अन्धकार में प्रकाश उत्पन्न करने वाले- शंकराचार्य

June 1964

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समय अपनी समस्याओं को हल करने के लिए समय-समय पर ऐसे महापुरुष पैदा किया करता है जो उस काल की उलझनों को सुलझाने के लिए प्रबल पुरुषार्थ कर सकने में समर्थ हों। भगवान शंकराचार्य ऐसे ही अवतारी महापुरुषों में से एक थे।

जन्मजात प्रतिभा यों सभी में रहती है और जिनमें वह न्यून हो वह उसे प्रयत्नपूर्वक बढ़ा भी सकता है पर शंकराचार्य में स्वतः ही वह अधिक थी। विद्याध्ययन के लिए पाठशाला भेजा गया तो वहाँ उन्होंने अल्प आयु में ही बहुत कुछ पढ़ लिया। वेद, शास्त्र, दर्शन और उपनिषदों में उन्होंने समुचित प्रवीणता प्राप्त कर ली।

विवेकशील बालक के सामने प्रश्न उपस्थित हुआ कि वह इस प्रतिभा का क्या उपयोग करे? कुसंस्कारी, स्वार्थपरायण, संकीर्ण भावना वाला लड़का इतना ही सोच सकता है कि नौकरी-चाकरी करके शौक-मौज की जिन्दगी पूरी करेंगे और बाबू बनने के गौरव में जीवन की सार्थकता मान लेनी चाहिए। पर शंकराचार्य उस मिट्टी के बने न थे। उनने जो सोचा वह ऊंचे स्तर का था और जो किया उसे इतना उत्कृष्ट आँका गया कि उन्हें ‘जगत गुरु’ मानकर गौरवास्पद पदवी से विभूषित किया गया। अब तो उनकी गद्दी पर बैठने मात्र में उनके अनुयायी तक ‘जगद्गुरु’ कहलाने का सौभाग्य प्राप्त कर लेते हैं।

बालकपन बीता ही था, किशोर अवस्था पूरी करके यौवन का आगमन अभी हो भी न पाया था कि जीवनोद्देश्य को निश्चित करने की विचारणा पूरी करके वे एक निष्कर्ष पर पहुँच भी गये और जब उन्हें अपने निष्कर्ष की उपयोगिता और श्रेष्ठता पर विश्वास हो गया तो उसे पूरा करने के लिए उन्होंने जो कुछ भी हो सका सो सब कुछ किया।

शंकराचार्य अपनी माता की इकलौती संतान थे। साधारण स्त्रियों की तरह उनकी माता भी यही चाहती थी कि बेटे बहू और नाती पोतों से भरा घर देखकर प्रसन्नता प्राप्त करें। पर बालक एक माता के मोह को महत्व देने की अपेक्षा असंख्य माताओं के पुत्रों को सच्ची सुख-शाँति का संदेश देने के पक्ष में था। युवक संन्यासी बनकर लोकमंगल के लिए अपना जीवन उत्सर्ग करना चाहता था, पर माता तो माता ही ठहरी, उसमें मदालसा जैसा साहस कहाँ? विश्वहित को अपनी निज की प्रसन्नता से बढ़कर मानने की, और जो महान है उसके लिए लघु का त्याग करने की उदारता उसमें कहाँ? बेचारी रो-धोकर बालक को समझाती-बूझाती रही कि वह घर गृहस्थी को संभाले और उसकी आँखों से ओझल न हो।

युवक में माता के प्रति अगाध निष्ठा थी। वे उसका पूरा सम्मान करते थे और उसकी सेवा में किसी प्रकार की न्यूनता न रहने देना चाहते थे, पर अन्तरात्मा ने यह स्वीकार न किया कि मोहग्रस्त व्यक्ति अविवेक पूर्वक किसी बात का आग्रह कर रहा हो तो भी उसे स्वीकार कर ही लेना चाहिए। माता की ममता का बहुत मूल्य है पर विश्व माता की सेवा करने का मूल्य उससे भी बड़ा है, विवेक ने ‘बड़े के लिए छोटे त्याग‘ उचित बताया और शंकराचार्य के लिए जो उचित है वह ईश्वर का निर्देश लगा। आत्मा ने परमात्मा की वाणी सुनी और उसी पर चल पड़ने का निश्चय भी बन गया।

कई बार बच्चों को बहलाने के लिए कुछ बहानेबाजी भी करनी पड़ती है। बूढ़ी माता का मोह बालकों की बाल-हठ से अधिक महत्व का न था। अस्तु प्रबुद्ध किशोर ने उसे झाँसा देकर काम बना लेने की मुक्ति ढूंढ़ निकाली। एक दिन माता पुत्र नदी में नहाने गये। माता किनारे पर बैठी थी, बेटा तैर कर स्नान का आनन्द ले रहा है। अचानक बेटे ने चिल्लाना शुरू किया- बचाओ, कोई बचाओ, मगर मुझे खींचे लिये जा रहा है। बेटे की चीत्कार सुनकर माता किंकर्तव्य विमूढ़ हो गई। बचाने का कोई उपाय वह जानती न थी। बेटे ने फिर कहा- ‘माता, मुझे भगवान शंकर के लिए समर्पण कर दो, वे ही अब मुझे बचा सकते हैं।’ मर जाने से जीवित रहने का मूल्य अधिक है, भले ही संन्यासी चलकर जीवित रहा जाय। माता को निर्णय करते देर न लगी। उसने भगवान शंकर से शर्तबंद प्रार्थना की-’मेरा बेटा मगर के मुँह से निकल आवे तो उसे आपके समर्पण करूंगी। संन्यासी बनने दूँगी।’

युवक के चेहरे पर प्रसन्नता की रेखा दौड़ गई, वह धीरे-धीरे किनारे पर आ गया। संन्यास की आकाँक्षा पूरी हुई। उन्होंने कषाय वस्त्र धारण कर भारतीय धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए घर-घर पर अलख जगाने का निश्चय कर लिया। ईश्वर उपासना में वे नित्य ही बहुत समय लगाते पर साथ ही यह भी विचार करते थे कि देश में अनेकों मत-मतान्तरों के कूड़े-करकट ने वेद-धर्म को पूरी तरह पराजित कर रखा है उसका भी तो उद्धार किया जाना चाहिए। ब्राह्मण का धर्म और संस्कृति की सुरक्षा के लिए जागरुक प्रहरी की तरह जो कर्त्तव्य पालन करना आवश्यक है, वह भी तो करना चाहिए। उन्होंने समग्र अध्यात्म को अपने जीवन में उतारा। भावनापूर्वक उपासना की, जीवन को अधिकाधिक पवित्र और निस्पृह बनाया, साथ ही लोक सेवा के लिए सामर्थ्य भर प्रयत्न करने का भी निश्चय किया। आर्ष अध्यात्म का स्वरूप भी यही है। इस त्रिविध कार्यक्रम को अपनाये बिना न कोई अध्यात्मवादी बन सकता है और न साधु संन्यासी कहला सकता है। शंकराचार्य न तो आलसी थे, न अविवेकी, न आडम्बरी फिर उन्हें सत्य को अपनाने में अड़चन ही क्या हो सकती थी?

सच्ची साधना, सच्चे आदर्शों पर आधारित साधना सहज ही पूरी होती है। भगवान शंकर उनके तप से प्रसन्न हुए और चाण्डाल के रूप में उन्हें दर्शन दिया। शंकराचार्य नदी में स्नान करके वापिस लौट रहे थे कि मार्ग में एक चाण्डाल में उन्हें छू दिया। इस पर वे कुपित होने लगे। चाण्डाल ने नम्रतापूर्वक पूछा-भेद-बुद्धि तक का आप त्याग न कर सके तो त्यागी कैसे कहलाते हैं? मनुष्य-मनुष्य में जाति-पाति के आधार पर ऊंच-नीच का अन्तर करना यह अध्यात्म आदर्शों से मेल कहाँ खाता है, आप सत्य के अनुयायी होते हुए भी इस भ्राँत धारणा को क्यों अपनाये बैठे हैं?

शंकराचार्य को अपनी भूल प्रतीत हुई। उस समय की रूढ़ियों से जो असत्य का आवरण बनकर उनकी आँखों पर पड़ा हुआ था वह चाण्डाल की सत्य और विवेक से भरी वाणी से हट गया। उन्होंने इस प्रकार साहसपूर्वक सत्य का प्रतिपादन करने वाले चाण्डाल को श्रद्धा पूर्वक अभिवन्दन किया और माना कि भगवान शंकर ही चाण्डाल के रूप में उन्हें मार्ग दर्शन कराने आये थे।

उन दिनों शैव-शाक्त, कापालिक, वाममार्गी और अगणित स्वेच्छाचारी मत-मतान्तर फैले पड़े थे। अवतार सिद्ध पुरुष और धर्म प्रवर्तक बनने की लोकेषणा ने उस समय के विद्वानों और साधुओं को कोढ़ की बीमारी की तरह ग्रसित कर रखा था। अपनी कुछ नई युक्ति निकाल कर वे लोग अपने-अपने सम्प्रदाय गढ़ लेते और जनता में मतिभ्रम पैदा करके चेली-चेले बना कर उन्हें मूंड़ते रहते। बौद्ध धर्म जैसी दया और करुणा का उद्देश्य लेकर अवतरित हुई विचारधारा हीनयान और महायान जैसे वाममार्गी, भोगवादी विचारों से प्रभावित हो चुकी थी। ऐसे अन्धकार युग में वेद-धर्म का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया था। इस स्थिति को देखकर युवक संन्यासी की आत्मा विचलित हो उठी और उसने इस अंधकार में प्रकाश उत्पन्न करने का संकल्प कर लिया। वे अकेले ही पद यात्रा पर चल पड़े और परिव्रज्या करते हुए देश के कौने-कौने में आर्ष आदर्शों और सिद्धाँतों का अलख जगाने लगे।

