श्रद्धा ही जीवन है

June 1964

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श्रद्धा मानव जीवन की नींव है। जैसी जिसकी श्रद्धा होती है वैसा ही उसका व्यक्तित्व बनता है। गीताकार के शब्दों में ‘श्रद्धामयोऽयं पुरुषः’ यह मनुष्य स्वभाव से ही श्रद्धावान है। यह बात अलग है कि उसकी श्रद्धा का आधार क्या हो। जिस तरह सूर्य के बिना दिन नहीं होता, आँखों के बिना देखा नहीं जा सकता, कानों कि बिना सुना नहीं जा सकता, उसी तरह श्रद्धा के बिना जीवन गतिमय नहीं हो सकता। जिस तरह दीपक के प्रज्ज्वलित रहने के लिए स्नेह आवश्यक है उसी तरह जीवन के लिए श्रद्धा अपेक्षित है। वह मनुष्य, मनुष्य नहीं जिसमें श्रद्धा न हो।

श्रद्धा ही सत्य का साक्षात्कार कराती है। ‘श्रद्धया सत्यामाप्यते’ (यजु. 19.30) श्रद्धा से सत्य की प्राप्ति होती है। ‘श्रद्धा प्राणः’ (अथर्व 9।5।21) श्रद्धा मनुष्य का प्राण है। श्रद्धाहीन मनुष्य निष्प्राण, निर्जीव ही समझना चाहिए। क्योँकि किसी तरह की श्रद्धा न होने से वह निश्चेष्ट ही रहेगा और चेष्टारहित जीवन मृत्युतुल्य ही होता है।

श्रद्धा मुक्ति का, ज्ञान प्राप्ति का, जीवन साधना का आधार है। गीताकार ने कहा है-

‘श्रद्धावन् लभते ज्ञान तत्परः संयतेन्द्रियः।

ज्ञानं लब्ध्वा पराँशान्तिमचिरेणाधि गच्छति॥’

‘श्रद्धालु व्यक्ति अपनी इन्द्रियों का संयम करके तत्परता से ज्ञान प्राप्त करता है। ज्ञान प्राप्त होने पर मुक्ति मिलती है और फिर वह परम शाँति, सुख की अनुभूति करता है।’

हमारी श्रद्धा का उदय होता है किसी महत्वपूर्ण व्यक्तित्व से। जब हम किसी व्यक्ति में जनसाधारण से विशेष गुण या शक्ति का दर्शन करते हैं तो उसके प्रति एक आनन्दयुक्त आकर्षण पैदा होता है हममें यह आकर्षण उसके महत्व को स्वीकार करने के साथ-साथ हममें उसके प्रति पूज्य भाव भी पैदा करता है। इस प्रक्रिया का नाम श्रद्धा है।

श्रद्धा का आधार व्यक्ति के गुण कर्म ही होते हैं। इसलिए जिन कर्मों की प्रेरणा से श्रद्धा उत्पन्न होती है उन्हें धर्म की संज्ञा दी जाती है और इसी धर्म से मनुष्य समाज की स्थिति होती है। संक्षेप में धर्मवान व्यक्ति हमारी श्रद्धा का केन्द्र होता है। श्रद्धालु और श्रद्धेय के बीच में यह धर्म (कर्म) ही मुख्य हेतु होता है।

मनुष्य की प्रतिभा, शक्ति साधन सम्पन्नता भी श्रद्धा का आधार हो सकती है किन्तु ये कोई सार्वभौमिक नियम नहीं है। इनके संबंध में यह कोई निश्चय नहीं कि इनसे समाज का भला ही होगा। प्रतिभावान व्यक्ति भी समाज का शोषण कर सकता है, उसे हानि पहुँचा सकता है। शक्तिशाली होकर भी मनुष्य गुण्डा, दुष्ट, दुराचारी हो सकता है। साधन-सम्पन्न व्यक्ति भी बुराई और समाज को हानि पहुँचाने वाले कार्य कर सकता है। इसलिए जिन कृत्यों से सामाजिक हित में बाधा पड़े वे मनुष्य को श्रद्धा के पूर्ण आधार नहीं हो सकते। यों समाज में थोड़े बहुत व्यक्ति ऐसे भी होते हैं जो आतताइयों की प्रशंसा करते हैं। व्यसनी दुराचारी होकर भी कोई प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति कुछ व्यक्तियों की श्रद्धा का केन्द्र हो सकता है। साधन सम्पन्न व्यक्ति असामाजिक कर्म करके भी बहुतों का श्रद्धा भाजन बन सकता है। किन्तु ये सभी समाज के लिए अहितकर होने से हमारी श्रद्धा के सही आधार नहीं हो सकते। उल्टे ऐसे लोगों के प्रति श्रद्धालु होकर उन्हें प्रोत्साहन देना उनके द्वारा की गई पाप प्रवृत्तियों का भागी बनना है अर्थात् पाप का भागी बनना है।

अस्तु सद्कर्म, सदाचार, शील, सज्जनता ही हमारी श्रद्धा का उपयुक्त आधार हो सकते हैं क्योंकि इसका मनुष्य मात्र के भले से संबंध होता है। समाज की स्थिति को बल मिलता है इनसे। इनके अभाव में तो प्रतिभाशाली साधन सम्पन्नता भी हानिकारक हो सकती है।

सज्जनता, शील और इससे प्रेरित सत्कर्म जिन्हें दूसरे शब्दों में धर्म भी कहा जा सकता है संसार के सभी जन-समुदायों में प्रतिष्ठित है और इनसे समाज के नियम, व्यवस्था, स्थिति में सहयोग मिलता है। इसलिए ये ही हमारी श्रद्धा के सच्चे आधार हो सकते हैं।

श्रद्धा जहाँ मनुष्य के निजी जीवन का आधार बनती है, प्रेरणा का काम करती है, जीवन के रहस्यों को स्पष्ट कर मुक्ति प्रदान करती है वहाँ वह एक महत्वपूर्ण सामाजिक कर्त्तव्य भी है। सदाचारी, शीलवान, धार्मिक व्यक्ति के प्रति यदि हम श्रद्धा नहीं रखते तो कर्त्तव्य का पालन नहीं करते। किसी को भले काम करते देखकर, त्याग-साहसपूर्ण कदम रखने पर, धर्म का आचरण करने पर यदि हमारे मन से धन्यवाद, कृतज्ञता के भाव प्रकट न हो तो हम समाज के लिए जड़, पत्थर की तरह हैं। हम उसके लिए किसी काम के नहीं। अस्तु श्रद्धा एक सामाजिक उत्तरदायित्व है। इससे धर्म को बल मिलता है, सज्जनता को जीवन। जिस तरह वृक्ष को हरा−भरा रखने के लिए उसे सींचते रहने की आवश्यकता है उसी तरह समाज को शुभ कर्मों से युक्त रखने, धर्ममय रखने के लिए, उसे श्रद्धा से सींचते रहने की आवश्यकता है।

श्रद्धा वस्तुतः एक सामाजिक भावना है। वह एक ऐसी ‘आनन्दपूर्ण कृतज्ञता’ है जो एक प्रतिनिधि के रूप में हमें समाज के सम्मुख प्रकट करते हैं। लेने देने की कोई बात नहीं होती श्रद्धा में। यह एक सामाजिक उत्तरदायित्त्व है। जन-सामान्य का धर्म है। कोई भी व्यक्ति श्रद्धा का पात्र हो सकता है यदि वह सामाजिक जीवन के लिए उपयोगी होता है।

श्रद्धा के द्वारा हम अपना ही भला नहीं करते वरन् समाज का भी बहुत बड़ा साधन करते हैं। एक सदाचारी, धर्मवान व्यक्ति स्वभाव से अपने आस-पास प्रसन्नता और आनन्द की उपस्थिति देखना चाहता है और हम अपनी श्रद्धा प्रकट करके अपना आनन्द और प्रसन्नता व्यक्त करते हैं। इससे श्रद्धेय का उत्साह बढ़ता है। उसे अपनी सामर्थ्य का ज्ञान होता है। इससे समाज में शील, सदाचार, धर्म को प्रोत्साहन मिलता है जो समाज की सुरक्षा स्थिति के लिए आवश्यक होते हैं।

श्रद्धा कहने की, या प्रचार करने की वस्तु नहीं है। अपने मन में किसी के प्रति श्रद्धा रखकर बहुत दूर रहते हुए भी उसके महत्व को समाज में प्रतिष्ठा देने में सहायक हो सकते हैं हम। श्रद्धा का आधार गुण और कर्म होते हैं। मनुष्य तो गौण होता है। उस गुण और धर्म को हम कहीं भी श्रद्धापूर्वक बल दे सकते हैं स्वयं आचरण करके और दूसरों में उनका प्रसार करके। इस संदर्भ में यह कहने कोई आवश्यकता नहीं कि ‘मैं आपके प्रति श्रद्धा रखता हूँ।’

