जीवन निगम की त्रिविध शिक्षा

June 1964

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त्रिविधि प्रशिक्षण योजना के समाचार से अखण्ड ज्योति परिवार के प्रत्येक सदस्य में प्रसन्नता और उत्साह की लहर दौड़ गई है। इस मास जितने पत्र आये हैं, उनसे यही स्पष्ट हुआ है कि अधिकाँश परिजनों ने अपने लिए इसे सौभाग्य ही माना है और उपलब्ध सुअवसर से सम्भवतः लाभ प्राप्त करने का निश्चय किया है।

अखण्ड-ज्योति के माध्यम से अध्यात्मवाद के उत्कृष्ट सिद्धाँतों को जन-मानस तक पहुँचाने और आदर्श जीवन बनाने की प्रेरणा जिन लोगों को उपलब्ध होती है वे अपने में प्रत्यक्ष परिवर्तन अनुभव करते हैं। यह जीवन्त प्रेरणा ऐसी सशक्त है कि जिसके भी भीतर प्रवेश करेगी, उसे उस दिशा में चलने के लिए भी विवश करेगी। किताबों और अखबारों को जिस हलके दृष्टिकोण से पढ़ा जाता है और समयक्षेप एवं मनोरंजन करके उन्हें एक कौने में रख दिया जाता है वह बात अखण्ड-ज्योति के लिए लागू नहीं हो सकती। इन पंक्तियों को एक विशेष मनोभूमिका के साथ लिखा जाता है, अतएव उनका प्रभाव भी वैसा ही पड़ता है। यह विश्वास करने योग्य तथ्य है कि इस पत्रिका को नियमित रूप से पढ़ने वाले पाठकों में से हजारों नहीं लाखों ने अपने जीवन क्रम में आश्चर्यजनक परिवर्तन होते देखा है। यह विचार केवल विचार बनकर नहीं रह सकते, उन्हें व्यवहार क्रम में प्रत्यक्ष किये बिना किसी पाठक को चैन नहीं पड़ सकता। आज की गई गुजरी परिस्थितियों और दूषित वातावरण में भी नवजीवन संचार के लिए दृष्टिकोण के परिष्कार के लिए सच्चरित्रता और सज्जनता को विकसित करने के लिए अखण्ड-ज्योति से जितना कार्य किया है, उतना शायद ही अन्य किसी माध्यम से हुआ है। इसे अत्युक्ति नहीं, वरन् एक सुनिश्चित तथ्य ही मानना चाहिए।

जब-जब कि हमारी जीवन संध्या धीरे-धीरे निकट आती जाती है और कार्य करने की क्षमता विश्रान्ति की आकांक्षा करने लगी है तब यह भाव अधिक प्रबल होने लगा है कि युग को बदल सकने योग्य उत्कृष्ट व्यक्तियों का निर्माण, जितनी द्रुत गति से जितना अधिक तथा जितना प्रभावशाली बनाया जा सकता है, उसके लिए अधिकतम प्रयत्न किया जाना चाहिए।

इसके लिए एक ही उपाय है व्यक्तिगत संपर्क। पत्रिका, पुस्तकों के माध्यम से केवल विचार भेजे जा सकते हैं। विचारों में जितनी शक्ति होती है उतना वे काम भी करते हैं। पर अधिक कार्य प्राणशक्ति का होता है। प्राण की सामर्थ्य विचारों से अनेक गुनी अधिक है। प्राचीन काल में कष्टसाध्य गुरुकुल प्रणाली से छात्र जंगलों में रहकर इसलिए नहीं पढ़ते थे कि वैसी शिक्षा का प्रबंध उनके नगरों में नहीं हो सकता था। असली बात थी, ऋषियों के तेजस्वी व्यक्तित्व का सान्निध्य जिसके कारण छात्रों में अनायास ही अनेक सद्गुण प्रवेश करते थे तथा आत्मबल निरन्तर बढ़ते रहने का लाभ मिलता था। शिक्षा का उद्देश्य मस्तिष्क का ही नहीं व्यक्तित्व का विकास करना भी है। और यह तभी पूर्ण हो सकता है जब तेजस्वी, सुविकसित अध्यापकों द्वारा प्रशिक्षण की व्यवस्था हो। प्रवचनों का उतना महत्व नहीं जितना सान्निध्य का है। आकर्षक प्रवचन कोई भी कलावन्त व्याख्याता दे सकता है, पर अपनी सहज वाणी से दूसरों के अन्तःकरण बदल देना- उन ही का काम है जो इस प्रकार की प्रतिभा एवं क्षमता से सम्पन्न हो।

