बढ़ते हुये बाल अपराध

June 1964

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दिनों दिन बढ़ते हुए बाल अपराध हमारे सामाजिक जीवन के लिए एक चुनौती हैं। छोटे-छोटे बच्चों में अपराधी प्रवृत्तियाँ संसार के सभी देशों में एक गंभीर समस्या बन गई है। कुछ दिनों पहले समाचार पत्रों में एक खबर प्रकाशित हुई थी जिसके अनुसार ब्रिटेन के कलेक्टन नामक स्थान पर एक हजार से अधिक ब्रिटिश किशोरों ने हमला बोल दिया। उन्होंने कारें नष्ट कर दी, लोगों को मारा-पीटा, दुकान और क्लबों में घुसकर सम्पत्ति को भारी नुकसान पहुँचाया, राह चलने वालों को धक्का देकर गिरा दिया, नगर में जो छुट्टी मनाने आया उसके साथ उन्होंने दुर्व्यवहार किया। शराब तम्बाकू आदि की चोरी की। दो दिन तक सारे नगर में उत्पात मचाये रखा। पुलिस के आने पर दिन निकलते-निकलते वे शहर से भाग गये।

यह समाचार तो बाल अपराधों का एक बढ़ा हुआ रूप है। किन्तु बच्चों के जीवन में दैनिक व्यवहार की छोटी-छोटी बातों से ही अपराध की जड़ें जमती हैं। बहुत से बच्चे घर से स्कूल का नाम करके जाते हैं किन्तु वहाँ अनुपस्थिति लगती रहती है और ये अपने दूसरे साथियों के साथ खेलते रहते हैं, घूमते हैं। कई तो स्कूल में छुट्टी की अर्जी दे देते हैं। घर के सोचते हैं बच्चा पढ़ने गया है लेकिन वह खेल कूद के लिए घर से जाता है, यह वे बहुत समय तक नहीं जान पाते।

फीस के पैसों की चाट पकौड़ी उड़ाई जाती है। बहुत से बच्चे सिनेमा खेल तमाशे, पतंगबाजी आदि में पैसा उड़ा देते हैं। जब पैसे की और जरूरत पड़ती है तो मित्रों से पूरा कर लेते हैं फिर घर में चोरी करने लगते हैं। ये ही बच्चे आगे चलकर जेब काटते हैं। सार्वजनिक सम्पत्ति को हानि पहुँचाते हैं।

बहुत से बच्चों में अपने साथी, छोटे भाई बहन आदि को मारने पीटने की आदत पड़ जाती है। लेकिन यही प्रवृत्ति आगे नृशंस हत्या मार-पीट, छुरा घोपने, जैसी बुराइयों में बदल जाती है। एक लम्बे अभ्यास के बाद उनका ऐसा स्वभाव बन जाता है कि दूसरों को मारने पीटने, पीड़ित करने में उन्हें आनन्द आने लगता है। वे अकारण ही इस तरह की हरकतें करने लगते हैं। चौदह वर्षीय एक लड़के ने आठ वर्षीय एक लड़के को पेड़ से लटका कर मार दिया। पूछने पर उसने बताया ‘मेरे मन में ऐसी ही तरंग उठी थी।’

अमेरिका में सेक्रामेंटो नामक स्थान पर चौदह वर्ष के एक लड़के ने दस वर्षीय एक लड़की को हथौड़े की चोट से मार दिया, इसलिये कि ‘किसी को मार देने की उसकी इच्छा तीव्र हो उठी थी।’ एक पन्द्रह वर्षीय किशोर ने एक लड़की को छुरा घोप कर मार डाला। लड़की जब तड़पते हुये प्राण त्याग रही थी तब लड़का बड़ा प्रसन्न हो रहा था। पूछने पर उसने बताया कि ‘बहुत दिनों से किसी को छुरा घोंप देने की मेरी इच्छा प्रबल हो रही थी।’ इस तरह से अनेकों उदाहरण हमारे सामने आया करते हैं जिसमें लड़के, लड़कियां बिना मतलब ही अपने साथियों को दूसरे बच्चों को मारते-पीटते है। उक्त नृशंस घटनाओं की शुरुआत प्रारंभ में मामूली मार-पीट से ही होती है।

माता-पिता, अभिभावक, अध्यापकों की आज्ञा न मानना, उन्हें परेशान करना, दुर्वचन कहना, उन्हें दुःखी पीड़ित देखने में प्रसन्नता का अनुभव करने की प्रवृत्तियाँ भी बच्चों में दिनों दिन बढ़ती जा रही हैं। छोटे-छोटे बच्चों तक में ये प्रवृत्तियाँ देखने को मिलती हैं। और ये ही आगे चलकर उनका अपमान करते, लड़ने-झगड़ने यहाँ तक कि हत्या तक कर देने में बदल जाती है।

समाज में फैले हुये यौन अपराध, बलात्कार, अपहरण आदि की प्रारंभिक प्रवृत्तियाँ बचपन से ही शुरू होती हैं। छोटे-छोटे बच्चों में भी कामुक प्रवृत्तियाँ सहज ही देखी जा सकती हैं। अभिभावकों को पता भी नहीं चलता है कि बच्चों में यौन भावनायें जाग्रत हो जाती हैं और उन्हें शाँत करने के लिये वे तरह-तरह के गलत मार्ग अपनाते हैं। बचपन से ही कामुक रोगों से पीड़ित हो जाने वाले बच्चों के दूषित जीवन की सहज ही कल्पना की जा सकती है। जब ये समाज में भयंकर यौन अपराधों को जन्म देते हैं।

