सत्य योग की साधना

February 1942

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(प्राचीन योग विद्या का नवीन संस्करण)

सत्य धर्म का प्रचार और कुछ नहीं योग साधन का आरंभ है। योग विद्या को सर्वसुलभ रूप में जन-साधारण के सामने इस तरह उपस्थित किया जा रहा है। समयानुकूल थोड़ा सा हेर-फेर करने से जनता की नवीनता प्रिय मनोवृत्ति का इस ओर झुकाव होगा, इसलिये पुरानी बात को नये रूप में सर्व-साधारण के सामने उपस्थित किया जा रहा है।

राजयोग के आरंभिक साधन यम और नियम है। इन्हीं को सत्य, प्रेम, न्याय के साँचे में ढालकर अवतार की तरह बनाया गया है। पाठक इसकी विवेचना नीचे दिये हुए क्रम से कर सकते हैं।

यम

अहिंसा- अखण्ड आत्मीयता (प्रेम)

सत्य- अखण्ड जीवन (सत्य)

अस्तेय- अखण्ड समता (न्याय)

ब्रह्मचर्य- अखण्ड शक्ति (न्याय)

अपरिग्रह- अखण्ड प्रवाह (प्रेम)

नियम

शौच- मुक्ति, (परम पद)अवतार के दर्शन।

संतोष- अखण्ड यज्ञ (प्रेम)

तप- अखण्ड शमन (न्याय)

स्वाध्याय- अखण्ड जगत् (सत्य)

ईश्वर प्रणिधान- अखण्ड आत्मा (सत्य)

इस प्रकार लौट फेर का इस सत्य साधन में यम नियमों को ही स्थान दिया गया है। समय परिवर्तन के अनुसार उनके क्रम में थोड़ा फेर और व्यवस्था में थोड़ा विस्तार कर दिया गया है।

शौच के लिये इस साधना में कोई स्थान इसलिये नहीं दिया गया है कि साधना नहीं वरन् साधन है। शौच का अर्थ पाप तापों को हटाकर आत्मा के निर्मल स्वरूप का दर्शन करना है। शौच रूपी ध्येय जैसे-जैसे प्राप्त होता जाता है, वैसे ही वैसे परम पद, मुक्ति, मोक्ष निकट आता जाता है। जब पूर्ण शौच प्राप्त हो जाता है, तो आत्मा बिलकुल निर्मल और निष्पाप हो जाता है। यही तो मुक्त अवस्था है। आत्मा तो सत् चित् आनंदस्वरूप नित्य और मुक्त है। कषाय-कल्मषों के अशौच ने उसे अपवित्र कर रखा है। शौच प्राप्त होते ही आत्मा परमात्मा में मिल जाता है, इस प्रकार शौच को साधना नहीं वरन् साध्य, ध्येय, लक्ष समझकर इस नवधा भक्ति से ऊपर रखा है। यों भी कहा जा सकता है कि शौच के अंतर्गत यह सारी साधना है।

विज्ञ पाठकों को यह बताने की जरूरत नहीं है कि जैसे शौच के अंतर्गत सारे यम-नियम हैं, वैसे ही यम-नियमों के अंतर्गत राज योग के अन्य छः अंक है। आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि यह छः अंग इसी साधना के अंतर्गत इस प्रकार आ जावेंगे-

आसन- ब्रह्मचर्य अखण्ड शक्ति (न्याय)

प्राणायाम- ब्रह्मचर्य अखण्ड शक्ति (न्याय)

प्रत्याहार- अपरिग्रह अखण्ड प्रवाह (प्रेम)

धारणा- स्वाध्याय अखण्ड जगत (सत्य)

ध्यान- सत्य अखण्ड जीवन (सत्य)

समाधि- ईश्वर प्रणिधान अखण्ड आत्मा (सत्य)

आसन और प्राणायाम शरीर को स्वस्थ रखने और उसकी शक्ति बढ़ाने के लिये हैं, इसलिये दोनों ब्रह्मचर्य के अंतर्गत आ जाते हैं। प्रत्याहार में दुर्वासनाओं को इकट्ठा करना, रोक कर उन्हें दूर रखना होता है, जो अपरिग्रह की व्याख्या में आ जाता है। धारणा में तर्क, प्रमाण, श्रद्धा आदि साधनों द्वारा तत्वज्ञान पर सुदृढ़ निष्ठा जमानी होती है, यही कार्य स्वाध्याय का है। ध्यान में इष्टदेव के माध्यम द्वारा उच्च से उच्च आध्यात्मिक गुणों की प्रतिमा की समीपता की जाती है। सत्य, अखण्ड जीवन के अंतर्गत भी आध्यात्मिक गुणों की सर्वोच्च कल्पना करते हुए उसकी सन्निकटता स्वीकार करते हैं। संसार में वास्तविक सत्य क्या है, इसे ईश्वर के अतिरिक्त और कोई नहीं जान सकता। पर हम अपनी बुद्धि के अनुसार आध्यात्मिक गुणों की पवित्रतम कल्पना कर सकते हैं, उसे सत्य कहते हैं। इसलिये ध्यान सत्य का ही एक भाग है। समाधि, ईश्वर में तल्लीन होना, आत्मा का परमानन्द उपलब्ध करना, एक ही बात है। आत्मा-परमात्मा एक ही वस्तु है, केवल दो नामों से ही उसे पुकारते हैं। परमात्मा ध्यान में तल्लीन होने की समाधि ईश्वर प्रणिधान कहाती है।

राज योग की एकान्त साधना का कर्मयोग में परिवर्तन करने का यह सत्य योग है। अथवा यों कहिये कि राज योग की आत्मा कर्मयोग के वस्त्र पहनकर सत्य योग के नवीन रूप में संसार में अवतार ले रही है।

(आँखों देखी सत्य घटना)-


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles