दूसरों के लिए आत्मत्याग

February 1942

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(ले. श्री रामकृष्ण वर्मा, देहली)

तप और ब्रह्मचर्य की महिमा गाते-गाते कोई वेद-पुराण नहीं थकता। इन महान महत्त्वों का रहस्य मूढ़मति वाले कामी और कुटिल व्यक्ति नहीं जानते, पर महर्षि दधीचि ने इसे जाना था। उनका सारा जीवन तप और ब्रह्मचर्यमय ही रहा था। ब्रह्मचर्य के बिना इन्द्रिय लिप्सा शाँत नहीं होती और इन्द्रिय लिप्सा के बिना मन का संयम होना कठिन है। तप का उद्देश्य दुर्भावनाओं को नष्ट करना है। तपस्वी और ब्रह्मचारी व्यक्ति की आत्मा चंचलता त्याग कर ब्रह्म-परायण हो जाती है, यही तो मुक्ति का मार्ग है। महर्षि दधीचि ने पिण्ड और ब्रह्माण्ड के कल्याण के लिए इसी साधना को उचित समझा था। वे भगवती के तट पर ऐसी ही आध्यात्मिक साधना में संलग्न थे।

ईश्वरीय सृष्टि में अनादिकाल से कुछ ऐसा नियम चला आता है कि प्राणियों पर यदा-कदा विपत्तियाँ आती रहती हैं, इसके कई कारण हैं। मनुष्य में धैर्य और साहस आता है, सहन शक्ति बढ़ती है, उन्नति करने के लिए शक्ति में तीव्रता उत्पन्न होती है, अनुभव बढ़ता है, पापों का बोझ कटता है और भी न जाने कितने-कितने लाभ होते है। सुख की अपेक्षा दुख के लाभ हजार गुने अधिक है, इसलिये प्राणियों के न चाहने पर भी प्रभु इस कड़वी दवा को उन्हें पिला ही देते हैं, विपत्तियों आ ही जाती हैं। उस युग में देवताओं पर भी विपत्ति आई। वृत्तासुर के नेतृत्व में असुरों ने देवताओं पर हमला बोल दिया आसुरी शक्ति सदा ही दैवी शक्ति के मुकाबले में प्रबल दिखाई पड़ती है। इस बार देवताओं को हारना पड़ा, वे अपने त्राण के लिए उपाय सोचने लगे।

तत्त्वदर्शियों ने निर्णय किया कि आसुरी वृत्तियों का विनाश तप और ब्रह्मचर्य से बने हुए शस्त्र से ही कर सकते हैं। इसलिए तप और ब्रह्मचर्य की धातुओं से शस्त्र बनाना चाहिये। सब की दृष्टि महर्षि दधीचि के ऊपर जम गई। अपने समय के यही तो सर्वश्रेष्ठ तपस्वी एवं ब्रह्मचारी प्रख्यात थे। उनकी अस्थियों के द्वारा ऐसा वज्र बन सकता था जिससे भयानक से भयानक असुरों का सर्वनाश हो सके। महर्षि उस गोष्ठी में उपस्थित थे। उन्होंने दिव्य दृष्टि से देखा कि देवताओं की जिह्वायें बंद हैं, फिर भी नेत्र याचना की दृष्टि से उनकी ओर लगे हुए हैं। महर्षि ने परोपकार में अपना शरीर तक दे डालने का वह अक्सर आया देखा, तो प्रसन्नता की एक हलकी रेखा उनके होठों पर दौड़ गई। त्याग, सेवा और परोपकार के अवसर बड़े भाग्य से प्राप्त होते हैं। प्रभु को जिन आत्माओं का कल्याण करना होता है, उन्हें ही परोपकारिणी बुद्धि प्रदान करते हैं। दधीचि ने अपने भाग्य को सराहा कि मुझे शुभ कर्म और परोपकार के लिये अपनी अस्थियाँ देने का अवसर अनायास ही प्राप्त हुआ। गौओं को माँस चटा कर ऋषि ने अपनी अस्थियाँ देवताओं को दान दे दीं।

तप और ब्रह्मचर्य से निर्मित हुई उन हड्डियों का वज्र बना और उस वज्र से वृत्तासुर समेत सारे असुरों का संहार हुआ। सुरों की जय और असुरों की पराजय होना ध्रुव सत्य है। प्रभु की पवित्र दृष्टि में शैतानी साम्राज्य कायम नहीं रह सकता। सृष्टि के क्रमागत नियम के अनुसार दुष्टों का विनाश होता है, वह इस बार भी हो गया। परन्तु सब से महान, उच्च आदर्श एवं स्फटिक की तरह निर्मल एक वस्तु तब से लेकर अब तक चमकती हुई चली आ रही है, वह है दधीचि की प्रबल कीर्ति। ‘दूसरों के लिए आत्मत्याग।’ अहा! कितनी महान तत्व है यह। इसका मर्म दधीच जैसे बिरले ही महापुरुष समझते हैं और जो समझ लेते हैं वे अमर हो जाते हैं।


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