इनके अतिरिक्त बाल जीवन में बढ़ती जा रही हिंसा, क्रूरता, गुण्डागर्दी, नशेबाजी, आवारापन मानव-समाज के लिए एक गंभीर समस्या है। बाल अपराध इस तरह बढ़ रहे हैं कि उनका अनुमान कर सकना मुश्किल है। विभिन्न देशों में बाल अपराधों के लिए सर्वेक्षण होता रहता है किन्तु कहीं की भी रिपोर्ट पूर्ण नहीं है। वस्तुतः बच्चों के जीवन में अधिक हाथ रखने वाले माँ-बाप अभिभावक गण ही जब इन्हें नहीं जान पाते तो बेचारी सरकार क्या जानेगी। वह तो इनेगिने जो प्रकट हो चुके है उन्हीं तथ्यों का पता लगा पाती है। फिर भी जो आँकड़े मिले हैं वे सनसनीखेज हैं। उत्तर प्रदेश में सन 1958 में एक सर्वे के अनुसार कुल कैदी 242943 थे जिनमें बाल-अपराधियों की संख्या 2359 थी। बम्बई प्रदेश में 13 दिसम्बर 1958 को दण्डित अपराधी 13178 थे जिनमें बाल-अपराधियों की संख्या 847 थी। जबकि बम्बई, मद्रास तथा बहुत से राज्यों में बाल-अपराधियों को जेल में नहीं रखा जाता। वैसे बम्बई में बाल-अपराधी अदालतों और संस्थाओं के सर्वे के अनुसार 31 मार्च 1957 को 6815 पुरुष बाल-अपराधी तथा 2514 महिला अपराधी थे। सन् 58 में यही संख्या बढ़कर क्रमशः 7790 और 2699 हो गई। इसी तरह विभिन्न प्रदेशों में भी कुछ न कुछ आँकड़े अवश्य होंगे लेकिन वे उपलब्ध नहीं हुए।

ये तो वे आँकड़े हैं जो पुलिस की निगाह में आये हैं जिनकी संख्या नगण्य है। किन्तु हमारे दैनिक जीवन में जरा सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो छोटे-छोटे बच्चों के आचार-विचार, रहन-सहन, बोलचाल, व्यवहार में तरह-तरह की बुराइयाँ घटती जा रही हैं, जो हमारी भावी पीढ़ी की स्थिति को सूचित करती है।

बाल-अपराधों के विदेशी आँकड़े भी इस संबंध में आंखें खोल देने वाले हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका में भी मोंटगोमरी हाइड के अनुसार प्रति वर्ष 10 लाख बाल-अपराधी होते हैं जो वहाँ के कुल अपराधों की आधी संख्या है। एक रिपोर्ट के अनुसार ब्रिटेन में सन 1948/56 के बीच में 14 से 16 वर्ष के बच्चों में शराब पीकर उन्मत्त हो जाने का अपराध 8 गुना बढ़ गया और 17 से 20 वर्ष के युवक युवतियों में चौगुना। इसी तरह हिंसात्मक बाल-अपराधों की संख्या दुगुनी-तिगुनी तक हो गई। इसी तरह अनैतिक यौन अपराधों की संख्या भी बहुत बढ़ गई है।

एक रिपोर्ट के अनुसार सन् 1958 में न्यूयार्क के 900 स्कूलों में से सितम्बर-अक्टूबर माह में 544 लफंगे विद्यार्थियों को निकाला जो इस तरह के उद्दण्ड छात्र-छात्राओं की संख्या का केवल एक प्रतिशत ही था। रूस में भी क्राँति के बाद बाल-अपराधों की संख्या काफी बढ़ी है।

इस तरह मानव समाज में बाल-अपराध एक बहुत बड़ी समस्या बन गये हैं। इससे हमारी समाज व्यवस्था ही सदोष नहीं बनती, उल्टे आने वाली योग्य और उत्तरदायी पीढ़ी का भी भविष्य अंधेरे में पड़ गया है। अपराधों की छूत बच्चों में बड़ी जल्दी लगती है। जाने अनजाने एक को देखकर दूसरा बालक भी वैसा ही गलत आचरण करने लगता है। बच्चों की ग्रहणशील वृत्ति होती है। फिर आवश्यकता इस बात की है कि समाज के सभी हितचिन्तकों को, अभिभावकों को इस बुराई की ओर ध्यान देना चाहिए। बच्चों को केवल खिलाने पिलाने या शिक्षा दिलाने में ही अपना कर्त्तव्य पूरा न समझ कर उन्हें अपराधी जीवन से बचाये रखना, बुराइयों में प्रवृत्त न होने देना भी आवश्यक है। बाल-अपराधों को रोकने में जितना घर वाले सफल हो सकते हैं और उतना और कोई नहीं।

इस संबंध में कुछ अधिक प्रकाश अगले अंक में डालेंगे।


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