हमारा मन है कि अखण्ड-ज्योति परिवार के स्वजनों को जीवन का उत्कृष्ट बनाने वाला प्रशिक्षण हम स्वयं करें। उन्हें अपने व्यक्तिगत सान्निध्य में कुछ दिन रखें और अपने पास जो यत्किंचित् श्रेष्ठता है उसे उपहार की तरह दे सकने का प्रयत्न करें। अपनी इस कामना की पूर्ति से हमें जो सुख मिलेगा उसी के लिए त्रिविध प्रशिक्षण का निमंत्रण परिवार के प्रत्येक सदस्य के नाम भेजना है। पिछले दो महीनों में इस संबंध में जो कुछ लिखा छापा गया है उसे हमारा व्यक्तिगत निमंत्रण ही पाठकों ने समझा है। वस्तुतः बात भी ऐसी ही है। जो कुछ कहना है वह हम अखण्ड-ज्योति के माध्यम से पाठकों को घर बैठे पहुँचाते ही रहते हैं, अब जो शेष है कि वह यह है कि उनके उत्कृष्ट विचारों को कार्यान्वित करने में परिजन जो कठिनाई अनुभव करते हैं उसे हल करने में क्रियात्मक मार्ग दर्शन एवं सहयोग दिया जाय। इसके लिए व्यक्तिगत संपर्क एवं सान्निध्य अपेक्षित था। त्रिविध प्रशिक्षण में उसी की व्यवस्था की गई है। परिजनों को इसलिये आमंत्रित किया गया है कि वे मानवोचित उत्कृष्ट जीवन का निर्माण करने के लिए हमारी व्यक्तिगत सेवा सहायता स्वीकार करें और जिनके लिए संभव है वे मथुरा आकर इस प्रशिक्षण में भाग लें।

