मामेकं शरणं ब्रज

June 1941

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(ले. ठाकुर बलवीर शाही रेणु टिहरी)

माया की उस घनीभूत तमसान्न रजनी में जीव की एक छोटी-सी झिंझरी जीवन-नौका डग- मग करती हुई बही जा रही है। इधर-उधर अथाह पारावार-रहित भवार्णव की उत्ताल तरंगें प्रबल वेग से गरजती हुई नौका को अपने अनन्त उदर में ग्रस लेने को समुद्यत हैं। प्रबल एवं भीषण वायु “साँय-साँय” करता हुआ, इति की सूचना देता हुआ, नौका को कभी इधर, कभी उधर, कभी ऊपर और कभी नीचे, धकेल रहा है। नौकारोही की क्या दशा ऐसे आपात्संकुल समय होगी?- इसका अनुमान सहजगम्य है। ठीक ऐसे करुण समय में कहीं सुदूर प्रदेश के प्राण, मन, और आत्मा में एक हल्की किन्तु दिव्य गुदगुदी पैदा कर देने वाली मधुर एवं पावन मुरली-ध्वनि सुनाई देती है। क्या?-

दैवी होषा, गुणमयी मम माया दुरत्यया।

मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेताँ तरन्ति ते॥

ओह! कितना मधुर, कितना सुन्दर, और कैसा सुदृढ़ आश्वासन है इस ध्वनि के दिव्य संदेश में। नौकारोही चौंक उठता है, बागहो उठता है। उसका अन्तस्तल आशा के एक प्रफुल्ल आलोक से आलोकित हो उठता है। वह अपने को सम्हालता है और पतवार को दृढ़ता से पकड़े हुए तेजी से नौका को चलाने लगता है। वह कुछ निर्भीक-सा हो उठा है। मृत्यु को अनोखा उपहास उसके अधर-पल्लवों में हल्की-सी मुस्कान बनकर थिरक रही है। हाँ, वह उस पर देखता है, क्या उस घनघोर घटा टोप-मई, नीरव, शून्य रजनी के बीच एक प्रखर, प्रशान्त स्निग्ध एवं दिव्य आलोक-राशि के मध्य एक मनोहर मंजुल पुण्य-श्री-सम्पन्ना अलौकिक रूप राशि! उस दिव्य मूर्ति विग्रह के एक-एक परमाणु से परमानन्द, प्रेम और पवित्रता फूट कर बाहर निकल रहे हैं। उसके एक हाथ में वही मुरली और दूसरा हाथ अभय मुद्रा विशिष्ट। त्रैलोक्य-सौंदर्य-श्री की आपात मूर्ति उस जीवन-यात्री के सम्मुख उपस्थित हुई मंद-मंद मुसका रही है।

यात्री विस्मय और आनन्द के द्वन्द्व से आप्यायित और पुलकित हुआ आत्म-विस्मृत सा हो गया। क्षणभर बाद उसे संज्ञा प्राप्त होती है। वह सुनता हैं उस मनभावनी मूर्ति के कोमल कोकिल-कंठ से यह त्रिताप हारी प्रतिवाक्-

सर्व्व धर्म्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज।

अहं त्वा सर्व्व पापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥

उसकी दशा ही बदल जाती है। उसके रोम रोम से परमानन्द की अजस्त्र धारा बह निकलती है। वह देखता है-प्रकृति का एक-एक जर्रा परिवर्तित हो गया है। जल, थल, नभ, अनल, और अनिल, ये सब एकदम परिवर्तित। भीतर आलोक, बाहर आलोक, ऊपर आलोक, नीचे आलोक, इधर आलोक, उधर आलोक, सृष्टि का कण-कण आलोकमय। अब वह तमस कहाँ? हाँ, अब वह घनघोर घटाटोपमयी नीरव रजनी किधर गई? जागृति के समुदाय में स्वप्निल द्वन्द्वों का अस्तित्व कहाँ? भीषण भवार्णव, भवार्णव न रहकर परमानन्दामृतार्णत के रूप में परिवर्तित हो जाता है। और नौकारोही?- अरे, वह देखो, वह अपने को नहीं सँभाल सक रहा है। उसके दुर्बल हाथों से पतवार छूट गई। ओह। नौका अमृताम्बुनिधि के अविरुद्ध आवर्त में चली गई। यह लो, नौका चक्कर खा रही है। और नौका रोही? अहा वह तो अब बेसुध होकर नौका पर गिर गया। नौका और वह-हाँ दोनों उस अथाह पारावार रहित अमृत जल राशि में सदा के लिए निमग्न हो गये॥-’यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।’ वह जहाँ से आया था वहीं पहुँच गया। जो था, वही हुआ।- रसो वैसः। रस हो वायं लब्ध्या नन्दी भवति।’

देखो, परमानन्द के पथिक। वो देखो ओर सुनो वे मुरलीधर अमर सन्देश दे रहे हैं,-’मामेकं शरणंब्रज’


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