सत्ययुग और परलोक ज्ञान

February 1942

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(परलोक विद्या के आचार्य श्री बी.डी. ऋषि, बंबई)

प्रचलित जागतिक अस्वस्थता के समय हर एक व्यक्ति सत्ययुग की यानी अच्छे काल की आकाँक्षा करता है, सत्ययुग का आना का संभव निश्चित करने के लिये पुराण के वचन उद्धृत किये जाते हैं, कोई अन्य प्रमाण बतलाते है। कोई शास्त्राधार से इस प्रश्न का उत्तर देने का प्रयत्न करते हैं। मानवी उत्कण्ठानुरूप इस प्रकार के उद्योग होना स्वाभाविक है और सब के इच्छानुसार यदि सत्ययुग का आरंभ शीघ्र ही संसार में होगा तो समस्त जनता सुख और शाँति का लाभ उठायेगी।

विद्यमान स्थिति का विचार करने से वह स्पष्ट होगा, किन्तु उसका कारण लोभ, धर्म का अभाव, आसुरी सम्पत्ति तथा मरणोत्तर अवस्था का अज्ञान ही है। केवल ऐहिक जीवन का ख्याल करने से मनुष्य अहंकारी तथा दुराचारी बनता है। चार्वाक मतानुसार उसकी वृत्ति ‘यावज्जीवेत सुर्ख जीवेत्’ इस वचनानुसार बनती है, भौतिक दण्ड नीति से बचकर कोई कर्म करने को वह सिद्ध रहता है, ऐसे जड़वादी लोगों के धार्मिक वचनों का महत्व प्रतीत नहीं होता, केवल प्रत्यक्ष जगत के अतिरिक्त अन्य अदृश्य अवस्था को वह अविश्वसनीय मानते हैं। दुर्भाग्य अवस्था को वह अविश्वसनीय मानते हैं। दुर्भाग्य से तथा धर्म ग्लानि से ऐसे लोगों की संख्या बढ़ रही है। शिक्षण प्रणाली भी इन्हीं विचारों से कलुषित हुई है। बहुत से नेता प्रच्छन्न या प्रकट रीति से स्वर्ग या नरक आदि स्थिति को यानी मरणोत्तर अस्तित्व को केवल काल्पनिक समझते हैं। श्रद्धा से जो इन बातों पर विश्वास रखते हैं, उन्हें भी इसकी यथार्थ कल्पना नहीं रहती केवल आत्मा का अमरत्व मान्य करने से मरणोत्तर स्थिति का ज्ञान नहीं हो सकेगा।

कई स्थानों पर नया युग निर्माण करने की ध्वनि सुनने में आती है, किन्तु उसके प्रवर्तकों के विचार देखकर उस युग में क्या होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है। उन लोगों की दृष्टि से उस युग में धर्म का नाम न रहेगा। लोग केवल ऐहिक सुखों में मग्न रहेंगे, ईश्वर का अस्तित्व मिटा दिया जावेगा और समस्त प्राचीन संस्कृति का लोप होगा। यह विचार प्रणाली दो घोर कालों के समीप आने की द्योतक है। हमारे नेता भी राष्ट्र के भावी आयोजन करते समय केवल आर्थिक उन्नति का ही विचार करते हैं, जिस योजना में केवल आर्थिक सुधार पर जोर दिया जाता है वह चिरकाल तक नहीं रह सकती और न उससे लोगों का असली कल्याण होगा। प्राचीन मुनियों ने मनुष्य जाति के लिये धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ऐसे चार ध्येय निश्चित किये हैं, उनमें से केवल एक को ही प्राप्त करने के प्रयत्न से लोगों में सुख शाँति न रहेगी, इन तत्वों की उपेक्षा करने से ही समस्त संसार आपत्ति में पड़ा है। यह सब जड़वाद का परिणाम है, यह ही मानव जाति का प्रथम श्रेणी का शत्रु है, उसको नष्ट करने से लोगों को जीवन के उद्देश्य का यथार्थ आकलन होगा। जड़वाद का इतना प्रचार हुआ है कि श्वेत वर्णीय हजार लोगों में उससे एक भी बचा हुआ मिलना मुश्किल है। ऐसा ‘लंदन के लाईट’ नामक साप्ताहिक से एक प्रसिद्ध लेखक ने प्रकाशित किया है।

इस जड़वाद को नष्ट करने को परलोक ज्ञान ही अनुपम उपाय है। कारण यह प्रत्यक्ष प्रयोग द्वारा सिद्ध हुआ है, उससे मरणोत्तर अस्तित्व की यथार्थ कल्पना आ सकती है। सदाचार का क्या फल मिलता है। दुराचार का क्या दुष्परिणाम होता है, साधारण मनुष्यों को मृत्यु के पश्चात क्या अनुभव आते हैं इत्यादि जटिल और महत्वपूर्ण बातों पर इस ज्ञान से प्रकाश पड़ता है, पाश्चिमात्य संशोधकों ने इन बातों के बारे में इतना ज्ञान संग्रहित किया है कि, उनकी कुछ पुस्तकें पढ़ने से पाठकों को स्वल्पावकाश में बहुत ज्ञान प्राप्त हो सकेगा, सुखी आत्मा के मरणोत्तर अनुभव दुखी मनुष्यों के कष्ट आत्मघात की क्लेश, दुराचारी की पीड़ा इत्यादि हर मनुष्य को जानने लायक बातें परलोक गत व्यक्ति के संदेशों से विदित हो सकेंगी, इस ज्ञान से जड़वाद खंडित होकर मनुष्य को अपने जीवन का हेतु समझ सकता है, इसी से यह स्थापित होता है कि हमारा ऐहिक जीवन अन्य जीवन की तैयारी के लिये है। हम इस भौतिक जगत में जिस रीति से अपना जीवन व्यतीत करेंगे, उसी के अनुसार हमें मरणोत्तर अवस्था में स्थिति प्राप्त होगी, यह केवल कवि कल्पना अथवा श्रद्धा का विषय नहीं है, इस लोक की अपेक्षा परलोक का जीवन बहुत दीर्घकालीन है, यहाँ सामान्यतः अधिक से अधिक मानवों आयुष्य सौ बरस का रहता है, किन्तु परलोक-निवास का समय इससे कई गुना अधिक है, वह हर एक के कर्मों पर निर्भर रहता है।

पुरातन अन्धकारों ने परलोक की तरफ लोगों का चित्त कई रीति से आकर्षित किया था, वही कार्य परलोक ज्ञान द्वारा अन्य प्रकार से हो रहा है, उसी के प्रसार से समस्त आपत्तियों का मूल जो जड़वाद है, उस पर कुठाराघात होकर संसार से सुख शाँतिमय सत्ययुग आरंभ होगा, उसका सामीप्य अथवा दूरता-जनता के सहकार्य पर अवलम्बित रहेगी।


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