जिसका सब कुछ छूट गया है, जो जीवन से निराशा हो चुके हैं और सान्त्वना, अवलम्बन और जीवन देती है-श्रद्धा। प्रत्येक समर्थ व्यक्ति भी अपने आप में अपूर्ण होता है उसे किसी अवलम्बन की आवश्यकता होती है और श्रद्धा ही मनुष्य का शुद्ध अवलम्बन होती है। इसमें ऐसा ‘परकीय-विश्वास’ होता है जिससे स्वकीन कार्य भी सुगम हो जाता है। श्रद्धालु का जीवन सरल हो जाता है। उसके जीवन के ताप शीलत हो जाते हैं। कठिनाइयाँ निष्प्रभ हो जाती हैं श्रद्धा के अवलम्बन से। जिन लोगों का जीवन श्रद्धा रहित होता है उनके जीवन में सुगम पथ बन्द हो जाते हैं उन्हें कठिनाइयों का कष्टकाकीर्ण पथ का अवलम्बन लेना पड़ता है या बहुत दिनों में थोड़ी-सी दूरी ही तय कर पाते हैं वे। लेकिन जो श्रद्धा अर्जित कर लेते हैं उनके लिए कठिन और असंभव कुछ भी नहीं रहता।

‘श्रद्धा का मूलाधार है दूसरे के महत्व को स्वीकार करना।’ किसी भी क्षेत्र में व्यक्ति की विशेषताओं से प्रभावित होकर हम उसे महत्व देते हैं ऐसी दशा में अपना आपा भूलना पड़ता है। लेकिन जिन लोगों में स्वार्थ और संकीर्णतायें भरी रहती हैं, जिन्हें अपनी बड़ाई ही अच्छी लगती है, जिन्हें अपने सिवा किसी का महत्व नहीं सुहाता ऐसे स्वार्थी और अभिमानी लोगों में श्रद्धा की भावना पैदा नहीं होती। अपनी संकीर्णताओं के कारण ये लोग दूसरों के कार्य और जीवन का यथार्थ मूल्याँकन भी नहीं कर पाते।

श्रद्धा न्याय-बुद्धि पर चलती है। श्रद्धेय के जितने महान गुण कर्म-धर्म होंगे उतने ही अनुपात से दूसरे लोगों में श्रद्धा का उदय होता है। सद्गुण, सत्कर्म, शील, धर्मपालन का सच्चा मूल्यांकन है- श्रद्धा। श्रद्धा कोई व्यापार नहीं है जिसमें श्रद्धावान कुछ प्राप्ति की आशा रखे श्रद्धेय से। यह तो दो व्यक्तियों के बीच का पुनीत माध्यम है। किसी चाह की प्राप्ति की भावना रख यदि हम किसी के प्रति श्रद्धा प्रकट करते हैं तो वह श्रद्धा नहीं चापलूसी, खुशामद है। श्रद्धा के नाम पर स्वयं को और श्रद्धेय को धोखा देना है। इसमें कोई संदेह नहीं कि आजकल ऐसे झूठे श्रद्धालु और श्रद्धापात्रों का अधिक बोलबाला है।

शास्त्रकारों ने एक मत होकर कहा है-श्रद्धापूर्वक किए हुए कर्म, दिये गये दान आदि ही सफल होते हैं। अश्रद्धापूर्वक किया हुआ कोई भी कर्म निष्फल हो जाता है गीताकार ने कहा है-

‘अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्।

असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह॥’

‘श्रद्धा के बिना किये हुए यज्ञ यागादि, दिये हुए दान की हुई तपश्चर्या यहाँ तक कि कोई भी कर्म, फल नहीं देता। व्यर्थ चला जाता है। हे अर्जुन उससे इस लोक में कोई सिद्धि नहीं मिलती तो भला परलोक में क्या मिलेगी?’