जिनके घर में अपने बच्चों के लिए आजीविका मौजूद है, या जो अपनी संतान को स्वावलम्बी जीवन बिताने की उपयोगिता स्वीकार करते हैं, उनके लिए हमारी चार वर्षीय शिक्षा पद्धति बहुत ही उपयोगी सिद्ध हो सकती है। जिन्हें नौकरी करानी है उन्हें सरकारी प्रमाण पत्रों की आवश्यकता पड़ेगी। यह प्रमाण पत्र हमारी दृष्टि में विशेष महत्व नहीं रखता कारण कि स्कूली पाठ्यक्रम के कंठाग्र करने में बालकों को इतना अधिक श्रम करना पड़ता कि उनकी सारी मानसिक शक्ति प्रायः उसी में खर्च हो लेती है। अच्छे डिवीजन में पास हुए बिना सार्टीफिकेट भी नौकरी दिलाने में समर्थ नहीं होते। इसलिए छात्रों को निरन्तर यही चिन्ता लगी रहती है कि रात-दिन पुस्तकें रटें और अच्छे डिवीजन में उत्तीर्ण हों। हमें जो कुछ पढ़ाना है वह इतना अधिक है कि स्कूली कोर्स के साथ-साथ चल सकना कठिन सिद्ध होगा। इसलिए अभी यह विचार छोड़ देना पड़ा है कि हमारी शिक्षा प्रणाली के साथ-साथ स्कूली पाठ्य-क्रम का भी समावेश रहे। हमें जो कुछ पढ़ाना है वह छात्रों के व्यक्तित्व का प्रत्येक दिशा में सुविकसित बनाने वाला होगा उसे सैद्धाँतिक ही नहीं व्यावहारिक दृष्टि से भी पढ़ाया जाना है। वह सब भी इतना भारी है कि उसे पूर्ण करने में भी छात्रों को भारी श्रम एवं प्रयत्न करना होगा। ऐसी दशा में यह मानकर ही चलना पड़ा है कि हमें थोड़े ही छात्र मिलेंगे। हमें आवश्यकता भी थोड़े ही छात्रों की है क्योंकि वर्तमान स्वल्प साधनों से अधिक छात्रों की शिक्षा हमारे लिए संभव भी नहीं है। पच्चीस छात्रों के उपयुक्त ही स्थान और समय है। इतने बड़े परिवार में से इतने थोड़े छात्र आसानी से मिल जाने वाले हैं। अपना प्रयोग हम इन्हीं से आरंभ करेंगे और लोगों को बतावेंगे कि यदि शिक्षा पद्धति उपयुक्त हो तो बालकों के व्यक्तित्व का विकास कितनी सरलता पूर्वक हो सकता है। राष्ट्र को भावी सुयोग्य पीढ़ी देने के लिए जिस प्रकार की शिक्षा प्रणाली चाहिए उसकी एक प्रयोगशाला ही हमारे इस प्रयत्न को समझना चाहिए। इसकी सफलता देश के शिक्षा शास्त्रियों की आँखें खोलने वाली भी सिद्ध हो सकती है। 14 से 16 वर्ष की आयु के 25 छात्रों की आवश्यकता है। उन्हें चार साल पढ़ाया जायेगा। 18-20 वर्ष की आयु में जब वे अपने घर वापिस लौटेंगे तो हमारा विश्वास है कि उनके परिवार का कोई भी व्यक्ति यह नहीं कह सकेगा कि यह शिक्षा निरर्थक सिद्ध हुई। जो आवेदन पत्र आवेंगे उनमें से उपयुक्त लड़के ही छाँटे जायेंगे, ताकि उन पर किया गया श्रम सार्थक सिद्ध हो सके। यह शिक्षण अगले वर्ष से चलाने का विचार है, पर यदि आवश्यक व्यवस्था जल्दी हो सकी तो उससे पूर्व भी क्लास चालू की जा सकती है। साथ ही यदि कोई अभिभावक अपने बालकों को यहाँ रखकर प्राइवेट रूप से सरकारी परीक्षा दिलाने का आग्रह करेंगे तो, उस समय की परिस्थिति के अनुसार उचित व्यवस्था करने का प्रयत्न किया जायेगा।

दूसरा शिक्षण गृहस्थों का है। आरंभिक जीवन में जिन्दगी जीने की कला जो लोग नहीं सीख सके और गृहस्थ का उत्तरदायित्व समझे बिना उस जंजाल में अनायास ही फंस गये, उनकी व्यस्तता को देखते हुए कम से कम एक महीने की शिक्षा तो उन्हें लेनी ही चाहिए। गृहस्थ जीवन एक महान प्रयोग है। उस पर व्यक्तिगत जीवन की सुख-शाँति तथा प्रगति अस्सी फीसदी निर्भर रहती है। जिसका गृहस्थ जीवन अस्त-व्यस्त है उसे प्रत्यक्ष नरक का दर्शन अपने घर की चहारदीवारी के भीतर ही होता है। नई पीढ़ियों को तैयारी परिवारों के वातावरण में ही होती है। यदि वहाँ अनुपयुक्त वातावरण छाया हुआ है तो यह आशा दुराशा मात्र ही रहेगी कि बच्चे बड़े होकर सुयोग्य नागरिक बनेंगे। वे पैसे भले ही कमा सकें पर यदि चरित्रहीन और ओछी प्रकृति के हैं तो उन्हें किसी समाज के लिए अभिशाप ही माना जा सकता है।

