सच्चे साधक नहीं होते

June 1964

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आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रंथ ‘माधव निदान’ के निर्माता माधवाचार्य जी वृन्दावन में कठोर गायत्री उपासना करने में संलग्न रहते थे। लगातार 13 वर्ष उन्हें विधि-पूर्वक पुरश्चरण करते हुए बीत गये पर कोई विशेषता उन्हें अपने में दिखाई न पड़ी। तप का कोई फल दृष्टिगोचर न हुआ तो वे खिन्न रहने लगे और अपनी असफलता से खीज कर वे वृन्दावन छोड़ काशी के लिए चल दिये।

उदासी उन्हें घेरे हुई थी। मणिकर्णिका घाट पर बैठे हुए सोच विचार में मग्न थे कि उसी श्मशान में रहने वाला एक कापालिक अघोरी उनके पास आया और उदासी एवं चिन्ता का कारण पूछने लगा। माधवाचार्य ने वस्तुस्थिति कह सुनाई। अघोरी ने कहा-योग की दक्षिणमार्गी वैदिक उपासनाएं देर में फल देती हैं। बरगद की तरह वे धीरे-धीरे बढ़ती है- समय पर परिपक्व होकर साधक का कल्याण करती हैं और चिरस्थायी फल देती हैं। इसमें धैर्यवान साधक ही सफल होते हैं। पर ताँत्रिक साधना में यह बात नहीं है। उससे लाभ तो निम्न स्तर का ही मिलता है और वह ठहरता भी थोड़े दिन है। पर मिलता जल्दी है। जिन्हें धैर्य नहीं, उन आतुर लोगों के लिए जल्दी लाभ दिखाने वाली ताँत्रिक साधना लाभदायक हो सकती है। आपको चमत्कार देखने की जल्दी हो तो श्मशान साधन करो। विधि मैं बता दूँगा।

माधवाचार्य सहमत हो गये और वे काशी के मणिकर्णिका घाट पर स्थित श्मशान में रहकर कापालिक की बताई हुई अघोर क्रिया के अनुसार साधना करने लगे। अघोरी ने उन्हें बता दिया था कि श्मशान में रहने वाली दुष्ट आत्मा उन्हें भय एवं प्रलोभन के दृश्य दिखा कर साधना भ्रष्ट करने का प्रयत्न करेंगी, सो वे किसी की ओर ध्यान न देते हुए अपने कार्य में एकनिष्ठ भाव से लगे रहें। माधवाचार्य वही करने लगे। रोज ही उन्हें डरावने और प्रलोभन भरे आकर्षण दिखाई देते पर वे उनसे तनिक भी विचलित न होते। इस प्रकार उन्हें एक वर्ष बीत गया।

एक दिन पीछे अदृश्य में से आवाज आई कि तुम्हारा मंत्र सिद्ध हो गया, कुछ उपहार, वरदान माँगों। माधवाचार्य अपने साधन में मग्न रहे, उनने उधर ध्यान भी नहीं दिया। ऐसे ही अटपटे अनुभव उन्हें रोज होते थे। पर जब कई बार वही आवाज सुनाई दी तो उन्हें उधर ध्यान देना पड़ा। पूछा आप कौन हैं? किस प्रकार का उपहार दे सकते हैं? उत्तर मिला- हम भैरव हैं। तुम्हारी इस साधना से प्रसन्न होकर वर देने आये हैं। माधवाचार्य ने कहा- विश्वास नहीं होता, इसलिए कृपा कर सामने उपस्थित हूजिए और दर्शन दीजिए ताकि मैं वस्तु स्थिति को समझ सकूँ।

भैरव ने कहा- गायत्री उपासना के कारण आपको इतना ब्रह्म-तेज उत्पन्न हो गया है कि उसकी प्रखरता में सहन नहीं कर सकता और आपके सामने नहीं आ सकता। जो कहूँगा पीछे से ही कहूँगा। इस पर माधवाचार्य को भारी आश्चर्य हुआ और उनने प्रश्न किया-यदि गायत्री उपासना का ऐसा ही महत्व है तो कृपया बताइयेगा कि 13 वर्ष तक कठोर तप करते रहने पर भी मुझे कोई अनुकूल अनुभव क्यों नहीं हुआ? आप इसका रहस्य बता सकें तो मेरे लिए इतना ही पर्याप्त होगा। जब आप गायत्री तेज के सामने प्रकट होने में भी असमर्थ हैं तो आपके द्वारा दिये हुए छोटे-मोटे उपहारों से मेरा काम भी क्या चलेगा?

