असुरों का परित्याग कर लक्ष्मी जी देवलोक में इन्द्र के पास पहुँची और बोलीं-अब मैं तुम लोगों के पास रहा करूंगी।
आश्चर्य चकित इन्द्र ने लक्ष्मी जी से पूछा-भगवती, आप तो चिरकाल से दैत्यों के यहाँ निवास कर रही थीं भला, उन्हें छोड़कर अचानक यहाँ चले आने का क्या कारण उपस्थित हुआ?
लक्ष्मी जी ने कहा- हे सुरेश, जब तक दैत्य उदार, परिश्रमी, स्वाध्यायशील, सदाचारी, स्वच्छता प्रिय, स्त्रियों का सम्मान करने वाले, कृतज्ञ, मधुरभाषी, दयालु, उदार, निरहंकारी, मितव्ययी और नियमित दिनचर्या वाले रहे तब तक मैं वहाँ प्रसन्नतापूर्वक निवास करती रही। पर अब जबकि उनने अपना स्वभाव बदल डाला आलस, छिद्रान्वेषण, कटु भाषण, ईर्ष्या, अस्वच्छता, व्यसन, व्यभिचार, उच्छृंखलता, अवज्ञा, गुरुजनों का तिरस्कार, अधर्म मिथ्याचार और अहंकार को अपना लिया तब उनके यहाँ ठहर सकना मेरे लिये असंभव हो गया और उनके अनुनय विनय करने पर भी मैं उन्हें छोड़कर यहाँ चली आई हूँ। अभी तुम लोगों में अच्छे गुण दिखाई पड़ रहे हैं इन्हीं से आकर्षित होकर यहाँ आई हूँ। यदि तुम लोग भी प्रमाद करने लगे तो यहाँ भी मैं न ठहर न सकूँगी। सज्जनता के सद्गुणों के अतिरिक्त मुझे और कुछ भी प्रिय नहीं। अपने प्रिय स्थान को ही मैं खोजती रहती हूँ और जहाँ उपयुक्त स्थान मिल जाता है वहीं निवास करती हूँ।