सत्यनारायण की झाँकी

February 1942

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(अखण्ड आत्मा, अखण्ड जीवन, अखण्ड जगत)

सत्य क्या है?- पाठकों को जानना चाहिए कि इस सृष्टि का आदि मूल, कर्ता, परमेश्वर सत्य है। विश्व के कण-कण में सर्वत्र यह सत्य तत्व व्याप्त हो रहा है। जीव उसी महान सत्य सूर्य का प्रतिबिम्ब है, घड़ों में भरा हुआ आकाश है, अग्नि की चिनगारी है, पानी की बूँद है। देखने में जीव अलग-अलग प्रतीत होते हैं, संसर्ग भेद से छोटे-बड़े एवं भले बुरे प्रतीत होते हैं, पर यथार्थ में ऐसी बात नहीं है। यथार्थ में यह विभिन्न आत्माएँ परमात्मा के ही प्रतिबिंब मात्र हैं। इस विश्व में एक ही पदार्थ हैं, या तो सब अपना है या सब पराया है। या तो सम्पूर्ण को ‘मैं’ कहना होगा या ‘तू’। मैं तू दो भेद नहीं रह सकते। जब तक द्वैत है, तभी तक बंधन है। आत्मा की विश्वव्यापी आत्मीयता जब प्रज्ज्वलित हो जाती है, तो सारी गुत्थियाँ सुलझ जाती हैं, बंधन से सहज ही छुटकारा मिल जाता है। आत्मा अखण्ड है, जीवन अखण्ड है, जगत अखण्ड है। इन तीन तत्वों का ज्ञान प्राप्त करके हम भगवान सत्य का दर्शन कर सकते हैं, आत्मा और परमात्मा एक हैं। इस तत्व का मनुष्य जैसे-जैसे अनुभव करता जाता है, वैसे-वैसे वह परम पद के निकट पहुँचता जाता है। ईश्वर हमसे दूर नहीं है, मुक्ति बिलकुल पास है, पर उसका ठीक स्थान न जानने के कारण इधर-उधर ढूँढ़ते बहुत दिन हो गये और उसके अभाव में वह बहुत दुःख अनुभव करता रहा। जब एक दिन उसे पता चला कि कण्ठा तो मेरे गले में ही बंधा हुआ था, पर मैं उसे भूल गया था। स्मृति आते ही उसका भ्रमजन्य दुःख दूर हो गया। बिजली के निगेटिव और पॉजिटिव तार आस-पास रहते हुए भी जब तक एक दूसरे को छूते नहीं, तो बिजली पैदा नहीं होती और उससे बत्ती जलना, पंखा चलना आदि कुछ भी काम नहीं होता। इसी प्रकार परमात्मा की सत्ता की झाँकी जब आत्मा के अन्दर की जाती हैं, तो वह पापी जीवन रहकर उन गुणों से परिपूर्ण हो जाता है, जो परमात्मा में है। बिजली के दोनों तार एकत्रित होते ही जैसे प्रचण्ड शक्ति-स्रोत फूट पड़ता है, ठीक वैसे ही आत्मा और परमात्मा की एकता का जिस घड़ी बोध होता है ‘सोऽहम्, शिवोऽहम्’ की हुँकार करता हुआ जिस घड़ी आत्मा का सिंह दहाड़ता है, उस समय पाप-ताप, कल्मष, कषाय, राग-द्वेष, शोक-संताप, सारे के सारे पशु दुम दबाकर भाग जाते हैं, फिर उनका ढूँढ़ने पर भी पता नहीं लगता। सूर्य को देखकर अंधेरा जैसे पलायन कर जाता है, उसी प्रकार आत्मा की ‘सच्चिदानंदोऽहम्’ दहाड़ सुनकर भव बंधन टूक-टूक हो जाते हैं। अखण्ड आत्मा का बोध ऐसा ही चमत्कारपूर्ण है।