जिज्ञासा का समाधान करना भैरव ने स्वीकार कर लिया और माधवाचार्य को नेत्र बंद करके ध्यान भूमिका में जाने को कहा, उन्हें तत्काल पूर्व जन्मों के दृश्य दिखाई पड़ने लगे। पिछले 13 जन्मों में उनने एक से एक भयंकर पाप किये थे। इस दृश्य को जब वे देख चुके तब उसने कहा- आपकी 13 वर्ष की साधना पिछले 13 सालों के पापों का शमन करने में लग गई। जब तक दुष्कर्मों से उत्पन्न कुसंस्कार दूर नहीं हो जाते तब तक गायत्री उपासना उसी की सफाई में खर्च होती रहती है। आपकी विगत गायत्री साधना ने पूर्व संचित पापों का समाधान कर दिया। अब आप नये सिरे से पुनः उसी उपासना को आरंभ कीजिए। सफलता मिलेगी। प्रसन्न मन माधवाचार्य पुनः वृन्दावन लौट आये। उन्होंने पुनः गायत्री उपासना आरंभ की और फलस्वरूप उन्हें आशाजनक प्रतिफल प्राप्त हुआ।

हम में से अनेकों की स्थिति ऐसी ही होती है। कुछ दिन साधना करते हैं पर पूर्व जन्मों का और इस जन्म का पाप भार इतना अधिक होता है कि उसकी सफाई हुए बिना कोई विशेष आध्यात्मिक प्रकाश प्राप्त होना संभव नहीं होता। आतुरता में हम जब अभीष्ट परिणाम नहीं देखते तो निराश हो उठते हैं। यह अधीरता उन लोगों के लिए उचित नहीं जो आत्मकल्याण का महान लक्ष्य लेकर साधना पर अग्रसर हुए हैं। इस आत्म-शोधन की साधना करते हुए अपने को निर्मल बनाना चाहिए ताकि गायत्री उपासना का समुचित लाभ मिल सके। कपड़े पर रंग तभी ठीक चढ़ता है जब उसे पहले अच्छी तरह धो लिया जाय। मैला कुचैला कपड़ा रंग के महत्व को भी नष्ट कर देता है। अपनी दुर्भावनाओं और दुष्प्रवृत्तियों को शोधन करते हुए जो साधना की जाती है उसका समुचित लाभ मिलता ही है। यह धैर्यपूर्वक साधना करने वालों के लिए ही संभव है। फल, समय पर ही आता है। उतावली करने से भी पौधा अपनी क्रमिक गति से ही बढ़ता है। साधना भी समयानुसार ही फलित होती है। पूर्व संचित दुष्कर्मों को शुद्ध करने में जो समय अभीष्ट है उसके पूरा हो जाने पर ही सफलता की प्राप्ति हो सकती है।

महाभारत में सावित्री और सत्यवान की कथा आती है। सत्यवान निर्धन ऋषि कुमार है उसका आयुष्य भी केवल एक वर्ष शेष है। इतने पर भी राजकुमारी सावित्री उसके सद्गुणों से प्रभावित होकर वरण करती है। एक वर्ष बाद मृत्यु का समय आने पर यमराज से संघर्ष करके सत्यवान के प्राण लौटा लाती है। सत्यवान सावित्री के साथ स्वर्गीय जीवन बिताता हुआ जीवन-लक्ष्य को प्राप्त करता है।

इस कथा में एक अत्यन्त ही महत्वपूर्ण तथ्य अलंकारिक रूप में छिपा हुआ है। गायत्री का ही दूसरा नाम सावित्री है। वह सत्यवान को ही वरण करती है। वह भले ही स्वास्थ्य, धन, शिक्षा आदि विशेषताओं से रहित ही क्यों नहीं हो। सावित्री को सत्यवान ही प्रिय है। जिसके गुण, कर्म, स्वभाव में सत तत्व का, सात्विकता का, जितना अधिक अंश होता है वह उतना ही गायत्री का प्रियपात्र बनता है और उस अनुग्रह के कारण यह मृत्यु जैसी भयानक विभीषिकाओं से भी आसानी से बच जाता है। सत्य निष्ठा के कारण सावित्री जिस पर प्रसन्न हुई है उसे लोक और परलोक में सब प्रकार की सुख-शाँति ही मिलती है।

