आयुर्वेद-आचार्य परीक्षा पास की और स्वर्ण-पदक प्राप्त किया।
एकलव्य और गुरु द्रोणाचार्य का उदाहरण
श्रीमन् महोदय श्री 108 पूज्य वैद्य राज जी, साष्टाँग दण्डवत्!
‘मेरी हार्दिक अभिलाषा है कि मैं आपका शिष्य होऊं तथा श्रीमान के आयुर्वेदिक ज्ञान से अपने को कृत्कृत्य करूं। मैं हृदय से सदैव आपको ही अपना गुरु मानता हूँ, कारण सन् 1922 से मैं आयुर्वेदिक का अभ्यास कर रहा हूँ। और इसका श्रीगणेश श्रीमान की लिखी पुस्तक चिकित्सा चन्द्रोदय के द्वितीय संस्करण से आरंभ होता है और उसी की सहायता से अखिल भारत विद्वत् सम्मेलन से स्वर्ण पदक परीक्षा में बैठ कर 80 विद्यार्थियों के साथ आयुर्वेदाचार्य की उपाधि प्रथम श्रेणी में प्राप्त की है तथा पूर्ण सफलता से काम कर रहा हूँ। उपरोक्त परीक्षा में समस्त परचे चरक, सुश्रुत, वाग्भट्ट, शारंगधर, माधव, निदान, चक्रदत्त, रसरत्न समुच्चय इत्यादि में से बनाये गये थे। प्रथम परचे जब सामने आये और उक्त पुस्तकों के नाम देखे तो हृदय संसक्ति हुआ कि मैंने यह पुस्तकें देखी तो है नहीं, फिर किस प्रकार उत्तर दूँगा, किन्तु जब प्रश्नों को समझा तो वही विषय था, जो नित्य आपकी पुस्तकों में देखा करता था। अतएव भगवान का ध्यान करके लिखने लगा तो हरि इच्छा से 80 विद्यार्थियों में सर्वप्रथम आकर स्वर्ण-पदक सम्मान प्राप्त किया।
इस प्रभु के चमत्कार को देखकर स्वयं परीक्षकगण कहते थे कि, आपकी तरफ से यह आशा न थी। कारण साथियों में से अधिकाँश उन्हीं संस्कृत पुस्तकों को सैंकड़ों बार पढ़कर परीक्षा में सम्मिलित हुए थे, किन्तु उन महान ग्रंथों में जो गूढ़ विषय है, उनको न समझने के कारण उन्हें असफल होना पड़ा। स्वयं परीक्षक श्री शास्त्री विद्यासागर, कव्यतीर्थ, साहित्याचार्य, महामहोपाध्याय, विश्वविद्यालय दक्षिण हैदराबाद प्रोफेसर हरिहर द्विवेदी जी ने स्वर्ण-पदक प्रदान करते समय यह कहा कि, हम नहीं जानते थे कि संस्कृतज्ञों के मध्य में एक हिन्दी जानने वाला इस पदक का भागी होगा, अतः यह सब सम्मान भगवन् आप ही का है। अब अन्तिम इच्छा यही है कि जो ऊपर प्रगट कर चुका हूँ, दया कर स्वीकार कीजिये। आज्ञा पाते दास सेवा को उपस्थित होगा तथा जो आयुर्वेद के गूढ़ विषय मेरी बुद्धि से परे हैं, उनकी व्याख्या गुरु-मुख से सुन अपने को कृतार्थ करूंगा, तथा गुरु-भार से उऋण हो अपने कर्त्तव्य का पालन करूंगा। वह एकलव्य और द्रोणाचार्य का उदाहरण है।
आज्ञाकारी-
हरिदास एण्ड कम्पनी आयुर्वेदाचार्य कु. मुहताबसिंह शास्त्री
गली रावलिया, मथुरा। य़ह्. रुड्डद्धह्लड्डड्ढ स्द्बठ्ठद्दद्ध स्द्धड्डह्यह्लह्द्ब
रियासत चंदाबारा, पोस्ट जलेसर, जिला मथुरा।