिय संयम ही नहीं वरन् उसका वास्तविक तात्पर्य जीवन का सर्वांगीण विकास-ब्रह्म का सद्ज्ञान का सहचर्य, सान्निध्य ही हैं। ब्रह्मचारी अर्थात् आदर्शवादी परम्पराओं के आचरण का अभ्यास करने वाला। बालकपन, जन्म से लेकर बीस पच्चीस वर्ष तक का आयुष्य भावी जीवन को विधिवत् जीने की कला सीखने की इस तैयारी में ही लगाया जाना चाहिए।

आश्रम-व्यवस्था का क्रम जितना आवश्यक प्राचीन काल में था उतना ही अब भी है। वह नृतत्व विज्ञान की गहन-गवेषणा के आधार पर विनिर्मित होने के कारण एक शाश्वत सत्य ही माना जा सकता है। पद्धति चाहे पहले जैसी हो, चाहे आधुनिक स्थिति के अनुरूप उसमें हेर-फेर किया गया हो पर तथ्य ज्यों के त्यों ही रहेंगे उन्हें बदला नहीं जा सकता। चढ़ती आयु को शारीरिक और मानसिक विकास के उपयुक्त वातावरण में व्यतीत न किया जायेगा तो व्यक्तित्व सड़ी-गली आदतों के ढाँचे में ढल कर निकृष्ट कोटि का ही बन सकेगा। ऐसे कुसंस्कारी लोग धन या सत्ता प्राप्त कर लेने पर भी अपने तथा समाज के लिए अभिशाप बने रहते हैं।

युवावस्था जीवन का पौरुष प्रदर्शित करने के लिए है। महत्वाकाँक्षाओं को सुनियोजित ढंग से कार्यान्वित करते हुए अपनी क्षमताओं का विकास करने एवं समाज की भौतिक समृद्धि बढ़ाने के लिए है। श्रम द्वारा उत्पादन बढ़ाना, अपनी क्षमताओं को कार्य रूप में परिणत करते हुए अपना साहस एवं अनुभव बढ़ाने और अपने समीपवर्ती क्षेत्र में उल्लास उत्पन्न करने का समय यही है। वित्तेषणा, पुत्रेषणा, लोकेषणा की कामनाएं स्वभावतः मन में हिलोरें लेती रहती हैं, इसलिए उनकी नैतिक ढंग से पूर्ति का अवसर भी उसी आयु में मिलता है। धन का उपार्जन, मंगलमय गृहस्थ की रचना तथा पुरुषार्थ द्वारा दूसरों की तुलना में अपने को अधिक प्रतिभावान एवं सफल सिद्ध करने का अवसर युवावस्था में ही मिलता है। जो कामनाएं और वासनाएं विकृत होकर मनुष्य को पतन के मार्ग पर ले दौड़ सकती हैं उन्हें नियंत्रित कर नैतिक रूप में अपना रास्ता बना सकना गृहस्थ में ही संभव है। संसार की भौतिक सम्पदायें इसी आयु में बढ़ाई जा सकती है। वैज्ञानिक, कलाकार, सैनिक, श्रमिक सभी कोई बीस या पच्चीस से लेकर पचास-पचपन वर्ष की आयु तक महत्वपूर्ण कार्य कर लेते हैं। यह तीस वर्ष का मध्याह्न काल तपते हुए सूर्य की तरह व्यतीत किया जाता है। कर्मठता और पुरुषार्थ इसी आयु में चुनौती देने आते हैं। ब्रह्मचर्य में संग्रहीत ज्ञान-योग को गृहस्थ में प्रवेश करने पर ही कर्मयोग में परिणत करने का अवसर मिलता है।

इसका अर्थ यह नहीं कि युवावस्था में केवल भौतिक कार्य ही करने चाहिए। आध्यात्मिक या परमार्थिक कार्यों की ओर ध्यान ही नहीं देना चाहिए। वास्तविकता यह है कि जीवन को आदि से अन्त तक सदुद्देश्यों के लिए ही व्यतीत किया जाना चाहिए। युवावस्था में गृहस्थ रचना से लेकर अर्थ उपार्जन तक जो भी कार्य किये जायें उनके पीछे पारमार्थिक उद्देश्य ही सन्निहित रहना चाहिए। काम का स्वरूप चाहे भौतिक हो या आध्यात्मिक यदि उसे उच्च भावनाओं से, लोकहित की दृष्टि से किया गया है तो वह अपने लिए आत्म कल्याण का और समाज के लिए लोकहित साधना का ही सिद्ध होगा। सत्कर्म करने की स्थिति प्रत्येक आयु में-प्रत्येक आश्रम में रहती है। व्यक्तिगत जीवन के भौतिक उत्कर्ष के साथ-साथ आत्म-कल्याण एवं लोकहित के पारमार्थिक कार्य भी चलते रह सकते है। संसार के अधिकाँश महापुरुषों ने अपने गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए युवावस्था में भी जनहित के महत्वपूर्ण कार्यों का सम्पादन किया है।