उपरोक्त कथानक में गायत्री का अनुग्रह प्राप्त करने के लिए साधक का सत्यवान होना आवश्यक बताया गया है। सात्विकता का जितना अंश उसके गुण कर्म स्वभाव में समन्वित हो रहा होगा उसे उतनी ही कृपा उस महान शक्ति की प्राप्त होगी। सफलता उसके गले में विजय माला पहनाने स्वयं दौड़ी आवेगी।

गायत्री उपासना का विधान और कर्म-काण्ड सर्व विदित है। गायत्री महाविज्ञान ग्रंथ में उसका साँगोपाँग वर्णन हो चुका है। प्रायः सभी साधक उस ऋषि प्रणीत शास्त्र सम्मत परम्परा को अपनाते हुए जप तप करते हैं पर देखा जाता है कि किसी को आशाजनक लाभ होता है और किसी की प्रगति अवरुद्ध पड़ी रहती। एक ही विधान को अपनाते हुए एक समान काम करने वाले व्यक्तियों में से जब किसी को स्वल्प, किसी को अधिक लाभ मिलता है तो इसके अन्तर का कारण ढूंढ़ते हुए एक ही निष्कर्ष पर पहुँचना होता है कि सत् तत्व की- सात्विकता की न्यूनता ही इस अन्तर का एकमात्र कारण रहता है। सत्यवान को सावित्री कभी त्याग नहीं सकती। जिसने अपनी सात्विकता बढ़ाते रहने पर समुचित ध्यान रखा है ऐसा नैष्ठिक गायत्री उपासक कभी गायत्री माता की कृपा से वंचित नहीं हो सकता। उसकी साधना का सत्परिणाम मिलना ही चाहिए। विलम्ब होते देखकर किसी साधक को अधीर नहीं होना चाहिये।

वेदमाता गायत्री और उसकी शक्ति

जप करने वाले का त्राण-कल्याण उद्धार करने वाली शक्ति को (गायन्त त्रायते) गायत्री कहते हैं। इस महामंत्र का जप करने वाला श्रेय पथ पर मन्द या तीव्रगति से अग्रसर ही होता जाता है।

ऋग्वेद 1। 164। 39 में कहा गया है- ‘ऋचौ अक्षरे परमे व्योमन्। यस्मिन् देवा अधि विश्वे निषेदुः’ अर्थात् वेद मंत्रों में दैवी शक्तियाँ भरी हुई हैं। वेद-मंत्रों से केवल भिक्षा ही नहीं वरन् वह वैज्ञानिक प्रक्रिया भी जुड़ी हुई है जिसके उच्चारण मात्र से मनुष्य के शरीर और मन से विशेष प्रकार के स्पन्दन होते हैं और उनसे अभीष्ट लाभ प्राप्त होने का पथ प्रशस्त होने लगता है।

गायत्री भारतीय धर्म का सर्वश्रेष्ठ एवं सर्व प्रधान मंत्र है। चारों वेदों की जननी वेद माता गायत्री की उपासना का सभी शास्त्रों और ऋषियों ने एक स्वर से महत्व स्वीकार किया है। इस महाशक्ति की आराधना करने वाले को अपनी मनोभूमि अधिक पवित्र रखनी चाहिए। जिस प्रकार शुद्ध स्थान, शुद्ध शरीर, शुद्ध वस्त्र एवं शुद्ध पूजा उपकरणों की साधना में आवश्यकता है उसी प्रकार उपासक को अपनी मनोभूमि शुद्ध रखने का भी प्रयत्न करना चाहिए। कहा भी है-

क्रोधं लोभं तथा निद्राँ निष्ठीवन विजृम्भरणे।

दर्शनं च विनीचानाँ वर्जयेज्जाप कर्मणि॥

अर्थात् क्रोध, लोभ, निद्रा, थूकना, जमुहाई लेना, नीच कर्म करने वालों का दर्शन जप करने वाले के लिए निषिद्ध है।