उन्होंने यह भी अनुभव किया कि केवल वाणी द्वारा धर्म प्रचार करने से ही काम न चलेगा। जन-भावना को परिष्कृत करने के लिए लेखनी का उपयोग भी आवश्यक है। प्राचीन ग्रंथों के माध्यम से उन्होंने अपनी विचारधारा को जन-मानस तक पहुँचाने के लिए उनके प्रेरणाप्रद भाष्य करने आरंभ कर दिये। गीता, वेदान्त-दर्शन और उपनिषदों पर उन्होंने अति महत्वपूर्ण भाष्य लिखे तथा और भी अन्य अनेकों भक्ति, ज्ञान, वैराग्य एवं सदाचार की प्रेरणा देने वाली रचनाएं लिखते रहे। थोड़े ही समय में उसने बहुत अधिक लिखा, जो अधिक ही नहीं उत्कृष्ट भी है।

सदुद्देश्य के लिए सच्चे मन से काम करने वालों को न साथियों की कमी रहती है और न साधकों की। जगद्गुरु शंकराचार्य ने काश्मीर से रामेश्वर और द्वारका से आसाम तक भारत के एक छोर से दूसरे छोर तक भ्रमण किया। मण्डन मिश्र जैसे उद्भट विद्वान उन्हें सच्चे साथी के रूप में मिले। हस्तामलक, तोटकाचार्य, पद्मनाभ, समित्-पणि चिद्विलास, ज्ञानकन्द, विष्णु गुप्त, शुद्ध कीर्ति, भानुतरिच, कृष्ण दर्शन, बुद्धि विरचि, आनन्दगिरि आदि मेधावी विद्वान इनके प्रमुख शिष्यों में विख्यात है। इनके संगठित प्रयत्नों से बौद्धिक क्राँति का एक महान अभियान आरंभ हुआ और वह सभी दृष्टियों से सफल रहा।

सामान्य लोग प्रचलित प्रथाओं को ही धर्म मान बैठते हैं फिर वे चाहे कितनी ही अनुपयुक्त, कितनी ही अवाँछनीय, कितनी ही अशास्त्रीय क्यों न हो। जो कोई भी सुधार की बात कहता है उसे तत्कालीन रूढ़िवादी लोग तरह-तरह से लाँछित करते हैं और उसका विरोध करने में ही नहीं, हानि पहुँचाने में भी कुछ कमी नहीं रहने देते। सुधारक शंकराचार्य को भी अन्य सभी सुधारकों की तरह भारी विरोधों और दुष्टताओं का सामना करना पड़ा। उन्हें अनेक शास्त्रार्थ करने पड़े और प्राण घातक आक्रमणों का साहसपूर्वक मुकाबला करना पड़ा। ‘सत्य में हजार हाथियों का बल होता है।’ इस तथ्य पर आस्था रखने वाले शंकराचार्य अपने पथ से तनिक भी विचलित न हुए और वे जीवनभर निर्धारित लक्ष्य की ओर बढ़ते ही चले गये।

भारी कार्य भार ने उनके स्वास्थ्य पर बुरी तरह दबाव डाला और वे रुग्ण रहने लगे। भगन्दर का फोड़ा निकला जो विश्राम और चिकित्सा के लिए अवकाश चाहता था, पर जिसके जी में अनाचार के विरुद्ध बगावत की आग जल रही हो उस योद्धा को शरशैय्या पर भी चैन कहाँ। भगन्दर का फोड़ा लिये वे आठ वर्ष तक निरन्तर भ्रमण करते रहे और बत्तीस वर्ष की छोटी सी आयु में इस लोक से प्रयाण कर गये।

एक बारगी आदेश में किसी महान तथ्य के लिए प्राण दे देना सरल है। पर आजीवन चट्टान की तरह अविचल रहकर धर्म उद्देश्य के लिए आये दिन की कठिनाइयों का सामना करते रहना और बाधाओं से लड़ते हुए आगे बढ़ना विरले ही शूरवीरों का काम है। शंकराचार्य ऐसे ही सच्चे शूरवीर थे। शहीद की तरह जिए और शहीद की तरह मरे। उनके महान आदर्श और महान त्याग के लिए संसार चिरकृतज्ञ रहेगा।


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