(पं. जगन्नाथ राव नायडू, नागपुर)
जब मन में जननेन्द्रिय को तृप्त करने की आकाँक्षा उत्पन्न होती है तो सब इन्द्रियाँ उसकी तृप्ति के लिए प्रयत्न करने लगती है। मेरे विचार से सब इन्द्रियों में जननेन्द्रिय मुख्य है, इसलिये गृहस्थ सम्बंधी घनिष्ठता में या जाति बिरादरी में माता, बहिन या पुत्री की पवित्र भावनाएं ध्यान में रखकर चलना ठीक होता है। जब पवित्र दृष्टि-कोण द्वारा जननेन्द्रिय का संयम हो जाता है तो अन्य इन्द्रियों का नियम पर चलना आसान है।
मेरे काका के यहाँ तिजोरी है, मुझे वहाँ जाने की मनाई नहीं है। अगर मैं उस तिजोरी को अपनी आँख से देखता हूँ और सोचता हूँ कि अच्छी कारीगरी से बनी है तो वह चोरी नहीं है, या सब के सामने हाथ से छूकर उसके रंग पालिश की बड़ाई करता हूँ, तो भी चोरी नहीं है। चोरी तो वह है जब तिजोरी के अन्दर रखे हुए धन पर जी ललचाता है और उसे लेने के लिए दुर्बुद्धि उत्पन्न होती है। जब मन आँख को कहता है कि कोई देखता न हो अकेले में चलना और हाथ को कहता है कि हथौड़ा होशियारी से चलाना, कोई सुन न ले।
निश्चय ही जब जननेन्द्रिय की तृप्ति के विचार मन में आते हैं तो सारी इन्द्रियाँ कुमार्ग पर चलने लगती हैं। पति-पत्नी में भी संयम की जरूरत है। न्याय और नीति का अनुसरण करने पर बहुत जल्द संयम का अभ्यास हो जाता है। निर्धारित मर्यादा के अतिरिक्त स्त्री मात्र में माता बहिन या पुत्री की भावनाएं रखना ब्रह्मचर्य के लिए बहुत ही उत्तम उपाय है। क्योंकि इन भावनाओं के कारण कुदृष्टि उत्पन्न ही नहीं होती, यदि हो भी जाय तो आत्मा के प्रबल धिक्कार के कारण मनुष्य तुरन्त ही संभल जाता है।
लम्बे-चौड़े उपदेश देने और दिखावे या प्रदर्शन के लिए ‘बगुला भगत’ बनने से कुछ लाभ न होगा। हम अपने को छोड़कर संसार में और किसी को धोखा नहीं दे सकते। इसलिए यही सब उचित है कि ढोंग, पाखण्ड या बगुलापन को छोड़कर अन्दर से सफाई कर डालें। मानव जीवन का परम लक्ष्य प्राप्त करने के लिए मन का संयम आवश्यक है। मन का संयम जननेन्द्रिय को नियमानुवर्ती बनाये बिना नहीं हो सकता। इसलिए सत्य धर्म के हर एक जिज्ञासु का कर्त्तव्य है कि वह ब्रह्मचर्य सम्बंधी सतयुगी विचारों की अपने हृदय में स्थापना करे और नियम मर्यादा के अतिरिक्त स्त्री जाति को माता, बहिन या पुत्री की दृष्टि से देखें।