मनः सन्तोषणं शौचं मौनं मंत्रार्थ चिन्तनम्।

अकामत्वमनिर्वेदो जप संपत्ति हेतवः॥

अर्थात्- मन की प्रसन्नता, पवित्रता, मौन- मंत्रार्थ का चिन्तन, निष्कामता, निराशा न होना यह जप की सफलता के प्रधान आधार हैं।

इस प्रकार की शुद्ध और सात्विक मनोभूमि रखने वाले साधक की सफलता असंदिग्ध होती चली जाती है।

गायत्री मंत्र के विनियोग का देवता सविता और ऋषि विश्वामित्र बताया गया है। इन दोनों तत्वों को हृदयंगम करने से साधक की पूर्वभूमिका का उचित निर्माण हो जाता है।

सविता यों मोटे अर्थ में सूर्य को कहते हैं। इसलिए गायत्री को सूर्य का मंत्र भी कहा जाता है। महाभारत के अनुसार कुँती ने सूर्य-मंत्र (गायत्री) की उपासना द्वारा तेजस्वी कर्ण को जन्म दिया था। गायत्री जप करते समय सूर्योन्मुख रहने का विधान है। प्रातः पूर्व की ओर सायं पश्चिम की ओर, मध्याह्न उत्तर की ओर मुख करके जप करने का जो विधान है उसमें सूर्योन्मुख रहना ही कारण है। जहाँ गायत्री का प्रतिमा-विग्रह स्थापित नहीं होता वहाँ सूर्य को ही गायत्री का प्रतीक मानकर उसके सम्मुख जप करने का विधान बना हुआ है। जप के साथ सूर्योपस्थान, सूर्य अर्घ्यदान, सूर्य-स्तवन की प्रक्रिया इसी से जुड़ी है कि गायत्री के देवता सविता का अर्चन भी यथोचित रूप से होता रहे।

गायत्री की छवि ‘सूर्य मण्डल मध्यस्था’ मानी जाती है। भगवती गायत्री का स्वरूप सूर्य-मण्डल के बीच में ही चित्रित किया जाता है। निराकार उपासना करने वाले दीपक की लौ या सूर्य के समान प्रकाशवान तेज बिन्दु का ध्यान करते हुए गायत्री जप करते हैं। अपने भीतर उस महातेज को ओत-प्रोत करने के संबंध में ए.ड. 1। 2 में सूर्यः चक्षुः भूत्वा अक्षिणी प्रावशित्। की भावना अपनाने का निर्देश किया गया है। नेत्रों के माध्यम से सूर्य मुझ में प्रकाश रूप प्रवेश करता हुआ रोम-रोम को प्रकाशवान कर रहा है। यह धारणा गायत्री उपासक की सूक्ष्म चेतना को प्रकाशवान बनाती है।

‘यो असौ आदित्ये पुरुषाः सो असौ अहम्’। वा. य. 40। 17

अर्थात्- ‘जो यह आदित्य पुरुष है वही मैं हूँ।’ अपने को अज्ञानरूपी अन्धकार से दूर ज्ञान प्रकाश से प्रकाशित आदित्य रूप आत्मा अनुभव करने से भी गायत्री के देवता सविता का विनियोग बनता है। ‘यो देवः सविता स्माकं धियो धर्मादि कर्माणि प्रेरयेत्तस्य तर्द्भग स्तद्वरेण्य मुपास्यहे।’

अर्थात्- जो सविता देवता हमारी बुद्धि को धर्म आदि सत्कर्मों की ओर प्रेरित करता है उसके वरेण्य भर्ग की हम उपासना करते हैं।

यहाँ यह स्पष्ट कर दिया गया है कि केवल प्रकाश का ध्यान करना ही पर्याप्त नहीं वरन् उस प्रकाशवान तेजस्वी परमेश्वर की उपासना करनी चाहिए जो हमें सत्प्रवृत्तियों की ओर प्रेरणा देता है।

‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ में इसी भावना को अपनाने का निर्देश है। मैं प्रकाशरूप स्वरूप हूँ, प्रकाश मेरा लक्ष्य है। प्रकाश की ओर चल रहा हूँ और अन्त में प्रकाश बनकर ही रहूँगा, ऐसी मान्यता और भावना रख कर गायत्री उपासना करने वाला इस महामंत्र के देवता सविता का उचित विनियोग कर सकता है।

