संत समागम

June 1964

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भारत माता-

‘भारत माता एक भूखण्ड नहीं, एक शक्ति है, भागवती विभूति है। यह भारत शक्ति एक महान आध्यात्मिक धारणा की सजीव शक्ति है। ईश्वर सदा अपने लिए एक ऐसा विशिष्ट देश चुन कर रखता है जिसमें सब संभावनाओं तथा सब संकटों के मध्य भी उच्च ज्ञान कुछ या अधिक शक्तियों द्वारा सदा सुरक्षित रहता है और कम से कम इस चतुर्युग में तो वह भारत ही है।’

‘हमारा विश्वास है कि भारत अवश्यमेव अपने स्वतंत्र जीवन तथा सभ्यता का विकास करेगा। वह विश्व में अग्रगामी बनकर उन राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा नैतिक समस्याओं को हल करेगा, जिन्हें सुलझाने में यूरोप विफल हुआ है।’

-श्री अरविन्द

मानव और दानव-

हम सब लोग प्यासे हैं और हमारे पास कटोरा भर ही जल है। एक ही मनुष्य पानी पी सकता है। अगर मन में यह इच्छा है कि, मैं ही पानी पी लूँ और अपनी ही प्यास बुझा लूँ, तो समझ लेना चाहिए कि, मेरे अन्दर दानव है- भले ही रूप मनुष्य का हो। अगर सबको नहीं मिल सकता, तो मुझे भी नहीं चाहिए, ऐसी इच्छा हो, तो समझना चाहिए कि, हम मनुष्य हैं। इस तरह हमको अपनी परख करनी चाहिए। दिन-भर खूब थकने के बाद, रात को सोने में जैसी खुशी होती है, वैसी ही जिन्दगी भर लोगों की सेवा करने के बाद चिर-विश्राम के समय भी होती है।

-बिनोवा भावे

व्यावहारिक वेदान्त-

अपने देशबन्धुओं के हृदय में अपना हृदय मिला दीजिए। अपने और उनके बीच ‘अहंकार’ रूपी परदे को बिल्कुल स्थान मत दीजिए। क्षुद्र अहंकार छोड़कर देश से आपका तादात्म्य हो जाने पर आपके मन में जो विचार उत्पन्न होगा वह आपका नहीं-सारे देश होगा। आप आगे बढ़िए, सारा देश आपके पीछे-पीछे चलेगा।

आपके मन में आरोग्य का विचार आते ही आपके देशबंधु निरोगी और बलवान हो जायेंगे। आपकी शक्ति उनकी रग-रग में फैल जायेगी। अपने हृदय में यह भाव उत्पन्न कीजिए कि ‘मैं देश हूँ-भारत हूँ-भारतवर्ष हूँ।’ भारत की भूमि ही मेरा शरीर है, ‘केमोरिन’ मेरे पैर हैं, हिमालय मेरा शिर है, मेरे शिर के मस्तिष्क से ही ब्रह्मपुत्र और सिंधु निकली है, विन्ध्याचल मेरी कमर में बंधा हुआ कमरबंद है, ‘कारोमण्डल’ और ‘मलावार’ मेरा दाहिना बाँया पैर है, मैं समस्त भारतवर्ष हूँ। भारत की पूर्व और पश्चिम दिशायें मेरी दाहिनी और बाइ भुजाएं हैं, और समस्त जाति को आलिंगन करने के लिए मैंने अपनी दोनों भुजाएं फैला दी हैं। मेरा प्रेम विश्वव्यापक है? अहा हा! मेरे शरीर का गठन ही इस प्रकार का है। खड़ा होकर अनन्त दिक्काल की ओर अपनी दृष्टि दौड़ता हूँ, परन्तु मैं अन्तरात्मा विश्वात्मा हूँ। मैं जब चाहता हूँ तो मालूम होता है कि सारा भारत चलता है, बोलता हूँ तो भारतवर्ष बोलता है, और श्वाँस लेता हूँ तो सारा देश श्वाँस लेता है। मैं भारत हूँ, शंकर हूँ, शिव हूँ, यहाँ भाव हृदय में उत्पन्न होना ही स्वदेशाभिमान है, और इसी को व्यावहारिक वेदान्त कहते हैं।

-स्वामी रामतीर्थ

जीवन की सफलता-

जीवन में त्याग वृत्ति, सेवा और प्रेम वृत्ति को धारण करना ही होगा। फूल को अपनी पंखड़ियां गिरानी होंगी तभी तो फूल खिलेंगे। फल को वृक्ष से गिरना ही होगा, तभी तो वृक्ष होंगे। गर्भ के शिशु को गर्भाशय से बाहर आना ही पड़ता है, तभी तो पृथ्वी पर उसके शरीर, मन आदि का विकास होकर उसकी इन्द्रिय, शक्ति और विद्या-बुद्धि और उसकी इच्छा-शक्ति का विकास होता है। जहाँ ये एक ओर उसके जीवन को धन्य बनाती हैं वहाँ वह अन्यों के साथ सुसम्बंध स्थापित कर मधुर प्रेम से भर देती है। त्यागमय-प्रेममय और निस्वार्थ मानव जीवन तभी बनेगा जब आत्म-शक्ति सुनियंत्रित होगी-

-रवीन्द्रनाथ टैगोर


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