न्याय तुला का संतुलन

February 1942

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(अखण्ड शक्ति, अखण्ड समता, अखण्ड शमन)

भगवान सत्य के एक हाथ में पुष्प और दूसरे में गदा है। गदा का तात्पर्य न्याय से है। अब हमें न्याय तत्व पर गंभीरता पूर्वक विचार करना होगा और देखना होगा कि जिस अन्याय के कारण प्राणिमात्र चीत्कार कर रहे हैं और जिसकी क्रूर पीड़ा से सृष्टि की अन्तरात्मा कराह रही है, वह अन्याय कहाँ से उत्पन्न होता है और उसका मूल उद्गम स्थान कहाँ है?

विशिष्ट मनन के पश्चात प्रतीत होता है कि अन्याय की जननी अशक्ति है। अत्याचारी उतना बड़ा पापी नहीं है, जितना कि अशक्त। प्रभु ने अनन्त शक्तियों का भण्डार मनुष्य को देकर उसे इस भूमंडल पर निर्भयता के साथ विचरण करने के लिए भेजा है। उसके अन्दर इतना तेज एवं पराक्रम परिपूर्ण है कि कोई उसकी ओर आँख उठाकर नहीं देख सकता। जो व्यक्ति अपनी ईश्वरदत्त सत्ता को गंवा देता है, वह अवश्य ही बड़ा भारी पापी है। इस पाप के फल से उसे छुटकारा नहीं मिल सकता। प्रकृति अपने कठोर नियमों के अनुसार उसे उसी क्रम से कूट-कूट कर दण्ड देती है, जिस क्रम से कि उसने अपनी सामर्थ्यों को नष्ट किया होता है। जो जितना निर्बल है, उसे उतना ही यह प्रकृति अधिक सतावेगी। रोना, चिल्लाना, गाली देना, बुरा बताना, व्यर्थ है, इससे कुछ होना जाना नहीं है। भेड़ के बालों को एक गड़रिये से बचा लिया जाय, तो दूसरा काट लेगा। इसलिये रीछ बनना होगा, जिसके बालों की तरफ दृष्टि उठाने की भी किसी की हिम्मत न पड़े। ‘शक्ति’- यह हर प्राणी का जन्म-सिद्ध अधिकार है। आध्यात्मिक, शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक दृष्टि से हमें बलवान होना चाहिए। शक्ति की आराधना करके समर्थ बनना चाहिए। आत्मस्वरूप को पहचान कर, आत्म विश्वास और आत्म गौरव की भावनाएं हृदय में कूट-कूट कर भरना, शरीर को निरोग और बलवान बनाना, मन को सुसंस्कारित, सुव्यवस्थित, विद्वान, विचारवान और सुलझा हुआ बनाना, धन कमाने एवं उसका सदुपयोग करने के स्रोतों को पहचानना और खोलना, सामाजिक रूढ़ियों और कुरीतियों को हटाकर जन समाज में सुदृढ़ संगठन पैदा करना, राजनैतिक स्वाधीनता प्राप्त करना, अन्तर्राष्ट्रीय बन्धु भाव प्रचलित करना, यह सब कार्य एक शक्ति पैदा करते हैं। देखने में यह विभिन्न दशाओं की शक्तियाँ भिन्न-भिन्न प्रतीत होती हैं, पर यथार्थ में एक ही शक्ति के विभिन्न स्वरूप हैं। उसी अखण्ड शक्ति की उपासना करना मनुष्य का सबसे प्रथम कर्त्तव्य है। शक्ति प्राप्त किये बिना तो हम मनुष्य भी नहीं कहला सकते। अवतार-प्रेमियों को चाहिए कि सबसे प्रथम शक्ति की आराधना करें और बल को बढ़ावें।