आरोग्य और दीर्घ-जीवन, प्रसन्नता और प्रफुल्लता, सुन्दरता और सुव्यवस्था, समृद्धि और संपन्नता, स्नेह और सहयोग की समस्त संभावनाएं गृहस्थ जीवन की सुव्यवस्था पर निर्भर रहती है। नई पीढ़ी जिसके ऊपर अभिभावक गर्व कर सकें और विचारशील लोग यह अनुभव करें कि किन्हीं सभ्य लोगों ने यह सुन्दर श्रद्धांजली प्रस्तुत की है इसी प्रकार तैयार होगी। पर अध्यात्म, धर्म और परमार्थ की दिशा में भी वे ही लोग चल पाते हैं जिनका कम पारिवारिक दृष्टि से शाँतिपूर्वक चल रहा है। जिनका कुटुम्ब क्लेश कलह के नारकीय वातावरण में डूबा रहता है वे उतने ही दुःखी रहते हैं जितने कि शारीरिक रोगों से ग्रस्त दर्दी लोग कष्ट पाते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि हममें से प्रत्येक व्यस्त गृहस्थ, सुव्यवस्थित, सुविकसित, शाँतिमय एवं समुन्नत बनावे की कुछ जाने और इस क्षेत्र में नित्य प्रति उपस्थित होती रहने वाली उलझनों को सुलझाने की विद्या में निपुणता प्राप्त करे। गृहस्थों को सपरिवार एक महीने के लिए मथुरा आने के लिए आमन्त्रण इसीलिए दिया है कि उस महत्वपूर्ण जानकारी से अपने को परिचित और अभ्यस्त बनाकर सभ्य परिवार में रह सकने का स्वर्गीय आनन्द उपलब्ध करें। परिवार भी एक राज्य है, उसका शासन करने के लिए सुयोग्य प्रशासक जैसी प्रतिभा अभीष्ट होती है। यह प्रशिक्षण प्राप्त किये बिना जो लोग गृहस्थ बसा लेते हैं वे किसी प्रकार रोते झींकते ही जिन्दगी के दिन पूरे करते हैं। अखण्ड-ज्योति परिवार के सदस्यों की यह कठिनाई हल करने के लिए यह एक महीने का गृहस्थ प्रशिक्षण इतना उपयोगी सिद्ध होगा, कि जो भी इस का लाभ उठावेंगे वे अपना एक महीने का समय तथा मार्ग व्यय आदि का खर्च निरर्थक गया है ऐसा अनुभव कदापि न करेंगे।

बिगड़े हुए स्वास्थ्य को सुधारने के लिए प्राकृतिक चिकित्सा विधि से उपचार प्राकृतिक चिकित्सा द्वारा दूसरों को रोग मुक्त कर सकने की शिक्षा, चान्द्रायण व्रत के साथ एक महीने का गायत्री पुरश्चरण करने की तपश्चर्या, साहित्य कार्यों में अभिरुचि रखने वालों को लेखन-कला का अभ्यास, ब्रज के तीर्थों का दर्शन आदि अनेक अन्य कार्यक्रम और इस एक महीने की शिक्षा के साथ जोड़ रखे गये हैं, जिनके कारण उसका महत्व और भी बढ़ गया है। यह शिक्षण इसी अश्विन मास में आरंभ होने वाला है। स्थान के अभाव से अभी संभवतः पच्चीस परिवारों की शिक्षा ही हर महीने चल सकेगी। गत मास पत्र बहुत आये हैं। इनमें से आश्विन से वैशाख तक आठ महीनों में जितने परिवारों के आने की स्वीकृति दी जा सकेगी उतनी देकर शेष को अगले वर्ष के लिए रुकना होगा। जेष्ठ के महीने में तो हर वर्ष 10-10 दिन के परामर्श शिविर करते रहने की बात सोची गई है।

जिनने गृहस्थ की जिम्मेदारियाँ पूरी कर ली है, जिन पर कमाने या घर संभालने का भार नहीं है, उन्हें एक वर्ष तक आत्म-कल्याण की वानप्रस्थ शिक्षा लेने के लिए आमंत्रित किया गया है। इस अवधि में वे सम्पूर्ण गीता पढ़ेंगे और उसके माध्यम से लोक जागरण की कथा कहने का, आदर्शों और सिद्धाँतों के नीर-क्षीर विवेक का अभ्यास करेंगे। एक वर्ष की विशेष गायत्री तपश्चर्याएं करके अब तक के कषाय कल्मषों को धो डालने का अवसर उन्हें मिलेगा। वेद शास्त्र, एवं दर्शन, उपनिषदों का साराँश पढ़ने समझने की इतने थोड़े समय में अन्यत्र व्यवस्था बन सकना असंभव ही है। प्रवचन करने का इस अवधि में विशेष रूप से अभ्यास कराया जायेगा ताकि वे अपने क्षेत्र में नवयुग का प्रकाश और संदेश फैला सकने में समर्थ हो सकें। आत्म-कल्याण की साधना से उपासना की तरह ही लोकहित के आयोजनों में समय लगाना भी आवश्यक है। यह उभय विधि प्रशिक्षण एक वर्ष की अवधि में जो प्राप्त किया जायेगा उसे भावी जीवन में निष्ठापूर्वक करते रहने से मानव शरीर को सार्थक बनाने और लक्ष्य को प्राप्त करने का भी सहयोग बन सकता है।

त्रिविधि प्रशिक्षण प्राकृतिक चिकित्सा आदि की जो शिक्षा पद्धतियाँ तपोभूमि में चलेंगी, उनका संचालन इन वानप्रस्थों द्वारा ही होने वाला है ताकि वे ऐसे ही विद्यालय एवं शिविर अपने-अपने क्षेत्रों में भी चलाते रह सकें। यज्ञ आयोजन, जन्म-दिन षोडश संस्कार, पर्व उत्सव आदि सामूहिक धर्मानुष्ठानों को ठीक तरह करा सकने की पद्धति यह वानप्रस्थी लोग एक वर्ष में भली प्रकार सीख जावेंगे। जातीय संगठनों का संचालन, आदर्श विवाहों की व्यवस्था, युग निर्माण योजना के शत सूत्री कार्यक्रमों की कार्य पद्धति आदि अनेकों ऐसी क्षमताएं यह वानप्रस्थी लोग इस एक वर्ष की अवधि में प्राप्त करेंगे जिनके आधार पर वह अपना और अपने देश, धर्म, समाज एवं संस्कृति का भारी हित साधन कर सकें।

यह वानप्रस्थ शिक्षा क्रम जेष्ठ के तीन शिविर समाप्त होते ही आरंभ हो जायगा और आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, इन तीन महीनों में उन्हें इतना सुयोग्य बना दिया जायेगा कि आश्विन से आरंभ होने वाले गृहस्थ शिविरों की त्रिविध शिक्षा में वे भी हमारे साथ हाथ बंटा सकें। आगे चलकर ब्रह्मचारियों की चार वर्षीय शिक्षा व्यवस्था में भी यह वानप्रस्थ ही हमारे सहायक के रूप से कार्य करेंगे। प्रयत्न यह किया जायेगा कि वे अपने-अपने स्थानों पर युग-निर्माण चेतना के स्वतंत्र केन्द्रों का संचालन करने की परिपूर्ण क्षमता इस अवधि में प्राप्त कर लें। और देश के कौने-कौने में मानव जाति की आत्मोत्कर्ष की आवश्यकता पूर्ण करने में बढ़-चढ़ कर काम करें। राष्ट्र का सच्चा नेतृत्व कर सकने में ऐसे ही परमार्थी वानप्रस्थी सफल हो सकते हैं।

इस शिक्षा के लिए केवल सुशिक्षित एवं सुव्यवस्थित व्यक्ति ही छाँट-छाँट कर लिये जाते हैं। इसलिए उनकी संख्या न्यून ही रह जायेगी। यह थोड़े लोग ही आगे चल कर असंख्य जनता को प्रबुद्ध बना सकने में समर्थ होंगे। इसलिए उनकी थोड़ी संख्या भी अधिक महत्वपूर्ण मानी जा सकती है।

गत दो अंकों में त्रिविध प्रशिक्षण की जानकारी छपी है। इन पंक्तियों द्वारा परिवार के सभी सदस्यों को आमन्त्रण भेजते हैं कि जिनकी जैसी स्थिति हो वे त्रिविधि शिक्षण में से अपने उपयुक्त चुनाव कर लें और उससे लाभ उठाने का प्रयत्न करें। निवास, शिक्षा आदि का कोई खर्च नहीं है। पर भोजन भार शिक्षार्थियों को स्वयं ही उठाना होगा। आने से पूर्व स्वीकृति प्राप्त कर लेना आवश्यक है। बिना स्वीकृति आने वालों को स्थान न मिल सकेगा।

त्रिविधि शिक्षा पद्धति की महत्वपूर्ण योजना को पूरा करने के लिए ‘युग निर्माण विद्या पीठ’ की आवश्यक तैयारी आरंभ कर दी गई है। इसे सफल बनाने के लिए सभी स्वजनों की सद्भावनाएं अपेक्षित हैं।


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