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June 1964

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निस्वार्थ सेवा

जिस प्रकार ईश्वर के साकार और निराकार स्वरूपों का ध्यान करने के लिए मन और बुद्धि को अन्तःस्थित करना होता है उसी प्रकार सर्वव्यापक ईश्वर की अनुभूति के लिए प्राणिमात्र की निःस्वार्थ सेवा की आवश्यकता है।

जब हम सेवा में पूर्ण तल्लीन हो जाते हैं तब अपने शरीर तथा मन की अर्थात् शारीरिक, मानसिक क्रियाओं की नितान्त विस्मृति हो जाती है। मन को बंधन में डालने वाले संस्कार नष्ट होने लगते हैं। निःस्वार्थ सेवा के द्वारा अपने स्वार्थ को त्यागकर अपने ध्यान को परमार्थ बिन्दु पर केन्द्रित कर देने से स्वार्थ की इच्छा परहित में परिवर्तित हो जाया करती है।

-मेहरबाबा


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