ढलती आयु जिसे वानप्रस्थ कहते हैं, समाज का ऋण चुकाने के लिए है। मानव जीवन का तनिक भी विकास सामाजिक सहयोग के बिना संभव नहीं हो सकता। अन्य जीव अपने एकाकी बलबूते पर अपना निर्वाह कर लेते हैं पर मनुष्य प्राणी के लिए यह शक्य नहीं, वह श्रम-पद पर दूसरों की सहायता पर निर्भर रहता है और जिसे जितना अच्छा सहयोग मिल जाता है उतना ही वह शूरवीर एवं समुन्नत बन सकता है। इस तथ्य ने हर मनुष्य को समाज का ऋणी बना रखा है। उस ऋण को चुकाये बिना जो मर जाता है शास्त्र के अनुसार उसे नरक में जाना पड़ता है। ज्ञान सम्पादन और सुखोपयोग के अवसर ब्रह्मचर्य और गृहस्थ आश्रमों में मिलते हैं, उन ऋणों से उऋण होने की स्थिति वानप्रस्थ में ही प्राप्त होती है।

पचास पचपन की आयु तक पहुँचते-पहुँचते आम तौर से अपने बच्चे बड़े हो जाते हैं। गृहस्थ में प्रवेश करके कुछ उपार्जन करने लगते हैं। अपनी कमाई भी बुढ़ापे के लिए कुछ तो संचित रहती ही है। इस सबके द्वारा ऐसा क्रम बनाना पड़ता है कि ढलती आयु का व्यक्ति अपने परिवार की साधारण देखभाल तथा व्यवस्था करते हुए अपने समय का कम से कम आधा भाग परमार्थ मैं- लोक हित में लगाने लगे। समाज सेवा का-लोक मानस की उत्कर्षता को बनाने और बढ़ाने का उत्तरदायित्व वानप्रस्थों का ही है। ये बिना आर्थिक प्रतिफल चाहे लोक हित के कार्यों में समय दे सकते हैं। गुजारे की व्यवस्था घर पर रहने से उन्हें निर्वाह के लिए सार्वजनिक धन की अपेक्षा नहीं करनी पड़ती। इन्द्रिय शिथिल होने लगने-रूप यौवन चले जाने से वासनात्मक विकृतियों की संभावना भी कम हो जाती है। लोक सेवा के योग्य अनुभव भी संग्रह हो जाता है और सफेद बाल हो जाने से दूसरों पर इस ढलती उम्र का भी प्रभाव पड़ने लगता है। मृत्यु की समीपता से धर्म में रुचि भी वास्तविक होती है और युवावस्था में अन्य भोगों के भोग लेने से उनकी निरर्थकता भी समझ में आ जाती है। इसलिए जन-कल्याण के लिए निस्वार्थ लोक सेवा का परम पवित्र उत्तरदायित्व वानप्रस्थों के कंधे पर ही आता है। जो लोग उसकी उपेक्षा करते हैं वे समाज के साथ विश्वासघात करने वाले अथवा कर्त्तव्य की अवहेलना करने वाले ‘कार्य-हीन’ ही माने जा सकते हैं।

वानप्रस्थ मानव जीवन का सबसे महत्वपूर्ण समय है। अपने परिवार का भौतिक एवं आध्यात्मिक प्रशिक्षण करने के लिए उसे एक प्रकार से अध्यापक का काम करना पड़ता है। घर को गुरुकुल बनाकर उसमें परिवार के प्रत्येक सदस्य के लिए सर्वांगीण विकास की योजना बनाना और उनमें से हर एक को उचित नियंत्रण में रखना उस कुलपति वानप्रस्थ का ही कर्त्तव्य है। अवकाश अधिक रहने और सम्मानास्पद स्थिति उपलब्ध रहने के कारण गृहव्यवस्था का संचालन वह अधिक सुविधापूर्वक कर भी सकता है। इसके अतिरिक्त उसे घर से बाहर सार्वजनिक हित के कार्यों में आगे बढ़कर भाग लेना चाहिए। सेवा कार्यों में सबसे उत्कृष्ट प्रकार का सबसे अधिक आवश्यक और सबसे महत्वपूर्ण यह है कि लोगों की प्रवृत्तियों और भावनाओं को कुमार्गगामी बनने से रोकने और सन्मार्ग की ओर प्रवृत्त करने के लिए पूरी शक्ति और सामर्थ्य का प्रयोग किया जाय।

लोक मानस में सात्विकता, सद्भावना और उत्साह करने वाली प्रवृत्तियों का संचालन वानप्रस्थियों का कार्य है। अवकाश के क्षणों का सदुपयोग उन्हें इसी दिशा में करना चाहिए। युग-निर्माण योजना के 108 कार्यक्रम इसी प्रकार के हैं जिन्हें अपनाने के लिए वानप्रस्थ आश्रम के लोगों को आगे बढ़कर आना चाहिए। कई व्यक्ति भजन करके शाँति प्राप्त करने की बात सोचते हैं। यह बात शरीर से पूर्ण अशक्त हो जाने पर चौथेपन के लिए उपयुक्त हो सकती है पर जिनने समाज का ऋण नहीं चुकाया है, वानप्रस्थ का कर्तव्य पूरा नहीं किया है वे इस तक एकाँत की बात सोचने लगें तो उन्हें भगोड़े सिपाहियों की तरह कायर एवं शास्त्र मर्यादा को तोड़ने वाला उच्छृंखल ही माना जायेगा। भजन हर किसी को करना चाहिए। हर आश्रम में उसकी आवश्यकता है। ब्रह्मचर्य और गृहस्थी की तरह वानप्रस्थ में भी भजन, स्वाध्याय, आत्म-चिन्तन एवं योग साधन करना चाहिए, पर इसके लिए घर छोड़कर भाग खड़े होने या सामाजिक उत्तरदायित्वों को तिलाँजलि देने की तनिक भी आवश्यकता नहीं है।

जिस प्रकार बचपन में सफेद दाढ़ी-मूँछ लगाकर बुड्ढा बनने का अभिनय करने वाला उपहासास्पद है उसी प्रकार आश्रम धर्म को तिलाँजलि देकर-बिना ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ की नियत धर्म-मर्यादा पूरी किये अन्धाधुन्ध बाबाजी बन जाने वाला भी उपहासास्पद है। वे अनैतिक वातावरण उत्पन्न करने में ही सहायक होते हैं। आज 56 लाख बाबाजी इधर-उधर मारे-मारे फिरते और दूषित वातावरण उत्पन्न करते देखे जाते हैं। उनमें से थोड़े से ही ऐसे होंगे जिन्होंने प्रबल वैराग्य से प्रेरित होकर सामाजिक विषमताओं से जूझने के लिए बुद्ध, शंकराचार्य, दयानन्द आदि की तरह समय से पूर्व संन्यास लिया हो। अपवाद किन्हीं विशिष्ट महापुरुषों के लिए उपयुक्त हो सकते हैं। साधारणतया तो आश्रम धर्म की मर्यादाओं का पालन करते हुए नियत विधान के अनुसार ही जीवन को सार्थक बनाने वाले क्रम को अपनाते हुए ही आगे बढ़ना चाहिए।

जीवन के अन्तिम अध्याय में जब मनुष्य अपने शरीर, मन की ब्रह्मचर्य में परिवार और समाज की गृहस्थ में और धर्म संस्कृति की वानप्रस्थ में सेवा कर ले तब उचित है कि सत्तर-अस्सी के लगभग संन्यास की तैयारी करे। वसुधैव कुटुम्बकम मानता हुआ, मोह और तृष्णा से निवृत्त होकर उच्चतम भावनाओं में निमग्न रहे। अपने संपर्क में आने वालों को ज्ञान एवं प्रकाश दे तथा वानप्रस्थों का उसी प्रकार मार्ग-दर्शन करे जैसे वानप्रस्थ, गृहस्थों का मार्ग प्रदर्शन करते हैं। संन्यासी के लिए परिव्रज्या उचित है, वह एक स्थान पर न ठहरा रहे वरन् भ्रमण करते रह कर साधना का अन्तिम अध्याय पूर्ण करें।

चार वर्ण और चार आश्रम किसी भी समाज के व्यवस्थित विकास के लिए सर्वोत्तम योजना हो सकती है। भारतीय धर्म में उसकी उपयोगिता के कारण ही उसे आवश्यक धर्म-कर्त्तव्य गिना गया है।


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