ऋषि विश्वामित्र है। (विश्वामित्रः सर्व मित्रः) विश्वामित्र अर्थात् विश्व का सब का मित्र। सबको मित्रता की आँख से देखने का स्वभाव बनाकर गायत्री उपासक इस महामंत्र के ऋषि विश्वामित्र का अपनी मनोभूमि में आह्वान करता है। ‘अद्वेष्टा सर्व भूतेषु’ की ‘मित्रस्य’ चाक्षुषा समीक्षे’ की भावना रखकर सब से बैर त्यागने और सब को मित्र मानने की प्रवृत्ति बना लेने वाला गायत्री उपासक अपने आपको विश्वामित्र परम्परा का अनुयायी बनाकर गायत्री साधन की सफलता की एक महत्वपूर्ण एवं आवश्यक शर्त पूरी कर लेता है।

‘गय’ कहते हैं प्राण को और ‘त्र’ कहते हैं त्राण को। प्राणी का त्राण करने वाली जो उपासना, उसे गायत्री कहा जाता है। शास्त्रकारों ने इसे ही, सबसे बड़ा तीर्थ बताया है। ‘जनाः सैस्तरन्ति तानि तीर्थानि’ अर्थात् मनुष्य जिसके सहारे पार होते हैं वही तीर्थ है। त्राण करने की, पार करने या उद्धार करने की क्षमता से सम्पन्न होने के कारण गायत्री को तीर्थ कहा जाता है। ‘ग‘ से गंगा, ‘य’ से यमुना, ‘त्र’ से त्रवेणी। गंगा, यमुना, सरस्वती के मिलन से जैसे तीर्थराज की त्रिवेणी बनती है वैसे ही आधिदैविक, आधिभौतिक, आध्यात्मिक त्रासों से छुड़ाकर जीवन लक्ष्य को प्राप्त करा देने की शक्ति से सुसम्पन्न गायत्री माता मानी गई है।

अथर्ववेद 19। 71। 1 में वेद माता गायत्री का महात्म्य वर्णन करते हुए उसका स्तवन किया गया है-

‘स्तुता मया वरदा वेदमाता प्रयोदयन्ताँ पावमानी द्विजनाम्। आयुः प्राणं प्रजाँ कीर्ति द्रविणं ब्रह्म वर्चसं मह्यं दत्ता व्रजत् ब्रहम लोकम्।’

‘अर्थात् पवित्र करने वाली, वर देने वाली, प्रेरणा देने वाली वेदमाता गायत्री आयु, प्राण, प्रजा, पशु, कीर्ति, धन, ब्रह्म तेज एवं ब्रह्मलोक प्रदान करती है।’

यह महाशक्ति उचित रीति से उपासना करने वाले को सचमुच सब कुछ प्रदान करती है। कोई वस्तु ऐसी नहीं जो इस कामधेनु की सम्यक् सेवा करने वाले की उपलब्ध न हो सकती हो।

देवी भागवत में एक कथा आती है कि एक बार घोर दुर्भिक्ष से पीड़ित जनता जब देवताओं द्वारा भी अपने कष्ट दूर न करा सकी तो गायत्री उपासना में संलग्न महर्षि गौतम की शरण में गई। दयार्द्र गौतम ने जन कल्याण के लिए विशेष तप किया जिससे प्रसन्न होकर भगवती अन्नपूर्णा गायत्री ने उन्हें एक ‘पूर्ण पात्र’ प्रदान किया और उस पूर्णपात्र- के माध्यम से उपलब्ध अन्न से क्षुधार्त जनता की व्यथा दूर हो गई।

नित्या चोपासना शक्तेर्या दिना तु पतत्य धः,

सर्वमुक्तं समासेन यत्युष्टं तत्त्वयाऽनध।

अर्थात्- हे राजन! इस संसार में समस्त सन्तापों से मुक्ति दिलाने वाली एकमात्र उपासना भगवती गायत्री की है। इसके बिना जीव का उद्धार नहीं हो सकता।

युग-निर्माण आन्दोलन की प्रगति-


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