सब आत्माएं समान हैं। विश्व में कोई प्राणी न छोटा है और न बड़ा। सब समान हैं, स्वतंत्र हैं, स्वावलंबी है। बेशक, इनमें से किसी की योग्यता और शक्ति अधिक होती है, उसी दृष्टि से उसकी आवश्यकताएं भी बढ़ी हुई होती हैं। हाथी का भोजन घोड़े से अधिक है, ढ़ाक के पौधे से नींबू के पौधों को अधिक पानी चाहिए। यह स्वाभाविक विषमताओं की स्वाभाविक पूर्ति हुई। मनुष्य को भी उसकी योग्यता भेद से कुछ अधिक सुविधाओं की आवश्यकता होती है। संसार में सब दृष्टियों से पूरा-पूरा साम्यवाद नहीं हो सकता, क्योंकि ये अस्वाभाविक है। परन्तु मनुष्य के कुछ स्वाभाविक अधिकार हैं, जो उसे प्राप्त होने ही चाहिए। स्त्रियों और अछूतों के साथ हिन्दू जाति में वह मानवोचित व्यवहार ठीक तरह से प्रयोग नहीं किया जाता। गरीबी और अमीरी का भेदभाव इतना बढ़ जाता है कि, एक तो अनुचित महत्ता प्राप्त करता है कि दूसरा अनुचित हीनता स्वीकार करता है। दास-दासियों को पशुओं की तरह सम्पत्ति समझना, उन्हें खरीदना, बेचना ऐसी ही जघन्य विषमता है। रंग-भेद, शासक और शासित जातियों का अधिकार भेद, इसी प्रकार की हेय असमानता है, जिसका विरोध होना चाहिए। विद्वान, मूर्ख, सदाचारी-दुराचारी, सुर-असुर इनमें भेद होना चाहिए। परन्तु किसी को उसके प्रारंभिक अधिकार से वंचित न करना चाहिए। प्राचीन काल में युद्ध के समय यदि शत्रु की तलवार टूट जाती थी, तो विरोधी उस पर तब तक प्रहार नहीं करता था, जब तक कि वह पुनः तलवार प्राप्त न कर ले। स्त्रियों पर हाथ उठाना यों पाप है कि वे मुकाबला करने की उतनी ही क्षमता नहीं रखती। निर्बलों को बलवान लोग इसलिए क्षमा कर देते थे कि वह उनकी टक्कर का नहीं है। अंधे, रोगी, अपाहिज और बोझ से लदे हुए मुसाफिरों के लिए, राजा को भी हटकर सड़क खाली करनी पड़ती थी, हर एक नागरिक को राजा की समालोचना करने और राज्य कार्यों में हस्तक्षेप करने का पूरा-पूरा अधिकार था। एक अशिक्षित धोबी ने राम जैसे उच्चकोटि के शासक के शासन में अपनी बुद्धि के अनुसार जो दोष पाये थे, वे निर्भयता पूर्वक प्रकट किये। नागरिकता का हर मनुष्य को समान अधिकार है और मानवीय जन-सिद्ध सत्यों में हर एक व्यक्ति को समानता प्राप्त होनी चाहिए। वैसे अपने कर्मों के अनुसार ऊंच-नीच बनना यह अपनी स्वतंत्र योग्यता का फल है, किन्तु मानवता का समान अधिकार सब को प्राप्त होना चाहिए। यह आद्य और अखण्ड समता स्वयं प्राप्त करना और दूसरों को देना आवश्यक है। न्याय का संदेश है कि इस अखण्ड समता का सर्वत्र प्रचार होना चाहिए।

न्याय का तीसरा चरण है अखण्ड शमन। संसार तीन तत्वों का बना हुआ है। सत और रज से बनी हुई सृष्टि के लिए सत्य और प्रेम का व्यवहार पर्याप्त है, किन्तु तामसी तत्वों के लिए न्याय दण्ड की गदा चाहिए। दण्ड का अस्त्र काम में लाये बिना सृष्टि का संतुलन ठीक नहीं रह सकता। माली पौधों को खाद पानी से भरा पूरा रखता है, पर साथ ही खुरपी और कैंची भी तेज किये रहता है। जिस पौधे की डालियाँ टेढ़ी-मेढ़ी चलीं, कि उसने कैंची से उन्हें काटा। जो पौधा निर्बल, अशक्त और रोगी हुआ, उसे उखाड़ कर फेंका। निकम्मे झाड़-झंखाड़ तो उसकी खुरपी के नीचे हर घड़ी पिसते रहते हैं। शाम को उखाड़े हुए घास-पात के इकट्ठे रखे गये ढेर को देख कर कोई अल्प बुद्धि वाला, अनायास ही कह सकता है कि यह माली बड़ा अन्यायी है। छोटी सी बात के लिए इसने इतने पौधों का नाश कर डाला। पर माली जानता है कि उसका कार्य सद्वस्तु की वृद्धि करना और असद् वस्तु को काम करना है। वह दृढ़तापूर्वक इसे ही करेगा, इस कार्य में वृद्धि और विनाश जो होता है, उसकी ओर वह ध्यान नहीं देता। भगवान राम और कृष्ण के सामने ऐसी ही समस्याएं उपस्थित थीं। एक सीता दुखी होगी, या राम और सीता दो दुखी होंगे इसके लिए रावण जैसे विक्षन और उसके इतने बड़े कुटुम्ब को क्यों मारा जाय? एक के बदले लाख की हत्या क्यों हो? ठीक इसी तरह का सवाल कृष्ण के सामने उस समय आया, जब अर्जुन ने गाँडीव पटक कर कहा- ‘इतनी बड़ी सेना और स्वजन, सम्बंधी, गुरु आचार्य, बन्धु-बान्धवों का संहार करने पर हमें जो सुख मिलेगा, उसकी मैं इच्छा नहीं करता और मैं युद्ध नहीं करूंगा।’ किसे कितनी पीड़ा होगी, यह पैमाना गलत है। सत्य यह है कि सत् की वृद्धि और असत् का विनाश होना चाहिए, फिर भले ही कोई भी लोग सुखी होते हों, कोई भी दुखी होते हों। रावण या कौरवों के कुल का नाश न करने से अनीति बढ़ती, पाप-कर्म करने वालों को प्रोत्साहन मिलता और अकेले राम सीता या पाण्डव ही दुखी न होते, वरन् संसार के बहुत से भले पुरुषों को संकट झेलना पड़ता। इसलिए एक के बदले अनेक को, या अनेक के बदले एक को दण्ड मिलता हो, तो उसमें विचलित न होना चाहिए।

सर्प का विष बढ़ेगा। पवित्र हृदय का प्रेमी ठाकुर जब देखता है कि फोड़ा निर्बल होता जाता है तो वह निर्दयता पूर्वक उसमें चाकू घुसेड़ देता है और सड़े हुए माँस को काटकर अलग फेंक देता है ताकि वह विकृत भाग स्वस्थ अंग को भी रोगी न कर दे, एवं बीमार को इस पीड़ा के उपरान्त राहत मिल जाय।

कई बार प्रश्न उठता है कि दंड के योग्य शक्ति न होने पर किस प्रकार वैसा किया जा सकता है। हमें समझना चाहिये कि विरोध और असहयोग के दो सर्व सुलभ तरीके ऐसे हैं जिनसे बड़े से बड़े दुष्टों को बहुत अंशों में झुकाया जा सकता है। इससे ऐसी भूमिका तैयार होती है जो किसी न किसी प्रकार उसे बहुत जल्द नीचा झुका देती है। इन अस्त्रों का महत्व जिसने समझा है वे समझते हैं कि इनमें कितनी प्रचण्ड शक्ति भरी हुई है। और निर्भय तथा व्यापक विरोध प्रचार से धूर्तों के पाँव कैसे उखड़ जाते हैं कारण यह है कि दुष्ट व्यक्ति चाहे जैसा सशक्त प्रतीत होता है पर वास्तव में उस के अन्दर पाप का साम्राज्य होने के कारण कायरता ही भरी रहती है। घर के मालिक का एक लड़का भी जब खाँसने लगता है तो चोर को भागते ही बनता है। पाप के अन्दर इतनी निर्बलता होती है कि सच्चे विरोध ओर असहयोग को वह सहन नहीं कर सकता। इसलिये किसी के पापों को छिपाने या सहन करने की अपेक्षा उसे प्रकाश में लाना चाहिये किन्तु यदि समझा देने से ही उसके सुधर जाने की आशा हो तो उसे इस प्रकार का दंड देने की आवश्यकता नहीं है। अन्याय का विरोध करना सत्य का ही एक अंग है। दुष्टता के विरोध में कष्ट सहन करना पड़ता है। कष्ट सहने से डरना न चाहिये और तप समझ कर सहर्ष स्वीकार करना चाहिए।


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