वेद के ऋषि ने भी कहा है-

श्रद्धायाग्नि समिध्यसे, श्रद्धा हूयते हविः।

श्रद्धा भगस्य मूर्धिनि वचसा वेदयामसि॥

(ऋग्वेद)

‘श्रद्धा से आत्माग्नि प्रदीप्त होती है। उसमें श्रद्धापूर्वक ही आहुति दी जाती है। श्रद्धा समस्त कल्याणकारी कार्यों के शीर्ष-स्थान पर विराजमान है श्रद्धा के बिना कुछ भी तो प्राप्त नहीं होता।’

उपनिषद्कार ने भी यही कहा है-

श्रद्धयादयम् (श्रद्धापूर्वक देना चाहिए)

श्रद्धालु के प्रति श्रद्धापूर्वक जो कुछ दिया जाता है उसे दान कहते हैं। वैसे दान की प्रेरणा दो होती हैं- एक श्रद्धा, दूसरी दया। सामर्थ्यहीन, गरीब, असहाय व्यक्तियों को दान देने की प्रेरणा दया से उत्पन्न होती है किन्तु श्रद्धा की प्रेरणा से सामर्थ्यवान व्यक्ति को देने की भावना पैदा होती है। विद्यादान में रत, समाज सेवा और परोपकार में लीन, मानव समुदाय की ज्ञान वृद्धि में लीन पुरुषों के अभाव की पूर्ति तत्परता से करना ही सच्ची बात है। वह समाज के ठीक पेट में जाता है और समाज के सभी अंगों को परिपुष्ट करता है। लेकिन स्वार्थियों, पाखण्डियों, अन्यायियों को जो दिया जाता है वह समाज के उसी तरह अंग नहीं लगता जिस तरह छिद्रयुक्त घड़े में पानी संग्रहीत नहीं रहता।

स्वार्थी व्यक्ति श्रद्धा को अपने लाभ की पूर्ति या अपनी तुच्छ मनोवृत्ति की तृप्ति के लिए उपयोग करते देखें जाते हैं। कोई साधुओं के वस्त्र पहनता है और कोई जन-सेवा का नारा लगाते हैं तो कोई बड़े भारी त्यागी बनकर समाज को धोखा देते हैं। ऐसे लोग ऊंची-ऊंची बातें कहते हैं जैसे कोई महान विद्वान हो या ज्ञानी ध्यानी। तरह-तरह के बनाव, प्रचार, प्रोपेगण्डा के द्वारा भोले लोगों को प्रभावित कर उनकी श्रद्धा प्राप्त करते हैं और फिर- उससे शोषण करते हैं, उन समाज का अपने लाभ के लिए।

कई लोग श्रद्धा को अपने मनोविलास का साधन बनाते हैं। ऐसे लोगों के लिए श्रद्धा उसी तरह है जैसे कि नशेबाज के लिए शराब, भांग, गाँजा, चण्डू आदि। ऐसे लोग अपने कामों से एक क्षण के लिए भी अपने नाम का वियोग नहीं सह सकते। ये लोग ऐसे काम उठाते हैं जिनमें नाम और काम का आडम्बर अधिक हो लेकिन मूल में कुछ भी न हो। लेकिन श्रद्धा इस तरह के दुरुपयोग और अपव्यय के लिए नहीं है। हमें इस संबंध में पूरी सावधानी बरतनी चाहिए। कोई दूषित मनोवृत्ति का व्यक्ति हमारी श्रद्धा भावना का शोषण कर उसका दुरुपयोग न कर सके। क्योंकि श्रद्धा के द्वारा हमारी समस्त शक्तियों का भी दुरुपयोग किया जा सकता है। श्रद्धा समाज को पुष्ट करने वाली एक अमृतधारा है किन्तु समाज का यह भी कर्त्तव्य है कि दुष्ट, स्वार्थी, लोग इसका दुरुपयोग न करें।

इस सावधानी के साथ हम श्रद्धा की उपासना करें।

श्रद्धाँ प्रार्प्यहवाभहे श्रद्धाँ मध्यदिन परि।

श्रद्धाँ सूर्यस्य निम्रुचि श्रेद्धे श्रद्धापयह नः॥

(ऋ. 0। 051। 5)

‘श्रद्धा देवी का आह्वान करो। प्रातः काल श्रद्धायुक्त हों हम। मध्याह्न में श्रद्धावान रहें। सायंकाल श्रद्धा से युक्त हों और रात्रि में भी श्रद्धायुक्त रहें। जीवन के प्रत्येक कार्य में, प्रत्येक क्षण श्रद्धा को धारण किये रहें।’


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