(ले. श्री हरिश्चन्द्र जी मित्तल धामनौद)
करीब 6 महीने की बात होगी। मध्य भारत के हल्कर राज्य में मानपुर नामक ग्राम में एक कुम्हार और कुम्हारिन रहते थे, वे लगभग दो वर्ष से भगवद्भक्ति किया करते थे। कुम्हार प्रतिदिन तक मिट्टी की मूर्ति बनाता, दिन भर पूजन करने के पश्चात प्रातःकाल जल में विसर्जित करके नवीन मूर्ति का निर्माण करता था। इस प्रकार दो वर्ष बीत गये। एक दिन वहाँ के लोगों से उसने कहा कि आज रात को स्वयं भगवान कल्कि के मुझे दर्शन हुए है और मेरे आग्रह से उन्होंने इस मास की पूर्णिमा को सब लोगों को दर्शन देना निश्चित किया है। पहले तो इसकी बात किसी ने नहीं मानी, किन्तु जब उस कुम्हार ने प्रतिज्ञा की कि यदि पूर्णिमा के दिन भगवान दर्शन नहीं देवेंगे, तो मैं जीते जी चिता में भस्म हो जाऊंगा। लोगों को विश्वास हो गया और थोड़े ही दिनों में यह बात सारे मध्य भारत में फैल गई। पूर्णिमा के 2-3 दिन पहले से ही लोगों ने मानपुर में आना शुरू किया और पूर्णिमा के दिन तक तो लगभग 5000 आदमी इकट्ठे हो गये। कुओं का पानी खुट गया, गाँव के हलवाइयों और सौदागरों ने लोगों से दुगुने-तिगुने पैसे वसूल किये।
पूर्णिमा के दिन 12 बजे तक जटाजूट धारी पुरुष उस कुम्हार के घर में से निकला, उसके मस्तक पर त्रिपुण्ड, गले में रुद्राक्ष की मालायें, शरीर पर विभूति और कमर में बाघ चर्म लपेटे हुए था। उसने आते ही घोषित किया कि मैं कल्कि हूँ और आप लोगों को दर्शन देने के लिये आया हूँ। जनता ने उस पुरुष को उठाकर गाँव भर में फिराया, ताकि लोग उसके दर्शन अच्छी तरह से कर सकें, किन्तु इसी बीच में किसी ने उसे पहिचान लिया और वह चिल्ला उठा-’अरे यह तो भगवान नहीं, कालीकिराछ वाले बाबा जी है।’ सारी जनता को विश्वास हो गया और उसको पुलिस हिरासत में दे दिया।
कोर्ट में मुकदमा दाखिल हुआ, जिसमें उस बाबाजी को दो वर्ष की सजा हुई और कुम्हार रिहा कर दिया गया। जनता का 2 लाख के करीब रुपया खर्च हुआ और नतीजा कुछ भी नहीं मिला।