सतयुता में पुत्रियों का स्थान

February 1942

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(श्रीमती विष्णुकुमारी देवी सिन्हा, लखनऊ)

आज यह आवाज सर्वत्र गुँजित हो रही है कि ‘प्राचीन रूढ़िवादी प्रथाओं को नष्ट करके नवीन युग की स्थापना होगी और उसमें सत्य के आधार पर नवीन व्यवस्था, संस्कृति एवं प्रथाओं का निर्माण किया जायेगा।’ यह आवाज आज के धुरन्धर, बड़े-बड़े विद्वान, देशोद्धारक श्रेणी के माननीय पुरुषों की है। इसी आधार पर अनेक सुधार हो चुके हैं। जैसे कन्याओं को पढ़ाना, स्त्रियों को स्वतंत्र व हर निकालना, विधवा-विवाह तथा सिनेमा आदि में कार्य करना आदि-आदि। परन्तु पद-दलित मातृजाति की वास्तविक दुर्दशा, आर्थिक प्रश्न की ओर भी ध्यान देना चाहिए, ऐसा सोचना हमारे लिए स्वाभाविक है। पैतृक सम्पत्ति पर अधिकार न होने के कारण बहुत समय से ढोल और पशुओं को श्रेणी का व्यवहार पतिगृह में होते रहने के कारण भारत की नारी आज बहुत असहाय हो गई है। उसकी मानवोचित सभी स्वाधीनताएं अनेक प्रकार से छीन ली गई थी जो कि अब भी है। इस संसार के सुरम्य उपवन में केवल पुरुष ही स्वतंत्रता पूर्वक टहल सकते हैं, स्त्रियों को तो अपने पिंजड़े में से झाँकने की मनाई अब भी है। जो कुछ हुआ या हो रहा है वह सब पुरुषों की आज्ञानुसार ही हो रहा है। कितने हैं जो अपने घरों में लड़कों की तरह लड़कियों के स्वास्थ्य और शिक्षण का ध्यान रखते हैं? पराये घर का कूड़ा समझकर भार रूप से अभिभावक कन्याओं को पालते हैं और जैसे तैसे इस भार को दूसरों के ऊपर डालकर निश्चिन्त हो जाते हैं। पति के घर पहुँचने पर उसके कान, नेत्र ओर मुख को भी बन्द कर दिया जाता है। इस प्रकार आदि से अन्त तक कार्यक्रम ऐसा रहता है जिसमें उसको शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, व्यावहारिक और जीवनयापन संबंधी सारी योग्यताएं नष्ट हो जाती हैं। उनके लिए आध्यात्मिक विकास एवं मानवीय महान लक्ष की ओर अग्रसर होना तो दूर रहा, भोजन वस्त्र जैसी प्रारंभिक आवश्यकताओं के लिए भी परमुखापेक्षी बनकर रहना होता है, जबकि गृह संचालक जैसे महान कार्य का समस्त भार उन पर है।

दुर्भाग्य से यदि उनका प्रधान संरक्षक से वियोग हो जाय या वह परित्यक्त कर दे, तो दूसरे अभिभावकों की भी सहायता की आशा नहीं रहती अभागे और परित्यक्त पुरुष स्वावलंबन के साथ जीवन निर्वाह कर सकते हैं, किन्तु धर्म पर आरुढ़ रह कर अभागिनी महिलाओं के लिए जीवनयापन करना बाहर के पुरुषों के कारण कठिन है। इन दुखद परिस्थितियों में यदि बालकों के लालन-पालन का भी बोझ उन पर हो, तब तो कष्टों का कोई ठिकाना ही नहीं रहता। मातृजाति को इतनी असहाय, अपंग और अशक्त बनाकर पुरुष जाति ने बड़ी भारी क्रूरता और भूल की है। साम्राज्यवादी राष्ट्रों को कोसा जाता है कि उन्होंने स्वार्थ के लिए बहुत जन समुदाय को अपना गुलाम बना रखा है। परन्तु देखा जाय तो आधी जनसंख्या स्त्री जाति, इस भारत देश के, पुरुष साम्राज्यवाद की शिकार है। इंसाफ के दिन परमात्मा की कचहरी में पुरुषों को इसका उत्तर देना होगा, वे अपने कुकर्मों के दंड से बच नहीं सकेंगे।

हमारे देश में स्त्रियों को उनके मानवोचित अधिकारों से वंचित रखने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी गई है। उन्हें सर्वथा असहाय बनाकर ही संतोष नहीं किया गया है वरन् ऐसा भी प्रयत्न किया गया है कि वे आपत्ति के समय तिल-तिल कर जलें और तड़प-तड़प कर मरें। ‘उत्तराधिकार से वंचित रखना’, ऐसी ही एक पैशाचिक क्रूरता है। पिता की सम्पत्ति पर पुत्रों का ही अधिकार होने की प्रथा जाति में इस प्रकार व्यवहारित होती है कि स्त्रियाँ न तो अपने पिता की संपत्ति में से हिस्सा पा सकती हैं और न पति के में से। जब किसी घर में पुत्र नहीं होता तो कोई लड़का गोद रखने के लिए ढूंढ़ा जाता है या दूसरी शादी की जाती है ताकि वह उस सम्पत्ति का अधिकारी बन सके। लड़कियों का दर्जा इतना कम है कि वे दूर के गोद रखे हुए लड़के या अन्य कुटुम्ब, परिवार वालों की अपेक्षा कम उत्तराधिकारिणी समझी जाती हैं। पतिगृह में भी ऐसे ही दाव-पेंच चलते हैं। दुर्भाग्यग्रस्त महिलाओं की सहायता वर्तमान लंगड़े-लूले कानून द्वारा बहुत ही कम हो पाती है। वे बेचारी निकट सम्बंधियों के चंगुल से अपनी अधिकार रक्षा नहीं कर पाती और ठीक तौर से पति या पिता उत्तराधिकार प्राप्त नहीं कर पाती।

सतयुग के निर्माण के लिये आवश्यक है कि ‘वर्तमान युग में पुत्रियाँ ही पैतृक सम्पत्ति की उत्तराधिकारिणी हों।’ लड़के तो पर्याप्त शिक्षा-दीक्षा प्राप्त कर ही लेते हैं और स्वतंत्र होने के कारण पौरुष से अर्थोपार्जन कर सकते हैं किन्तु लड़कियाँ ऐसा करने में स्वभावतः अशक्त हैं, इसलिए पैतृक धन पर उन्हीं का उत्तराधिकार होना चाहिये। आरंभ में कुछ शताब्दियों तक जब तक कि समस्त मातृ जाति को असहायावस्था से बाहर न निकाला जाय तब तक तो पूरा ही उत्तराधिकार उन्हें प्राप्त हो। पुनः पुत्र और पुत्रियों में बराबर विभाजन हो सकने की प्रणाली प्रचारित की जानी चाहिए।

आशा है कि सतयुग के इच्छुक और रूढ़िवादी प्रथाओं के विनाशक, सत्य के आधार पर इस व्यवस्था के प्रति कि पुत्रियाँ उत्तराधिकार प्राप्त करें, न्याय की यह प्रबल पुकार है कि अविलम्ब पुरुष जाति पुत्रियों के प्रति उत्तराधिकार का प्रथम पालन करें, तभी वास्तविक ‘सत्ययुग‘ हो जायेगा।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles