उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्यवरा़ित्रबोधत।
क्षुरस्त धारा निशिता दुरव्यया दुर्ग
पथस्तत् कवयो वदन्तिं॥ क. 3-14
उठो, जागो और श्रेष्ठ पुरुषों को पाकर (उनके सत्संग से) ज्ञान प्राप्त करो, किन्तु जैसे छुरी की धार अतीव तीक्ष्ण होती है, उसी प्रकार ज्ञानी पुरुषों ने इस मार्ग को अत्यन्त दुर्गम बतलाया है।
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो, न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यः, तस्यैष आत्मा विवृगुते तनुँस्वाम्॥
मुण्डक 3-2-2
यह आत्मा व्याख्यान से नहीं मिलता, न बुद्धि से और न बहुत सुनने पढ़ने से। यह आत्मा जिसे चुनता है, जिस पर अनुग्रह करता है, उसी को प्राप्त होता है। उसी कृपापात्र के सम्मुख यह अपने आपको प्रगट करता है।
नायमात्मा बल हीनेन लभ्ये, न च प्रमादात्तपसो वाप्यलिंगात्। एतैरुपायैर्यतते यस्तु विद्वान, तस्यैष आत्मा विशते ब्रह्मधाम॥ मुण्डक 3-2-4
यह आत्मा निर्बल व्यक्तियों को प्राप्त नहीं होता, प्रमाद, तप और चिन्ह त्याग अर्थात् संन्यास से भी नहीं मिलता। जो विद्वान इन त्याग आदि उपायों से बराबर यत्न करते रहते हैं, उनको यह आत्मा प्राप्त होता है और वे ब्रह्म धाम में प्रवेश करते हैं।
सत्येन लभ्यस्नपसा होष आत्मा सम्यगज्ञानेन ब्रह्मचर्येण नित्यम्। अन्तः शरीरे ज्योतिर्मगो हि शुभ्रो यं यशान्ति यतयः क्षीण दोषाः॥ मुण्डक 3-1-5
निश्चय से यह आत्मा सत्य, तप, सम्यग् ज्ञान और नित्य ब्रह्मचर्य से प्राप्त होता है। अन्दर शरीर में यह शुभ्र और ज्योतिर्मय है, जिसके दर्शन संयमी पुरुषों को होते हैं, जिनके दोष नष्ट हो चुके हैं।