उपसंहार और चेतावनी

February 1942

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(नवधा भक्ति का तत्व ज्ञान)

गत जनवरी माह के अंक में सविस्तार यह बताया जा चुका है कि सतयुग के आगमन के साथ-साथ निष्कलंक सत्यनारायण का अवतार होगा। भगवती ज्ञानगंगा स्वर्गलोक से पहले भगवान शंकर के मस्तक पर उतरी थीं। पीछे भूलोक में प्रवाहित हुई। इसी प्रकार भगवान सत्यनारायण पहले आत्म-ज्ञानी और पूर्व संस्कारों के कारण आध्यात्म भूमिका में जागृत हुए मनुष्यों के मस्तिष्क में उतरेंगे। पीछे धीरे-धीरे उनका प्रभाव संसार में प्रत्यक्ष रूप से दृष्टिगोचर होने लगेगा। भगवान का स्वरूप और कार्यक्रम होगा यह पिछले तथा इस अंक में सविस्तार से वर्णन हुआ है।

सत्य, प्रेम और न्याय में से प्रत्येक के तीन-तीन विभाग करके एक ही सत्य को नौ रूपों में प्रदर्शित किया गया है।

सत्य- 1. अखण्ड आत्मा 2. अखण्ड जीवन 3. अखण्ड जगत?

प्रेम- 1. अखण्ड प्रवाह 2. अखण्ड आत्मीयता 3. अखण्ड यज्ञ।

न्याय- 1. अखण्ड शक्ति 2. अखण्ड समता 3. अखण्ड शमन। इनकी विस्तृत विवेचना यहाँ की जा रही है।

याद रखिये कि जो बात जैसी सुनी या देखी है उसे वैसा ही कह देना यह सत्य की बड़ी लंगड़ी-लूली व्याख्या है। कई बार, ऐसा सत्य पाप हो सकता और असत्य में पुण्य रह सकता है। ‘वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति’ ऐसा शास्त्र का मत है। विवेकपूर्वक की हुई हिंसा यदि हिंसा न मानी जायेगी तो विवेक के साथ धर्म बुद्धि से बोला हुआ झूठ भी झूठ न होगा। इसी प्रकार अविवेकपूर्वक जो अन्धाधुँध सत्य बोला जायेगा वह भी सत्य नहीं कहा जा सकेगा। सेना के गुप्त भेदों को प्रकट कर देने वाला सत्य-वक्ता न्यायालय में पापी ठहराया जायेगा और दण्ड का भागी बनेगा। इसलिये ‘सत्य बोलना’ केवल इतनी सी छोटी शिक्षा तो छोटे-छोटे बालकों के लिये हैं जो मिट्टी खा लेते हैं ओर कहते हैं कि हमने मिट्टी नहीं खाई। अखण्ड-ज्योति के पाठक अब वैसे बालक नहीं हैं। यदि ‘सत्य बोलिये’ इतना सा संदेश दिया जाय तो यह उनका अपमान करना होगा। ‘सत्य को पहचानिये’ आज का संदेश यह है। सत्य की शोध करना, सत्य के अन्वेषण में प्रवृत्त होना, सत्य का मनन करना और असत्य में से सत्य ढूँढ़ लेना यह कार्य है जो अवतार के भक्तों को करना होगा। प्रेम शब्द की व्यापकता महान है। सिनेमाबाज, छैल-छबीले लड़के, प्रेम के नाम पर व्यभिचार के जो गीत गाते फिरते हैं वह प्रेम नहीं है, यौन आकर्षण तो एक भौतिक प्रतिक्रिया है, जैसे भूख लगने पर रोटी की तरफ मन खिंचता है। कोई बालक रोटी खाने के लिये मचल रहा है तो यह नहीं कहा जा सकता है कि उसे रोटी के प्रेम की व्याकुलता है। यह मचलना तो उसकी शारीरिक भूख और जिह्वा इन्द्रिय की लोलुपता का सूचक है। प्रेम का अर्थ है- ‘आत्मा की वह तीव्र उदारता, जो अपने स्वत्वों को दूसरों के पक्ष में त्याग करने के लिये निस्वार्थ भाव में हर घड़ी व्याकुल रहती है।’ दूसरों को लाभ पहुँचाने के लिये छटपटाने वाली परोपकार की त्याग वृत्ति में प्रेम के दर्शन किये जा सकते हैं। अपने सुख, सौभाग्य, भोग, साधन के प्राप्त होने में प्रसन्न और नष्ट होने में दुखी होते समय लोग नाहक बेचारे प्रेम शब्द को काँटों में घसीटते हैं। इसी तरह न्याय शब्द का अर्थ सब को बराबर समझना नहीं है। जीव की उपयोगिता की दृष्टि से उसका स्थान नियुक्त करना और उसके मानवोचित अविकारों को देने में समयानुसार अधिक से अधिक उदारता का परिचय देने में तत्पर रहना न्याय की यह छोटी सी झाँकी है। अन्याय का कारण अशक्तता है। अन्याय की सृष्टि करने वाला वह व्यक्ति है जो निर्बल है, वही अत्याचार और अत्याचारियों का बाप है, इसलिये दुनिया में से अन्याय मिटाने का एक ही तरीका है और वह यह है कि हर आध्यात्मिक व्यक्ति शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक, आर्थिक और राजनैतिक दृष्टि से बलवान बने। बलवान व्यक्ति ही अपने ऊपर और दूसरों के ऊपर होने वाले अन्याय को रोक सकता है। इसलिये शक्ति की उपासना करके बलवान बनने में न्याय की महत्ता छिपी हुई है। इस प्रकार सत्य, प्रेम और न्याय की त्रिगुण सृष्टि के अंतर्गत संपूर्ण सुधार आ जाते हैं, जिनकी आज संसार को आवश्यकता है। इन तीनों की पृष्ठ भूमि पर खड़े होकर हम सत्य का दर्शन कर और करा सकते हैं।

संक्षेप में सत्यनारायण की नवधा भक्ति हमें करनी होगी। यह नौ खण्ड इस प्रकार होंगे-

सत्य- 1. अखण्ड आत्मा 2. अखण्ड जीवन 3. अखण्ड जगत।

प्रेम- 1. अखण्ड प्रवाह 2. अखण्ड आत्मीयता 3. अखण्ड यज्ञ।

न्याय- 1. अखण्ड शक्ति 2. अखण्ड समता 3. अखण्ड शमन।

इस नवधा भक्ति द्वारा भगवान निष्कलंक सत्यनारायण का प्रत्यक्ष दर्शन कर सकते हैं और अपना जीवन सफल बना सकते हैं।


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