‘अखण्ड जीवन’ का विज्ञान यह है कि आत्मा का एक ही जीवन है, जो निरन्तर अबोध गति से चल रहा है। मृत्यु नाम की कोई वस्तु आत्मा को छू भी नहीं सकती, समयानुसार वस्त्र बदलने पड़ते हैं। हमारा वास्तविक जीवन असंख्य वर्षों का हैं और यह जीवन अभी बहुत समय तक इसी प्रकार चालू रह सकता है। कपड़ा कोई दस वर्ष में बदल जाना है, कोई सौ वर्ष में। अखण्ड जीवन पर विश्वास करने से हम मृत्यु-दुःख से छूट जाते हैं। फिर वह स्वाभाविक वस्तु प्रतीत होती है, उससे डरने का कोई कारण प्रतीत नहीं होता। अखण्ड जीवन का विश्वासी व्यक्ति इस क्षणभंगुर शरीर के लिये अनर्थों का सम्पादन नहीं कर सकता। उसे वस्त्र की अपेक्षा शरीर की चिन्ता होगी। कपड़े के लिये शरीर का नाश उसके द्वारा नहीं होगा। ऐसा व्यक्ति अच्छी तरह समझ जाये कि वर्तमान न तो मेरा शरीर है और न वर्तमान जीवन मेरा जीवन है। आत्मा का जीवन अब तक इतना हो चुका है कि इसकी गणना लाख-करोड़ वर्षों में नहीं की जा सकती। चौरासी लाख योनियोँ के कितने चक्कर न जाने अब तक हो चुके हैं और न जाने कितने अभी और करने होंगे इस वास्तविक जीवन में आज का जीवन तो ऐसा है जैसे दिन में एक मिनट। एक मिनट के सुख के लिये दिन भर का दुःख कौन सहेगा? इसलिये अखण्ड जीवन में विश्राम करने वाला बहिर्मुखी वृत्ति छोड़कर अन्तर्मुखी हो जायेगा और महान जीवन का हर घड़ी ध्यान रखता हुआ वर्तमान के क्षणिक सुख और अनन्त दुख का विचार करके पाप-कर्मों से बचा रहेगा। इस प्रकार सहज ही उसका जीवन निष्पाप वृत्तियों से भर जायेगा।

‘अखण्ड जगत’ का तत्वज्ञानी जानता है कि जड़ पदार्थ अपने स्थान पर रहेंगे, वे चैतन्य के साथ जुड़ नहीं सकते। जिस प्रकार जड़ तत्व भी अखण्ड है। सोना, चाँदी आदि धातुएं, जमींदारी, जागीर आदि भूमि खण्ड, मोटर, गाड़ी आदि वाहन षट् रस भोजन, सुन्दर, असुन्दर शरीर यह सभी वस्तुएं जगत के जड़ तत्वों के स्वरूप हैं। पंच भूत अखण्ड है। इनकी अनुभूतियाँ से हर्ष-शोक प्राप्त भले ही कर लें पर यह अपने नहीं हो सकते। क्योंकि जड़ सत्ता से खण्डित होकर चैतन्य में जुड़ने की शक्ति इनके अन्दर नहीं है। धन-दौलत को कोई अपना साथी नहीं बना सकता। चाँदी-ताँबे के टुकड़े इसी पृथ्वी के साथ पैदा हुए हैं और इसी के साथ तक रहेंगे। अब तक हमारे जैसे अगणित जीव उन पर अपना अधिकार जमाकर तथा छोड़ते-छोड़ते हुए चले गये। फिर हम कैसे उन्हें स्थायी रूप से अपना बना सकते हैं। स्त्री पुत्रों के शरीर भी भौतिक तत्वों के हैं। ऐसे शरीर रूपी बबूले इस विश्व सागर के अंतर्गत क्षण-क्षण में करोड़ों उत्पन्न होते और नष्ट होते हैं। अज्ञानी लोग बबूले के उठते समय खुशी से नाचते हैं और टूटते ही शिर धुन-धुन कर रोते हैं, ज्ञानवान प्रभु की इस विचित्र कारीगरी को देखकर प्रसन्न होता है और नाश-निर्माण की लीला को रसपूर्वक देखता है। जगत के जड़ और नाशवान स्वरूप को वह ठीक दृष्टि से देखता और इसकी अखण्डता पर विश्वास करता हुआ मोह जंजाल में नहीं फंसता। इसके विपरीत अखण्ड जगत तत्व के अपरिचित व्यक्ति जड़ पदार्थों को अपना समझकर जेब में भरना चाहता है। पर्वत को मुट्ठी में और सागर को चुल्लू में भरना चाहता है पर भला ऐसा कैसे हो सकता है। जब दुष्पूर तृष्णा के सामने असंभवता की असफलता उपस्थिति होती है और वह मोह जनित दुख शोक से छटपटाने लगता है। जगत को अखण्ड समझने न समझने का यही भला-बुरा फल प्राणी भोग रहे हैं और उसी से बंध मोक्ष प्राप्त कर रहे हैं।

सत्य नारायण के इस त्रिविधि स्वरूप को समझने से आत्मा को अविलम्ब परमात्मा की प्राप्ति होती है और वह ईश्वर दर्शन का लाभ उठाता हुआ परम पद का अधिकारी हो जाता है।


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