सूर्यास्त के बाद गगन में बहुत से तारागण दिखाई देते हैं। सूर्योदय होते ही लुप्त हो जाते हैं, अतः मनुष्य का चाहिये कि वह यह न समझे कि दिन में तारे रहते ही नहीं।
अतः प्रिय सज्जनों, मोह के वशीभूत होकर ईश्वर को न पहचान सको, तो यह न कहना चाहिये कि ईश्वर है ही नहीं।
जल एक ही वस्तु है। किन्तु कोई पानी, नीर, पय अथवा कोई वारि के नाम से इस वस्तु को बोलते हैं। इसी तरह सच्चिदानन्द हैं तो एक ही, लेकिन कोई अल्ला, ईश्वर, परमात्मा आदि नामों से आराधना करते हैं।
एक दिन दो मनुष्य आपस में बातें करते जा रहे थे। उनकी निगाह एक गिरगिट पर पड़ी, एक ने कहा- भाई इसका रंग लाल है। दूसरे ने कहा नहीं नीला है। वे इस पारस्परिक कलह को मिटा न सके। थोड़ी देर में एक मनुष्य के पास पहुँचे, जो कि उस बाग का माली था, पहले ने आंखें बदल कर कहा क्या यह लाल रंग का नहीं है? तब वह बोला हाँ है। उसे मालूम था कि गिरगिट रंग बदला करता है। अतः जिसने ईश्वर को एक ही रूप माना है, उस को भगवान एक ही प्रकार का है कि जिसने भगवान के कई रूप देखें हैं, वह जान सकता है कि ईश्वर के तरह-तरह के स्वरूप है।
शहरों में बिजली के जरिये सब जगह प्रकाश पहुँचता है। किन्तु उसका केन्द्र एक ही जगह होता है। इसी प्रकार सब देशों तथा सब युगों में धर्म का ज्ञान कराने वाले महात्मा बिजली के स्तम्भ जैसे लगे हैं। साधारण मनुष्यों को इन्हीं खम्भों के द्वारा सर्व शक्तिशाली परमेश्वर से प्राप्त हुए आत्मज्ञान का प्रसार निरन्तर होता रहता है।
पारस पत्थर से लोहे का स्पर्श हो जाने से वह सुवर्ण हो जाता है। फिर वह जमीन में तथा किसी गड्ढे में फेंक दिया जाय, तो भी सोना ही रहता है। लोहा नहीं हो सकता है। इसी तरह जिसका हृदय परमेश्वर के चरण-कमलों के स्पर्श से पवित्र हो गया, फिर वह अपवित्र नहीं हो सकता, चाहे वह जंगल में रहे, अथवा संसार के झगड़ों में।
लोहे की कटार को पारस पत्थर का स्पर्श हो जाने से उसकी शक्ल तो वैसी ही बनी रहती है, किन्तु वह सुवर्ण की हो जाती है और वह अपना काम ज्यों का त्यों करती है। इसी तरह से भगवान के चरण स्पर्श से हृदय तो निर्मल हो जाता है, किन्तु सूरत वैसी ही रहती है और किसी को हानि भी नहीं पहुँचती है।
दुग्ध और जल को एक साथ मिला देने से रंग तो एक ही हो जाता है, किन्तु जब मक्खन निकाल लिया जाता है, तो वह ऊपर तैरता रहता है, मिलता नहीं। इसी तरह जब जीव को ब्रह्म ज्ञान हो जाता है, तो साँसारिक झगड़ों में रहते हुए भी बुरे संस्कारों के वशीभूत नहीं हो सकता है।
जिस तरह सकरकन्दी तथा आलू को गरम जल में उबालने से मुलायम हो जाता है, उसी तरह कठिन तप से तपस्वी मनुष्य सिद्ध होकर करुणायता से परिपूर्ण हो जाता है।
मनुष्य नसेनी तथा बाँस रख कर मकान की छत पर पहुँच जाता है। इसी प्रकार ईश्वर को चाहने वाला मनुष्य किसी न किसी रास्ते से प्राप्त कर ही लेता है। संसार का हर एक धर्म इन मार्गों में से एक मार्ग को प्रदर्शित करता है।
कई बच्चों वाली माँ किसी बेटे को जेवर, किसी को मिठाई, किसी को खिलौना देकर अपना काम करती है, उस समय वे भी अपनी माता को भूल जाते है। किन्तु कोई बालक अपनी चीज को गिरा देता है और रोने लगता है तो माँ फिर आकर चुप कराती है। इसी तरह प्रिय महानुभावों! तुम साँसारिक बन्धनों तथा घमण्ड में मस्त होकर अपनी जगन्माता को भूल गये और खिलौने से खेलने लगे। इनको छोड़ते ही तुम्हें माता की याद आवेगी और वह भी शीघ्रातिशीघ्र तुम्हें गोद में बैठावेगी।
किसी तालाब में लम्बी-लम्बी घास खड़ी हो, तो उसका पानी देखना हो, घास को उखाड़ कर देख सकते हैं। इसी तरह ईश्वर को देखना हो तो जो आँखों पर माया का परदा पड़ा हुआ है, उसे हटा कर देख सकते हैं।
जन्मदाता हमको क्यों नहीं दीखता, जैसे परदे के भीतर श्रेष्ठ वंशोत्पन्न स्त्री को कोई नहीं देख सकता है। वह सबको देख लेती है। उसी प्रकार ईश्वर के भक्त भी माया के परदे के पीछे जाकर उसे देख लेते हैं।
अत्यन्त अन्धकारमय स्थान पर दीपक लाते ही अँधेरा दूर हो जाता है। इसी तरह भगवान की कृपा से असंख्य जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं।
सत्वाधिकारी वृक्ष मलय पर्वत की हवा से चन्दन हो जाते हैं और जो वृक्ष सत्वहीन होते हैं, वे ज्यों के त्यों रहते हैं। इसी तरह भक्तिशाली तथा पुण्यात्मा मनुष्य परमेश्वर की कृपा की पवन धारा से पवित्र हो जाते हैं। प्रपंची ज्यों के त्यों रहते हैं।
मनुष्य तकिये की खोली के समान है। किसी का रंग नीला, किसी का काला, हरा, पीला आदि कई रंग की खोलिये होती है। परन्तु रुई सब में हैं। ऐसे ही सज्जन, दुर्जन, सुन्दर तथा काले रंग के आदमी होते हैं, परन्तु ईश्वर सब में है।